कर्नाटक का संकट अभी तक सुलझा नहीं है. कांग्रेस-जेडीएस के 16 विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है. लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने उनके इस्तीफे स्वीकार नहीं किए हैं. शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार तक वहां यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया है. उधर सीएम कुमारस्वामी ने कहा है कि वो विधानसभा में बहुमत परीक्षण को तैयार हैं. कांग्रेस, जेडीएस और बीजेपी तीनों ही पार्टियां विधायकों को अपने पाले में बनाए रखने की हर संभव कोशिश कर रही हैं.
इस्तीफा स्वीकार नहीं होनी की स्थिति में टेक्नीकली विधायक अभी भी विधानसभा के सदस्य हैं. लेकिन इस बीच एक सवाल ये भी है कि क्या कोई भी विधायक जब मन करे विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे सकता है? जनता द्वारा चुना हुआ प्रतिनिधि अपनी मनमर्जी से कभी भी अपना पद छोड़ सकता है? इस बारे में संविधान क्या कहता है?
विधायकों का इस्तीफा देना इतना भी आसान नहीं है
विधायक या सांसद विधानसभा या लोकसभा में जनता के प्रतिनिधि होते हैं. जनता के प्रति उनकी जवाबदेही होती है. वो अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते हैं. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वो इस्तीफा नहीं दे सकते हैं, पर इस्तीफे की वाजिब वजह होनी चाहिए. संविधान में इस बात की व्यवस्था है कि किन परिस्थितियों में एक विधायक या सांसद अपने पद से इस्तीफा दे सकता है और उसे किन स्थितियों में स्वीकार किया जा सकता है.
संविधान के आर्टिकल 190 में विधायकों या सांसदों के इस्तीफे पर दिशानिर्देश दिए गए हैं. इसी आर्टिकल में स्पीकर या किसी दूसरे प्रिजाइडिंग ऑफिसर को ये अधिकार दिया गया है कि वो चाहें तो इस्तीफा अस्वीकार कर सकते हैं. स्पीकर इस्तीफे की बाबत जांच करवा सकते हैं. इस्तीफा देने के पीछे वाजिब कारण होने चाहिए. अगर स्पीकर को लगता है कि इस्तीफा सही वजहों से नहीं दिया जा रहा है. अगर वो स्वैच्छिक या वास्तविक नहीं है तो स्पीकर इस्तीफे का नामंजूर कर सकते हैं.
विधायकों या सांसदों के अपने पद छोड़ने के कुछ और तरीके भी हैं. मसलन वो बिना अनुमति के हाउस की कार्यवाही से लगातार 60 दिन तक गैरहाजिर हो सकता है. ऐसी स्थिति में भी हाउस को ही ये फैसला होना होता है कि ऐसे सदस्य की सदस्यता रद्द की जाए या नहीं.
इस बारे में एक व्यवस्था दल-बदल कानून की भी है. इस कानून के मुताबिक एक विधायक या सांसद की सदस्यता रद्द की जा सकती है, अगर वो स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ना चाहता हो या फिर उसने हाउस में वोटिंग की परिस्थिति में पार्टी लीडरशिप के निर्देशों की अवहेलना करता हो.
दलबदल कानून 1985 में बना है. इसका मकसद विधायकों या सांसदों का बार-बार पार्टी बदलने से रोकना है. 1985 के पहले ऐसे कई उदाहरण हैं, जिसमें विधायकों या सांसदों ने विधानसभा या लोकसभा का सदस्य रहते हुए अपनी पार्टी बदल ली. हरियाणा के एक विधायक गया राम ने 9 घंटे के भीतर 3 बार पार्टी बदली थी.
xzकर्नाटक में स्पीकर पर बहुत कुछ निर्भर करता है
कर्नाटक के स्पीकर का फैसला लेने में देरी के पीछे इस कानून का इस्तेमाल भी हो सकता है. अगर बिना इस्तीफा स्वीकार किए बहुमत साबित करने की स्थिति बनती है तो उन विधायकों को पार्टी व्हिप की अवहेलना करने पर उनकी सदस्यता रद्द की जा सकती है. इसलिए स्पीकर बार-बार ये बात दोहरा रहे हैं कि उन्हें पहले आश्वस्त होना है कि विधायकों के इस्तीफे स्वैच्छिक और वास्तविक हैं या नहीं.
सदस्यता से स्वैच्छिक तौर पर इस्तीफे का व्यापक अर्थ है. ऐसे मामले सुप्रीम कोर्ट में कई बार उठ चुके हैं. ऐसे मामलों में सदस्यों के आचरण भी महत्वपूर्ण है. इसका एक मतलब ये भी है कि अगर किसी विधायक या सांसद ने किसी फोरम पर पार्टी की विचारधारा से विरोध दर्ज नहीं करवाया हो या फिर पार्टी के किसी फैसले पर आपत्ति जाहिर नहीं की हो तो ऐसे मामलों में इस्तीफे को स्वैच्छिक नहीं माना जा सकता. ऐसे केस में इस्तीफा अस्वीकार भी किया जा सकता है.
इस्तीफा देने वाले कांग्रेस और जेडीएस के विधायक सरकार के कुशासन को आधार बना रहे हैं. उनका कहना है कि कांग्रेस-जेडीएस की गठबंधन सरकार राज्य को ठीक से चला नहीं पा रही है और गलत फैसले लिए जा रहे हैं. शुक्रवार से विधानसभा का मानसून सत्र शुरू हो चुका है. कांग्रेस पार्टी ने व्हीप जारी कर सभी सदस्यों को उपस्थित रहने को कहा है. व्हीप के उल्लंघन की स्थिति में भी दलबदल कानून लागू हो सकता है.