मौसम की विविधताओं के आधार पर छह ऋतुओं (वसंत, ग्रीष्म, वष्ा, शरद, हेमंत और शिशिर) में बंटा भारतीय ऋतु-चक्र यों तो अपनी विविधताओं के कारण पूरी दुनिया के आकर्षण का केंद्र है, पर इसकी समस्याएं भी कम नहीं हैं। खास तौर से वैशाख और जेठ-आषाढ़ के महीनों में गर्मी का जो रौद्र रूप देखने को मिलता है, उससे बचाव का उपाय जनता को अब सूझता दिखाई नहीं देता। मौसम विभाग सिर्फ अलर्ट जारी करके रह जाता है, सरकार भीषण गर्मी और लू से सतत मौतों के बावजूद इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित नहीं करती। बाढ़-भूकंप जैसी आपदाओं के वक्त जैसी सहायता सरकार से मिलती है, लू से मरते लोगों को वह भी नसीब नहीं होती। गांव-देहात के मुकाबले ऊपर से चमक-दमक से भरपूर दिखने वाले शहरों-महानगरों की समस्याएं कम नहीं हैं क्योंकि ये अर्बन हीट जैसी समस्याओं से दो-चार होते हैं, जिसके चलते यहां की गर्मी और भी असहनीय बन जाती है। देश में मॉनसून आने से पहले भीषण गर्मी और लू एक बड़ी आपदा क्यों बन गई है, इसे समझने के लिए जानें कि सिर्फ बिहार में तीन दिनों के अंदर 183 लोगों की मौत का आंकड़ा मीडिया में छाया हुआ है। अस्पतालों में चमकी बुखार से पीड़ित बच्चों के अलावा सैकड़ों मरीज लू के शिकार होकर पहुंचे हैं। राज्य के ज्यादातर शहरों का तापमान 45 डिग्री पार है, जिसके मद्देनजर 22 जून तक राज्य के सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए हैं। गया जिले में गर्मी को देखते हुए प्रशासन ने धारा 144 लागू कर दी है। बिहार के बाहर कई राज्यों में तापमान 50 तक पहुंच गया। कुछ लोगों की तो चलती ट्रेन तक में मौतें इस बार हुई हैं। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, मध्य प्रदेश, यूपी, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, झारखंड, कर्नाटक और महाराष्ट्र के कई हिस्सों में गर्मी ने ऐसा कहर ढाया है कि लू की चपेट में आकर मरने वालों की शायद ठीक से गिनती भी न हो सके। मॉनसून की सुस्त चाल को देखते हुए मुमकिन है कि लू खाकर बीमार होने वालों की तादाद कुछ दिन बीतते-बीतते कुछ हजार का आंकड़ा पार कर ले। गर्मी से दक्षिण और मध्य भारत ही नहीं तप रहा, उत्तर भारत और राजधानी दिल्ली का भी बुरा हाल है। दिल्ली में तो मौसम विभाग गर्मी की भीषणता के पैमाने पर सबसे ऊंची चेतावनी ‘‘रेड कलर’ वॉर्निग जारी कर चुका है क्योंकि इस महानगर के सबसे हरेभरे इलाकों में शुमार चाणक्यपुरी में पारा 47 डिग्री के पार जा चुका है। गर्मी और लू के सामने यों तो आम क्या, और खास क्या। गांव-देहात क्या, और शहर क्या। पर इधर कुछ वर्षो में यह बात नोटिस में ली गई है कि गांव-कस्बों के मुकाबले शहर की गर्मी ज्यादा तीखी होती है। शहरों को ज्यादा गरमाने वाली इस समस्या को वैज्ञानिकों ने अर्बन हीट करार दिया है, जो गांव-देहात से अलग किस्म की गर्मी पैदा कर रही है। लेकिन इस गर्मी और लू की एक विडंबना और है। असल में हर साल सैकड़ों मौतों के बावजूद केंद्र या राज्य सरकार के स्तर से इसका कोई ऐलान नहीं होता कि गर्मी से बचाने के लिए उनकी ओर से क्या उपाय किए जा रहे हैं। आंकड़ा है कि 1992 से 2016 के बीच देश में सिर्फ लू से मरने वालों की संख्या 25 हजार से ज्यादा रही है। इसके बावजूद लू को राष्ट्रीय आपदा घोषित नहीं किया जाता। मौसम विभाग तक लू के गंभीर थपेड़ों के बावजूद आसानी से ‘‘कोड रेड’ चेतावनी के रूप में रेड अलर्ट घोषित नहीं करता। ऐसा करे तो सरकार पर गर्मी से बचाने के आपातकालीन उपाय लागू करने का दबाव बनता है। सरकारों को शायद लू की फिक्र इसलिए नहीं होती कि इससे दुष्प्रभावित होने या मरने वालों में ज्यादातर गरीब ही होते हैं? असल में कहावत बेअसर हो गई है कि सर्दी का मौसम अमीरों और गर्मी का मौसम गरीबों का। गरीब तो दोनों मौसमों में ताबड़तोड़ मरते हैं।यों गर्मी और लू को एक और चीज ने संहारक ताकत दी है। मौसम की मार से बचाने वाला और दान-पुण्य के लिए धर्मार्थ प्याऊ और शर्बत बांटने की शक्ल में मदद करने वाला सामाजिक तंत्र, जो जीवन में आपाधापी बढ़ने और पैसे को लेकर लोगों का नजरिया बदलने के साथ, तकरीबन विलुप्त हो गया है। एक जमाने में जगह-जगह दिखने वाले धर्मार्थ प्याऊ नदारद हैं। अब तो प्यास बुझाने वाले हर तंत्र के पीछे बाजार और उसकी ताकतें हैं, जिन्हें दुआओं नहीं मतलब सिर्फ पैसे से है। जिनके पास पैसा है, वे तो शायद फिर भी गर्मी का मुकाबले जेबें ढीली करके कर लें, लेकिन जिनके लिए रोज की दिहाड़ी ही जीवन-यापन का जरिया हैं, वे ऐसी तंगहाल सूरत में सीना चीरती प्यास आखिर कैसे बुझाएं और कैसे गर्मी-लू के थपेड़ों का सामना करें।
जब हम ‘‘भारत के लोग’ अपना नया स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं, बाबा नागार्जुन की एक प्रसिद्ध कविता का वह सवाल पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो गया है, जिसमें पहले वे पूछतेैहैं : किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है? बाबा अपने सवाल को कौन त्रस्त, कौन पस्त और कौन मस्त तक भी ले जाते हैं, तो लगता है कि उन्हें आज की तारीख में हमारे सामने उपस्थित विकट हालात का पहले से इल्म था।इन हालात की विडम्बना देखिए : एक ओर तो अब हमारे नेता देश को समता, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने का 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित संकल्प को संविधान की पोथियों में भी चैन से नहीं रहने देना चाहते; और दूसरी ओर गैर-बराबरी का भस्मासुर न सिर्फ हमारी बल्कि दुनिया भर की जनतांत्रिक शक्तियों के सिर पर अपना हाथ रखकर उन्हें धमकाने पर आमादा है कि लोकतंत्र की अपनी परिकल्पनाओं को लेकर किसी मुगालते में न रहें। अमीरी का जाया यह असुर उनके सारे के सारे मूल्यों को तहस-नहस करने का मंसूबा लिए उन्मत्त होकर आगे बढ़ा आ रहा है, और आरजू या मिनती कुछ भी सुनने के मूड में नहीं है। अभी जब हम अपना पिछला गणतंत्र दिवस मनाने वाले थे, गरीबी उन्मूलन के लिए काम करने का दावा करने वाले ऑक्सफेम इंटरनेशनल ने एक सर्वेक्षण में बताया गया था कि आर्थिक विषमता की, जो सभी तरह की स्वतंत्रताओं और इंसाफों की साझा दुश्मन है, दुनिया भर में ऐसी पौ-बारह हो गई है कि पिछले साल बढ़ी 762 अरब डॉलर की संपत्ति का 82 फीसदी हिस्सा एक प्रतिशत धनकुबेरों के कब्जे में चला गया है, अधिसंख्य आबादी को जस की तस बदहाल रखते हुए। इस संपत्ति के रूप में धनकुबेरों ने गरीबी को सात बार सारी दुनिया से खत्म कर सकने का सार्मय इस एक साल में ही अपनी मुट्ठी में कर लिया तो क्या आश्र्चय कि गरीबों के लिए ‘‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ का अर्थ एक संचार सेवाप्रदाता कंपनी के झांसे का शिकार होना भर हो गया है। तिस पर अनर्थ यह कि 50 प्रतिशत अत्यंत गरीब आबादी को आर्थिक वृद्धि में कतई कोई हिस्सा नहीं मिल पाया है, जबकि अरबपतियों की संख्या बढ़कर 2,043 हो गई है। इनमें 90 फीसदी पुरु ष हैं यानी यह आर्थिक ही नहीं लैंगिक असमानता का भी मामला है, पितृसत्ता के नये सिरे से मजबूत होने का भी। बताने की जरूरत नहीं कि यह अनर्थ भूमंडलीकरण की वर्चस्ववादी नीतियों से पोषित अर्थ नीति का अदना-सा ‘‘करिश्मा’ है, और यह गरीबों के ही नहीं, बढ़ते धनकुबेरों के प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी हादसे से कम नहीं है क्योंकि इन कुबेरों ने यह बढ़त कठिन परिश्रम और नवाचार से नहीं, बल्कि संरक्षण, एकाधिकार, विरासत और सरकारों के साथ साठगांठ के बूते कर चोरी, श्रमिकों के अधिकारों के हनन और ऑटोमेशन की राह चलकर स्पर्धा का बेहद अनैतिक माहौल बनाकर पाई है। निश्चित ही यह इस अर्थनी ति की निष्फलता का द्योतक है क्योंकि इन कुबेरों द्वारा संपत्ति में ढाल ली गई पूंजी अंतत: अर्थ तंत्र से बाहर होकर पूरी तरह अनुत्पादक हो जानी है, और उसे इस तय से कोई फर्क नहीं पड़ना कि कई अरब गरीब आबादी बेहद खतरनाक परिस्थितियों में भी ज्यादा देर तक काम करने और अधिकारों के बिना गुजर-बसर करने को मजबूर है। अपने देश की बात करें तो यहां 2017 में उत्पन्न कुल संपत्ति का 73 प्रतिशत हिस्सा ही एक प्रतिशत सबसे अमीरों के नाम रहा है। यह विश्वव्यापी औसत 82 से कम है, लेकिन देश की जिस अर्थव्यवस्था के अभी हाल तक ‘‘दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था’ होने का दावा किया जाता रहा है, उसमें अमीरों द्वारा सब-कुछ अपने कब्जे में करते जाने की रफ्तार इतनी तेज हो गई है कि 2016 में 58 प्रतिशत संपत्ति के स्वामी एक प्रतिशत अमीरों के कब्जे में अब 73 प्रतिशत संपत्ति है यानी 2017 में उनकी कुल संपत्ति में 20.7 लाख करोड़ की बढ़ोतरी हुई, जो उसके पिछले साल 4.89 लाख करोड़ रु पये ही थी। चूंकि हमने बेरोकटोक भूमंडलीकरण को सिर-माथे लेकर अनेकानेक विदेशी कंपनियों को देश में कमाया मुनाफा देश से बाहर ले जाने की छूट भी दे रखी है, इसलिए विदेशी अरबपतियों को खरबपति बनाने में भी हमारा कुछ कम योगदान नहीं है। ऐसे में यह समझने के लिए अर्थशास्त्र की बारीकियों में बहुत गहरे पैठने की जरूरत नहीं कि यह अमीरी ज्यादा से ज्यादा लोगों को आर्थिक विकास का फायदा देकर यानी ‘‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे को सदाशयता से जमीन पर उतारकर संभव ही नहीं थी। इसलिए विकास के सारे लाभों को लगातार कुछ ही लोगों तक सीमित रखकर हासिल की गई है। तथाकथित आर्थिक सुधारों के उस मानवीय चेहरे पर अमानवीयतापूर्वक तेजाब डालकर, जिसकी र्चचा 24 जुलाई, 1991 को देश में भूमंडलीकरण की नीतियों का आगाज करते हुए उसके सबसे बड़े पैरोकार तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने की थी। गैर-बराबरी के ये आंकड़े हमारे लिए इस लिहाज से ज्यादा चिंतनीय हैं कि ये हमारे दुनिया का सबसे ‘‘महान’ जनतंत्र होने के दावे की कनपटी पर किसी करारे थप्पड़ से कम नहीं हैं। इसलिए और भी कि जहां कई अन्य छोटे-बड़े देशों ने भूमंडलीकरण के अनर्थो को पहचानना और उनसे निपटने के प्रतिरक्षात्मक उपाय करना शुरू कर दिया है, हमारे सत्ताधीश कतई किसी पुनर्विचार को राजी नहीं हैं। उन्हें इस सवाल से कतई कोई उलझन नहीं होती कि अगर इस जनतंत्र के सात दशकों का सबसे बड़ा हासिल यह एक प्रतिशत की अमीरी ही है, तो बाकी निन्यानवे प्रतिशत के लिए इसके मायने क्या हैं?बड़े-बड़े परिवर्तनों के दावे करके आई नरेन्द्र मोदी सरकार को भी अपने चार सालों में इस अनर्थ नीति को बदलना गंवारा नहीं है। भले ही यह नीति कम से कम इस अर्थ में तो भारत के संविधान की घोर विरोधी है कि यह किसी भी स्तर पर उसके समता के मूल्य की प्रतिष्ठा नहीं करती और उसके संकल्पों के उलट आर्थिक ही नहीं, प्राकृतिक संसाधनों के भी अंधाधुंध संकेंदण्रपर जोर देती है। यह सरकार इस सीधे सवाल का सामना भी नहीं करती कि किसी एक व्यक्ति के अमीर बनाने के लिए कितनी बड़ी जनसंख्या को गरीबी के हवाले करना पड़ता है, और क्यों हमें ‘‘हृदयहीन’ पूंजी को ब्रह्म और ‘‘श्रम के शोषक’ मुनाफे को मोक्ष मानकर ‘‘सहृदय’ मनुष्य को संसाधन की तरह संचालित करने वाली अर्थव्यवस्था के लिए अनंतकाल तक अपनी सारी लोकतांत्रिक-सामाजिक नैतिकताओं, गुणों और मूल्यों की बलि देते रहना चाहिए? एक ओर इन सवालों के जवाब नहीं आ रहे और दूसरी ओर इन्हें पूछने वाले हकलाने लग गए हैं, तो साफ है कि हमारे लोकतंत्र में जनतांत्रिक विचारों की कमी खतरनाक स्तर तक जा पहुंची है। यह कमी ऐसे वक्त में कोढ़ में खाज से कम नहीं है कि गरीबों को और गरीब और अमीरों को और अमीर बनाने वाली आर्थिक नीति के करिश्मे अब किसी एक देश तक सीमित नहीं हैं। वे ़सारे लाभों को अमीर देशों के लिए सुरक्षित कर उन्हें और अमीर जबकि गरीब देशों को और गरीब बना रही हैं। एक प्रतिशत लोगों की अमीरी की यह उड़ान हमें कितनी महंगी पड़ने वाली है, जानना हो तो बताइए कि गरीबों के लिए इस गैरबराबरी से उबरने की कल्पना भी दुष्कर हो जाएगी तो वे क्या करेंगे?
rashtriyasahara