हममें से अधिकांश अपने शिक्षकों को अपना नायक मानते हैं। हम जो हैं‚ उसके लिए शिक्षकों के प्रति कृतज्ञ भी रहते हैं। इस स्वीकृति के बावजूद जब समूह वाचक संज्ञा के रूप में ‘शिक्षक’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं‚ तो संतुष्टियों के स्थान पर असंतुष्टियां स्पष्ट दिखती हैं। इस शिक्षक दिवस पर समाज में शिक्षकों की ‘महान’ भूमिका बताने वाले अतिरंजित लेखों और संदशों के बीच याद रखने की जरूरत है कि पिछले कुछ वर्षों में अधिकांश शिक्षक भर्तियाँ कानूनी दाव–पेच में उलझी हैं। शिक्षकों की सबसे बड़ी आबादी निजी विद्यालयों और असंगठित क्षेत्रों जैसे–ट्यूशन–कोचिंग पर निर्भर है। जो शिक्षक ‘सरकारी’ सेवा में सुरक्षित हैं‚ वे राज्य के हर उस कार्य में सहयोग कर रहे हैं‚ जिसके लिए राज्य के पास अतिरिक्त श्रम शक्ति नहीं है। प्रशिक्षित अध्यापक नई नौकरियों और भर्तियों की बाट जोहते हुए दूसरे क्षेत्रों में भी हाथ–पैर मार रहे हैं।
आखिर यह स्थिति क्यों हैॽ इसका कारण हमारी वे लोकप्रिय मान्यताएं हैं‚ जिनके अनुसार अध्यापन कोई चुनौती भरा पेशा नहीं है। इसके लिए किसी खास मानसिक और व्यावसायिक तैयारी की आवश्यकता नहीं होती। किसी भी साक्षर व्यक्ति द्वारा बच्चों को पढ़ाया जा सकता है। अध्यापक को किसी भी कार्य की जिम्मेदारी दी जा सकती है। हर अध्यापक से मिथकीय नायक के चरित्र जैसी ‘महानता’ की अपेक्षा की जाती है। आइए‚ इस स्थिति को अध्यापन व्यवसाय के अनूठेपन‚ सांगठनिक अवस्थिति और अध्यापक की सामाजिक अस्मिता के माध्यम से समझते हैं।
अध्यापन व्यवसाय का अनूठापन
हम अपने चारों तरफ जिन व्यवसायों और व्यवस्थाओं जैसे–चिकित्सा‚ सुरक्षा‚ बैंकिंग‚ पुलिस आदि को देखते हैं‚ इनमें से अधिकांश व्यवस्थाएं प्रतिरोधात्मक और अनुशासन को कायम रखने वाली हैं। इनका मुख्य योगदान यथास्थिति को बनाए रखने में होता है। इससे इतर अध्यापन कोई ‘पैथॉलाजिकल’ व्यवसाय नहीं है‚ जो शरीर और समाज में समस्या के पैदा होने पर उनका निवारण करता है‚ बल्कि यह मनुष्य की चेतना को रचने का संयुक्त उद्यम है। यहां संयुक्त उद्यम पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि रचना की इस प्रक्रिया में शिक्षक बाहर से कुछ थोपता नहीं‚ बल्कि स्वाभाविक प्रस्फुटन को पोषित करता है। व्यक्ति को संबल देता है। इसके रास्ते समाज में रूपांतरण की संभावना को साकार करता है। यही नहीं‚ समुदाय के बीच बौद्धिक बहस हो‚ लोक कल्याण के लिए पहल हो या न दिखने वाले सत्य को उजागर करने का साहस‚ इसके पीछे आप शिक्षकों की भूमिका को देख सकते हैं। इसका उदाहरण हमारा स्वतंत्रता संघर्ष है‚ जहां राज्य के बरक्स शिक्षकों की आवाज ने समाज को उद्वेलित किया। शिक्षकों की इसी भूमिका को स्वतंत्रता के बाद हुए महत्वपूर्ण जनांदोलनों में भी देख सकते हैं‚ और इन्हीं वृहतर भूमिकाओं के सापेक्ष हमें उनका भविष्य भी देखना होगा।
अध्यापकों की सांगठनिक अवस्थिति
प्रायः अध्यापकों की चर्चा करते हुए हम उनके व्यक्तिगत गुणों जैसे–ईमानदारी‚ कर्त्तव्यनिष्ठा‚ वैज्ञानिक अभिवृत्ति‚ सृजनात्मकता‚ नवाचार की तत्परता आदि पर बल देते हैं। इसके अनुरूप कुछ चुनिंदा अध्यापकों का उदाहरण भी देते हैं। हम हर अध्यापक के व्यवहार में इनकी छवि को देखना चाहते हैं‚ लेकिन ध्यान रखिए अध्यापक की महत्ता शिक्षा की सांगठनिक व्यवस्था से जुड़ी है। उसकी सांगठनिक संस्कृति ही उसको अध्यापक बनाती है। किसी अधिनायक प्रधान व्यवस्था में सर्जक अध्यापक मिले‚ ऐसा विरला ही उदाहरण होगा। बल्कि ऐसी व्यवस्था में सर्जक मस्तिष्क भी बंजर बन जाता है। इसका एक और पक्ष देखिए। शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापकों के बारे में सबसे जोर–शोर से चलने वाला नारा ‘स्वायत्तता’ का है। लेकिन शिक्षा के किसी भी दस्तावेज को देखिए उसमें संगठनात्मक स्वायत्तता की बात की गई है‚ जिसका लक्ष्य स्वतंत्र चिंतन करने वाले अध्यापकों का समुदाय तैयार करना है। यदि इन संगठनों की संस्कृति में संवाद और सौहार्द नहीं है‚ तो स्वायत्तता केवल नीतिगत शब्द बन जाता है। इन मूल्यों के विपरीत आजकल अध्यापकों में नये किस्म का अभिजन बोध दिख रहा है। वे शिक्षण और शोध में अपनी भूमिका को बताने के स्थान पर अपने प्रशासनिक परिचय को प्रमुखता देते हैं जबकि प्रशासन और शिक्षण अपनी मूल प्रकृति में ही एक दूसरे से भिन्न गतिविधियां हैं।
अध्यापकों में प्रशासक बनने की लालसा शिक्षा की सांगठनिक संस्कृति को नौकरशाही में बदल रही है‚ जिसके लिए हम राज्य को दोषी ठहरा कर संतुष्ट होते हैं जबकि इसके वास्तविक क्रियान्वयक प्रशासक बनने की लालसा में डूबे मध्यस्थ होते हैं। ऐसे मध्यस्थ शिक्षा व्यवस्था के लिए दीमक के समान हैं‚ जो व्यवस्था को अंदर से खोखला बना देते हैं।
शिक्षकों की सामाजिक अस्मिता
हाल में ही एक विद्यार्थी संगठन के कार्यकर्ता ने साझा किया कि पिछले दस दिनों में उसके पास लगभग बीस युवाओं के फोन आए। सभी युवा बी.एड. करना चाहते थे। इनमें से अधिकांश का प्रश्न था कि क्या इस पाठ्यक्रम के दौरान उन्हें कक्षाओं में उपस्थित रहना होगाॽ क्या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए समय मिलेगाॽ क्या बिना क्षेत्रकार्य किए उपाधि मिल पाएगीॽ ये सवाल दर्शाते हैं कि अध्यापन सस्ती डिग्री के रास्ते सरकारी नौकरी पाने का माध्यम है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि आर्थिक दृष्टी से अध्यापन आकर्षक नौकरी है‚ लेकिन समाज में इसकी स्वीकृति एक ‘कमजोर’ व्यवसाय की है। इसी का परिणाम है कि एक सेवापूर्व शिक्षक रेलगॉर्ड पद पर चयनित होकर खुश होता है। दिल्ली जैसे महानगरों के विद्यार्थी सेवापूर्व अध्यापक की उपाधि लेते–लेते सिविल सेवाओं में चयनित होकर प्रसन्न होते हैं। विद्यार्थी‚ अभिभावक और अध्यापक सभी जानते हैं कि कोई अध्यापक नहीं बनना चाहता है पर हम भूल जाते हैं कि हमारा समाज जिस व्यवसाय को नहीं अपनाना चाह रहा है‚ उसी के प्रतिनिधि अर्थात अध्यापक ही अधिकारी से लेकर वैज्ञानिक तक बना रहे हैं।
ऐसे ही अध्यापकों द्वारा वर्तनी गलत लिखने‚ अधिकारी द्वारा पूछे जाने पर सवाल का जवाब न दे पाने से जुड़ी भी अनगिनत घटनाएं उद्धृत की जाती हैं। इन उदाहरणों को प्रचारित कर और वैध बना हमने अध्यापक की स्थिति को लगातार नीचे गिराया है। अध्यापकों से सवाल पूछने और उन्हें कठघरे में खड़ा करने से पहले सोचिए कि क्या हम एक ऐसे समाज के रूप में विकसित हो रहे हैं‚ जिसके लिए पढ़ना–लिखना‚ सोचना‚ रचना या इन सबके लिए एक शब्द कहूं कि ज्ञान–साधना महत्वपूर्ण गतिविधि हैॽ हमारे परिवारों में पढ़ने–लिखने‚ किताबों को खरीदने‚ खुद के हित से इतर समुदाय के मुद्दों पर सोचने‚ बौद्धिक चर्चाओं में भागीदारी करने की कमी दिखती है। हम सभी एक तरह से रोजी–रोटी और मनोरंजन में उलझे हुए हैं। बौद्धिकता और भावनात्मकता के परिवेश को केवल स्कूलों और महाविद्यालयों तक बांध दिया है। हमारी दैनिक गतिविधियों में इनका अभाव शिक्षक और शिक्षा से जुड़ी हर गतिविधि को कमजोर करता रहेगा। हमें जानने‚ खोजने और करने की प्रक्रिया के लिए शिक्षक के न दिखने वाले उद्यम की सराहना करनी होगी। इस तथ्य को सामाजिक स्वीकृति प्रदान करनी होगी कि अध्यापक कोई हरफनमौला मिथकीय पात्र नहीं है‚ बल्कि किसी भी आम आदमी की तरह बुद्धि और भाव से युक्त व्यक्ति है‚ जो प्रेम‚ संवाद और सौहार्द के रास्ते भावी पीढ़ी को आगे बढ़ने का संबल प्रदान करता है।