कल शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को संबोधित करते हुए अपने पहले के तमाम भाषणों और ऐसे अवसरों से अलग लगे. आमतौर पर लंबे व्याख्यान देने वाले प्रधानमंत्री मोदी का भाषण 38 मिनट में समाप्त हुआ और कश्मीर तक सिमटा रहा. कूटनीति और राजनीति के लिहाज से देखें तो मोदी का भाषण न तो भारत भर में फैले अपने प्रशंसकों के लिए था और न ही देशवासियों के लिए. पाकिस्तान का या भारत में पाकिस्तानी गतिविधियों का तो प्रधानमंत्री ने नाम तक नहीं लिया. मोदी दरअसल इस भाषण के ज़रिए कश्मीरी अवाम और विश्व समुदाय, दोनों को साधने की कोशिश कर रहे थे. कम से कम संदेश तो ये ही था.
विश्व समुदाय और कश्मीर के लिए मोदी के भाषण में दो संदेश थे. दोनों ही विश्वमंच पर सराहे जाने वाले शब्द हैं- डेवलेपमेंट और डेमोक्रेसी. मोदी अपने भाषण में या तो लोकतंत्र को मज़बूत करने, नई राजनीतिक पीढ़ी तैयार करने और तरह-तरह के चुनावों पर ज़ोर देते रहे और या फिर विकास के स्वप्न संसार में लोगों को भविष्य की छवियां दिखाने की कोशिश करते नज़र आए. ये दोनों ही बातें सकारात्मक हैं क्योंकि इसमें नौकरियां हैं, बेहतर जीवन स्तर है, समष्टिभाव है, बेहतर संसाधन और व्यापार है, मज़बूत लोकतंत्र है और लोगों की प्रतिभागिता का आह्वान है.
उधर जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर पाकिस्तान को चारों खाने चित करने के बाद भारत अब संयुक्त राष्ट्र में भी इमरान खान की सरकार को धूल चटाने की तैयारी में है. इमरान खान की सरकार ने भारत को चेतावनी दी थी कि वह जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने का मामला संयुक्त राष्ट्र में उठाएगा. पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने संयुक्त राष्ट्र को इस बाबत पत्र भी लिखा है. इसी बाबत भारत ने तैयारी करनी शुरू कर दी है.
मीडिया रिपोर्ट की मानें तो भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी और 10 अस्थायी सदस्यों के साथ बातचीत शुरू कर दी है. न्यूयॉर्क में भारतीय अधिकारी इन 15 सदस्य देशों के उच्चाधिकारियों के संपर्क में हैं. जम्मू और कश्मीर से आखिर क्यों आर्टिकल 370 हटाया गया, इस बारे में इन देशों को अवगत कराया जा रहा है. उन्हें यह भी बताया जा रहा है कि आर्टिकल 370 हटाने से जम्मू-कश्मीर के स्थानीय देशों को क्या फायदे होंगे. कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने के बारे में भी सुरक्षा परिषद के सदस्यों को बताया जा रहा है.
पाकिस्तानी सेना के बयान पर पाक को घेरेगा भारत
सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों को भारत यह भी बताने वाला है कि पाकिस्तान की सेना कहा था कि इस्लामाबाद कभी भी आर्टिकल 370 और 35A को मान्यता नहीं देता है. ये बयान पाकिस्तान के पक्ष को खासा कमज़ोर कर सकता है. सवाल उठता है कि अगर वो इस आर्टिकल 370 को मान्यता नहीं देता है, तो फिर इसको लेकर बवाल क्यों खड़ा कर रहा है.
पाकिस्तान ने लिया यू-टर्न
विश्व समुदाय में कही से भी समर्थन न मिलता देख पाकिस्तान ने अब यू-टर्न ले लिया है. पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने गुरुवार को कहा कि भारत अगर कश्मीर पर अपने कदमों पर पुनर्विचार को राजी हो जाता है, तो इस्लामाबाद उसके खिलाफ राजनयिक संबंधों को कम करने सहित अपने निर्णयों की समीक्षा करने को तैयार है. इससे पहले कुरैशी ने कहा था, पाकिस्तान सैन्य विकल्प पर विचार नहीं कर रहा है. इसकी जगह हम मौजूदा स्थिति से निपटने के लिए राजनीतिक, कूटनीतिक और कानूनी विकल्पों पर विचार कर रहे हैं.
मोदी का रामबाण फार्मूला
मोदी का यह फार्मूला पिछले कुछ वर्षों की राजनीति के वरक पलटकर समझा जा सकता है. अवधारणा सीधी है. जिस भी राज्य में अपने पैर जमाने हों, पहले वहां के राजनीतिक वर्चस्व और सबसे मज़बूत दिख रहे राजनीतिक घरानों को पहचानो. फिर उनकी जातीय और सामुदायिक सत्ता की सीमित आबादी के अलावा बाकी लोगों को अवसर, शक्ति और समानता के नारे के साथ जोड़ो. इस तरह पहले से बनी लकीरों के समानान्तर बड़ी लकीर खींचकर मोदी अभी तक जीत पर जीत साधते आए हैं.
उदाहरण से समझना चाहें तो उत्तर प्रदेश की ओर देखें. मायावती जाटवों की राजनीतिक पहचान हैं. वहीं अखिलेश यादव एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण के उत्तराधिकारी. लेकिन बाकी जातियों में इनकी पैठ सीमित रही. मोदी ने बाकी छोटी-छोटी जातियों को एकीकृत करके इन क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व को हाशिए पर ला दिया. यहां परिवारवाद और जातिवाद या संप्रदाय विशेष के तुष्टिकरण को मोदी पहली लकीर के खिलाफ इस्तेमाल करके अपने पाले में बहुमत जुटाते आए हैं.
बिहार में यही स्थिति लालू प्रसाद की जाति आधारित राजनीति की हुई है. उनका एमवाई समीकरण भी राज्य की राजनीति की एक बड़ी लकीर था जिसे मोदी ने उनसे बड़ी लकीर खींचकर छोटा साबित कर दिया है.
ऐसा माना जाता रहा है कि हरियाणा की राजनीति में जाटों से अलग होकर धान की एक पौध तक रोपी नहीं जा सकती. लेकिन राज्य के विधानसभा चुनाव से लेकर दो लोकसभा चुनावों तक जिस तरीके से जाट और जाट राजनीति के जमे-जमाए परिवार हाशिए पर डाल दिए गए, वो मोदी के इस फार्मूले से ही संभव हो सका है.
केवल राजनीतिक विपक्ष ही नहीं, भाजपा से जुड़े संगठनों के साथ भी ऐसा हुआ है. शिवसेना से बेहतर उदाहरण इसके लिए क्या हो सकता है. आज शिवसेना की छटपटाहट एनसीपी या कांग्रेस के प्रति कम, भाजपा से पैदा हो रहे खतरे के प्रति ज़्यादा है.
अगला दांव कश्मीर में
और अब बारी है कश्मीर की. मोदी अपने भाषण में एक काम सबसे ज़्यादा करते नज़र आए और था किसी भी जाति, संप्रदाय या क्षेत्रीय पहचान से ऊपर उठकर बहुमत आबादी को रिझाने की कोशिश करने का. मोदी ने न तो कश्मीरी पंडितों का ज़िक्र किया और न ही हिंदू मुसलमान या बौद्ध और सिखों का. वो सबके लिए नौकरियों, व्यापार के अवसर, विश्वस्तरीय पर्यटन, सिनेमा और खानपान, वजीफे और भर्तियां लेकर आए. उन्होंने राज्य के कर्मचारियों और पुलिस को केंद्रीय कर्मचारियों के बराबर लाने का ख्वाब दिखाया.
युवाओं को भविष्य, परिवारों को बेहतर जीवन स्तर, दो परिवारों तक सीमित सत्ता की परिस्थितियों में सबसे लिए राजनीति में अवसर मोदी की इस ख्वाबीदा तस्वीर में शामिल थे.
मोदी भाषण में विकास के ये सारे बिंब गढ़ते हुए सत्ता पर दशकों से काबिज परिवारों को घेरते भी रहे. इरादा साफ है, इन राजनीतिक परिवारों की लकीर से लंबी लकीर खींचना और इन्हें जम्मू-कश्मीर की राजनीति के पन्ने पर हाशिए तक समेट देना.
लंबी लकीरें लोगों को भाती हैं. वो लकीरों में बेहतर तकदीर देखने लगते हैं. लेकिन कश्मीर में लकीर केवल परिवारों में जकड़ी राजनीति की ही नहीं है. लोगों के दिलों में लकीर है क्योंकि उन्हें गहरे घाव झेलने पड़े हैं. मोदी अपनी रणनीति से भले ही क्षेत्रीय राजनीति के घरानों की लकीरें छोटी कर लें, लेकिन कश्मीरियों के दिलों की लकीरें लंबी हैं और यहां सवाल उससे आगे निकल पाने का नहीं है, उसे मिटा पाने का है.