बिहार की राजनीति में एक नई करवट लेने की सुगबुगाहट होने की आहट मिल रही है। विधान परिषद के हालिया संपन्न चुनाव परिणाम ने अपरोक्ष रूप से राज्य की सियासत में नये तरह के संकेत जरूर दिए हैं। बिहार की राजनीति की दो ताकतवर जातियां एक साथ आने को अब तैयार दिख रही है। ७५ सदस्यीय बिहार विधान परिषद के २४ सीटों के लिए हुए मतदान का परिणाम सामने है। १३ सीट जीतने के बाद बाजी भाजपा–जद (यू) गठबंधन यानी एनडीए के हाथ लगी। वहीं ०६ सीट जीतने के बावजूद बाजीगर कहलाने का हक लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को मिला है। आम लोगों के बीच धारणा है कि इस चुनाव को जनता का मत/मिजाज ना समझा जाए। अलबत्ता मैं इस परंपरागत धारणा से सहमत नहीं हूं और इसे सिरे से खारिज करता हूं। ये सही है कि इस चुनाव से सरकार की सेहत पर तुरंत असर नहीं पड़ने वाला। फिर भी‚ इसकी गूंज देर तक और दूर तलक सुनी जाएगी।
इस विधानपरिषद चुनाव के मतदाताओं की कैटेगरी को देखिए। कौन हैं ये लोगॽ ये वो लोग हैं‚ जो भारतीय लोकतंत्र की क्रमतालिका में जनता से सीधे चुने गए हैं। इनमें वार्ड सदस्य‚ पंचायत समिति सदस्य‚ मुखिया‚ जिला पार्षद‚ एमएलए‚ एमएलसी‚ सांसद शामिल हैं। अब जरा शहर से लेकर गांव तक की राजनीतिक फिजां पर गौर कीजिए। वो कौन लोग होते हैं जो किसी भी पार्टी के पक्ष में या विरोध में माहौल बनाते हैं। ये वो ही लोग हैं जो त्रिस्तरीय पंचायती राज में चुनाव जीत कर आए हैं। ॥ जातिगत राजनीति में जकड़ी बिहार की भूमि पर वो कौन सी जातियां हैं जो बिहार में प्रभावी हैं। जवाब है सवर्णों में भूमिहार‚ पिछड़ों में यादव और दलितों में पासवान। कतिपय सामाजिक–राजनीतिक कारणों से कालांतर से ही बिहार में भूमिहार और यादव एक–दूसरे के खिलाफ रहे। इस दूरी को २४ विधानपरिषद सीटों पर हुए चुनाव ने बहुत हद तक पाट दिया‚ लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं होती। इस चुनाव में भाग्य आजमा रहे उम्मीदवारों के सामाजिक चरित्र को देखने पर कुछ संकेत चौंकाने वाले हैं। राष्ट्रीय जनता दल जिसकी पहचान यादव और मुस्लिमों की पार्टी के रूप में है। इसके १० यादव उम्मीदवार में से ०९ चुनाव हार गए। एक भी मुसलमान कैंडिडेट किसी भी खेमे से जीत नहीं दर्ज कर सका। नीतीश कुमार को कोर वोटर जिसका वो अपना होने का दावा करते हैं‚ कुर्मी और कुशवाहा एक भी सीट जीतने में नाकाम रहे। दूसरी ओर पहली बार राजद ने २४ में ०५ उम्मीदवार अपनी धुर विरोधी जाति भूमिहारों को दिया। इन पांचों में से ०३ जीतने में कामयाब रहे और एक उम्मीदवार अपनों की चालबाजी के कारण मामूली अंतर से हार गया। मतलब साफ है। अब अगर राजद भूमिहार (सवर्ण) को आगे कर चुनावी मैदान में उतरती है तो इसके लिए जीत का स्ट्राइक रेट औसत से अधिक रहेगा और विधानसभा में २० वर्षों का वनवास समाप्त होगा। दरअसल‚ बिहार में भाजपा सहित पूरे एनडीए को खड़ा करने में सबसे मुखर भूमिका भूमिहारों की रही है‚ मगर छद्म सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर भाजपा सहित सभी एनडीए के घटक दलों ने इस जाति की उपेक्षा की। २० साल बीतते बीतते सब्र का बांध टूटने लगा। अपने नेताओं की उपेक्षा ने इसे एनडीए से बागी होने पर मजबूर कर दिया। लिहाजा अगर राजद के टिकट पर ०५ में तीन भूमिहार उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे तो इसे नये सामाजिक राजनीतिक समीकरण का सूत्रपात मानिए। हालांकि २४ विधानपरिषद की सीटों पर भाजपा १२ सीटों पर चुनाव लड़ रही थी‚ जद (यू) ११ पर और लोजपा का पारस खेमा ०१ सीट पर। १३ सीटों के साथ तीनों ने बहुमत तो पाया है‚ लेकिन इस जीत में भी इनकी हार है।
२४ सीटों में से इनके पास १८ सीटें थी। लिहाजा ०६ सीटों का सीधा नुकसान है। दूसरी और इस बार भाजपा १२ में से ०७ सीट जीत पाई तो जद (यू) के पास ११ में से मात्र ०५ सीटें ही रही। लोजपा का पारस खेमा ०१ सीट पर लड़ी और जीतने में कामयाब रही। भाजपा वैश्य समुदाय के साथ तालमेल करते हुए अपनी सीट जीतती हुई दिख रही है। हालांकि वैश्य वर्ग के साथ के समीकरण में भाजपा के लिए नया कुछ नहीं है। वहीं वोटिंग पैटर्न बताता है कि अगर राजद का पलड़ा भारी हुआ तो महंगाई और अफसरशाही ये दो ऐसे शब्द हैं‚ जिनको आधार बनाकर ना सिर्फ वैश्य बल्कि रोजी रोटी की लड़ाई में पिछड़ा हर व्यक्ति राजद के साथ होगा। साथ ही राजनीति के शिकार चिराग पासवान और मुकेश सहनी भी एनडीए के खिलाफ ही मोर्चा खोलेंगे। लिहाजा गैर एनडीए गठबंधन का पलड़ा भारी हो सकता है। दरअसल‚ २४ विधानपरिषद की सीटों पर हुए इस चुनाव ने हर दल को मौका दिया है। राजद के लिए नया समीकरण गढ़ने का अवसर है। एनडीए के लिए संभलने की चुनौती। एनडीए लगातार अपने कोर वोटर को किनारे कर कुछ प्रयोग कर रही है। ऐसा ना हो कि प्रयोगशाला की भट्ठी में अपना ही चेहरा झुलस जाए। राजनीति सिर्फ विज्ञान नहीं सामाजिक विज्ञान है। आने वाले वक्त में हो सकता है ऐसा नारा सुनाई दे कि ‘मोदी तुझसे बैर नहीं बिहार में एनडीए की खैर नहीं।