चैनल को डर है,एंकर को डर है, रिपोर्टर को डर है कि उससे कहीं कुछ इधर उधर न हो जाए? कहीं वही निशाने पर न आ जाए। शुक्रवार के दिन यह डर अपने चरम पर दिखा और हर चैनल में दिखा: कई एंकर पहली बार चरचा शुरू करने से पहले ही ‘चर्चकों’ (पेनलिस्टों) को सावधान करते दिखे कि सब कानून के दायरे में रहकर ही चरचा करें और ऐसा कुछ न बोलें जो कानून को निमंत्रण दे। फिर भी जब कोई चर्चक कुछ उत्तेजक बोलने लगता तो एंकर तुरंत ही ‘अस्वीकरण’ (डिस्क्लेमर) लगाते कि ये इनके विचार हैं, हमारे चैनल के नहीं! हम चकित थे कि ये एंकरों को अचानक क्या हुआ? एक से एक गरजने वाले एंकर अचानक भीगी बिल्ली क्यों बन गए? सच और सिर्फ सच की दावेदारी करने वाले एंकर इतने मिमियाने क्यों लगे?
एक एंकर ने तो अपने चरचा कार्यक्रम में चल रही बहस के बीच में दो बार ‘अस्वीकरण’ लगाया और बोलने वाले को भी टोका कि वो लिमिट क्रॉस न करें और अंत में भी ‘अस्वीकरण’ लगाया। सिर्फ एक अंग्रेजी चैनल पर एक बड़े वकील ने कुछ ढांढस बंधाया कि जब तक आप एंकर के रूप में किसी पेनलिस्ट को कुछ खास उत्तेजक कहने के लिए उकसाते नहीं तब तक आप को डरने की जरूरत नहीं। इस एक कारण तो शुक्रवार के दिन आई सर्वोच्च अदालत के माननीय जज महोदयों की वह टिप्पणी रही जिसमें समकालीन वातावरण के संदर्भ में टीवी के रोल को लेकर भी एक टिप्पणी की गई थी।
लेकिन इससे भी बड़ा कारण वह ‘डर’ रहा जो इन दिनों के सामाजिक वातावरण में छाया हुआ है, और जो शुक्रवार को कुछ और घनीभूत हुआ। और, यह डर उन हिंसक धमकियों के जरिए भी फैलता है, जो असहिष्णुतावादी घृणावादी विचारधारा से प्रेरित रहीं। इसीलिए हमने कहा कि एक डर तो कानून का डर है, जो हमेशा रहा है, जिसे जानकर ही मीडिया अपनी लक्ष्मण रेखा तय करता है, और उसी के दायरे में काम करता है, और अगर कभी भूल-चूक हो जाए तो उसे ठीक करता रहता है, लेकिन दूसरे वाला डर कानूनी डर से कहीं अधिक डरावना है, और इन दिनों वही मीडिया पर तारी है। यह न समाज के लिए शुभ है, न मीडिया के लिए। और यही मीडिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी है कि वह इस डर से कैसे निपटता है? हमारा मानना है कि कोई भी ‘डराने वाला तत्व’ एक खुले समाज और खुले मीडिया से सबसे अधिक डरता है। उसका इरादा यही होता है कि वह सबको डराकर ही अपने डर की सत्ता को कायम करे। उसे हर खुली बहस से, खुले विचार से डर लगता है। इसलिए मीडिया को डरने की जगह उस ‘डर’ पर ही विचार करना चाहिए क्योंकि विचार ही ऐसे ‘डर’ की सत्ता को कमजोर कर सकता है। यों अपना मीडिया भी कोई दूध का धुला नहीं। उसका एक हिस्सा कई बार आग में घी डालने का काम करता रहा है। कई बार बेहद नाजुक मुद्दों पर बेहद उन्मादी बहसें कराता रहा है, और इधर उधर झुका दिखा है जो कि अक्षम्य है। लेकिन ‘फ्री मारकेट’ के नियम उसे फिर-फिर इस या उस ओर झुकने से मना करते रहते हैं, और वह भी रास्ते पर आता रहता है, नहीं तो कानून उसे ला सकता है।
आज मीडिया बेहद नाजुक मोड़ पर है। जिन दिनों सारा अनुभव और राजनीति मीडिया के जरिए ही बनाए-बिगाड़े जाते हों तब तो उसका काम और भी नाजुक हो उठता है। यों कुछ न्यस्त स्वार्थ भी अपनी कंस्टीट्वेंसी बनाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल करते ही हैं। उसका एक हिस्सा कई बार ऐसा होने भी देता है क्योंकि एंकर-रिपोर्टरों के विचार भी इस-उस तरफ झुके होते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि चैनल अपने ‘मीडिएशन’ की क्षमता खो दे। उसे डर से उबरना है, तो अपने ‘मीडिएशन’ की इसी क्षमता को बहाल करना है। खबरों-चरचाओं में अपने हस्तक्षेप को स्थापित करना है, और इस या उस राजनीतिक हित की ओर झुकने की जगह मीडिया के अपने उच्च मानकों को फिर से वापस लाना है। मीडिया ऐसा करता है, तो उसे किसी से डरने की जरूरत नहीं। आज ऐसे ही निडर मीडिया की जरूरत है क्योंकि मीडिया डर गया तो समझो मीडिया तो मर ही गया, जनतंत्र भी मर गया। यही मौका है कि चैनल अपनी प्रस्तुतियों और शोज पर पर पुनर्विचार कर उनको नया रूप दें, दैनिक चरचाओं को फिर से परिभाषित करें, धार्मिक मुद्दों पर बाबाओं और मौलवियों की जगह धर्म के विद्वानों को बुलाएं। एंकर भी तैयारी करके आएं और सबसे जरूरी है कि अपने पेनलिस्टों को बदलें क्योंकि उनमें बहुत से अब ‘प्रेडिक्टेबिल’ नजर आते हैं।