चिराग पासवान की पार्टी पार्टी एलजेपी-आर बिहार विधानसभा की सभी 243 सीटों पर लड़ेगी. हालांकि चिराग एनडीए में बने रहेंगे. यह विरोधाभासी बात चिराग ने आरा में आयोजित पार्टी की नव संकल्प सभा में कही. उसके बाद से बिहार की राजनीति में बवाल मचा हुआ है. किसी की समझ में नहीं आ रहा कि उनके इस बयान के मायने क्या हैं. चिराग की सियासी गतिविधियों पर संदेह इसलिए हो रहा है कि पिछली बार भी उन्होंने एनडीए से पंगा लेकर 134 सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए थे. इससे नीतीश कुमार को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा. बड़ी मुश्किल से इसकी कसक नीतीश भूले हैं. लोकसभा चुनाव में एनडीए में चिराग की वापसी पर नीतीश ने कोई एतराज नहीं जताया. चिराग भी उनसे जब-तब मिलते रहे हैं. संबंधों को पुख्ता बनाने के लिए नीतीश ने चिराग के बहनोई को अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष बना दिया. फिर भी चिराग के तेवर नरम नहीं दिख रहे. इस बार एनडीए के लिए सरकार बनाना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है. पीएम नरेंद्र मोदी की लगातार हो रही बिहार यात्राएं और बजटीय प्रवाधान के अलावा कई योजनाओं के लिए बड़ी राशि की घोषणा वे करते रहे हैं. इससे स्पष्ट है कि हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के बाद बिहार की सत्ता बचाए रखने को एनडीए ने अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है.
नरेंद्र मोदी की सरकार ने जब तीसरी बार मंत्रिमंडल का गठन किया तो उसमें चिराग को भी जगह दी गई. 5 सांसदों के नेता चिराग पासवान को वही मंत्रालय दिया गया, जो उनके पिता रामविलास पासवान संभालते थे. पर, नई सरकार के तीन महीने भी पूरे नहीं हुए थे कि चिराग ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए. उनके अंदाज से तो लगता ही नहीं था कि वे एनडीए सरकार का हिस्सा हैं. सरकार के 3 फैसलों पर उन्होंने उसी सुर में विरोध जताया, जिस सुर में विपक्ष मोदी सरकार पर हमलावर था. इनमें एक मुद्दा था सुप्रीम कोर्ट का अनुसूचित जाति के लिए सब कोटा निर्धारण का फैसला. विपक्ष को तो सरकार के हर फैसले पर आपत्ति होती है, पर एनडीए के मंत्री रहते हुए चिराग ने इसका विरोध किया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ उन्होंने अपील दायर करने की बात कही. इसी तरह सरकारी नौकरियों में लेटरल एंट्री का विरोध चिराग ने किया. वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक मोदी सरकार ने जब लोकसभा में पेश किया तो चिराग ने इसे संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) में भेजने की सलाह दी. केंद्र सरकार के तीनों फैसलों पर चिराग पासवान के स्टैंड से सवाल उठने लगे कि क्या फिर वे बगावती तेवर अपनाने वाले हैं?
वर्ष 2020 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान का बगावती तेवर लोग देख चुके हैं. उन्हें एनडीए में जब मन माफिक सीटें नहीं मिलीं तो उन्होंने अलग चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया. हालांकि एनडीए से अलग चुनाव लड़ने के बावजूद वे खुद को नरेंद्र मोदी का हनुमान बताते रहे. इससे लोगों में यह संदेश गया कि भाजपा की शह पर नीतीश कुमार को कमजोर करने के लिए चिराग ऐसा कर रहे हैं. इस चर्चा को और भी बल तब मिला, जब चिराग ने चुन-चुन कर नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार उतार दिए. इससे नीतीश कुमार को इस रूप में नुकसान हुआ कि विधानसभा में जेडीयू विधायकों की संख्या घट कर 43 पर आ गई. तब जेडीयू ने चुनाव परिणाम की समीक्षा के दौरान पाया कि तकरीन 3 दर्जन सीटों पर चिराग ने नुकसान पहुंचाया था. नीतीश को चिराग की हरकतों से इतनी कोफ्त हुई कि उन्होंने जल्दी ही इसका बदला चुका लिया. लोजपा दो हिस्सों में बंट गई. चिराग के चाचा लोकसभा में 4 विधायकों के समर्थन से मंत्री बन गए. चिराग अपने धड़े के इकलौता सांसद रह गए.

चिराग पासवान की पार्टी बिहार विधानसभा की सभी 243 सीटों पर लड़ेगी.
2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ नीतीश कुमार ने भी चिराग से गिले-शिकवे भुला दिए. भाजपा की कृपा से चिराग पासवान की दोबारा एनडीए में वापसी हुई. कृपा की बात इसलिए कि भाजपा ने उनके चाचा पशुपति कुमार पारस को किनारे कर दिया. उन्हें लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली, जबकि चिराग को 5 सीटें दी गईं. चिराग की पार्टी एलजेपी-आर का स्ट्राइक रेट 100 फीसद रहा. संभव है कि चिराग के मन में इसी का अहंकार हो. वे खुद विधानसभा का चुनाव लडने की घोषणा कर चुके हैं. 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कह रहे हैं. पर, चिराग भूल जाते हैं कि अगर लोजपा-आर को लोकसभा चुानव में शत-प्रतिशत सफलता मिली तो इसके पीछे अकेले उनकी पार्टी का दमखम नहीं था. एनडडीए की साझी ताकत से वे कामयाब हुए. यह भी सच है कि उनके जो 5-6 प्रतिशत वोट थे, वे एनडीए के दूसरे घटकों को ट्रांसफर नहीं हुए.
चिराग पासवान के पिता रामविलाास पासवान ने भी कभी अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं लिया. कभी वाम दलों के साथ उन्होंने गंठजोड़ किया तो कभी कांग्रेस से हाथ मिलाया. आरजेडी के साथ भी वे चुनाव लड़े. आखिरी वक्त में उन्होंने भाजपा के साथ तालमेल किया. अब जरा लोजपा के नतीजों पर गौर करें. 2005 में दो बार बिहार विधानसभा के चुनाव हुए. पहली बार फरवरी 2005 में हुए चुनाव में लोजपा ने 178 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. तब कई दबंगों ने भी लोजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा. 29 उम्मीदवार जीत भी गए. जीत की खास बात यह रही कि लोजपा के 29 विधायकों में 22 सवर्ण थे. रामविलास पासवान ने तब बिहार में मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर दी. नतीजा हुआ कि उनके 18 विधायकों ने साथ छोड़ दिया. तब लोजपा को 12.62 प्रतिशत वोट मिले थे. अक्टूबर 2005 में दोबारा विधानसभा का चुनाव हुआ तो वाम दलों के साथ मिल कर लोजपा ने 203 सीटों पर चुनाव लड़ा. पार्टी को सिर्फ 10 सीटों पर जीत मिली और वोट शेयर घट कर 11.10 फीसद पर आ गया. 2010 में लोजपा ने 75 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे 3 सीटों पर जीत मिली. वोट शेयर पहले के मुकाबले और गिर गया. लोजपा को 6.74 प्रतिश वोट मिले. 2015 के विधानसभा चुनाव में लोजपा एनडीए का हिस्सा थी. उसे बंटवारे में 42 सीटें मिली थीं. कामयाबी सिर्फ 2 सीटों पर मिली. वोट शेयर भी घट कर 4.83 प्रतिशत पर आ गया. 2020 की कहानी सबको पता है. अकेले लोजपा 134 सीटों पर लड़ी और सिर्फ एक उम्मीदवार जीता. वह भी बाद में जेडीयू के साथ चला गया.
चिराग पासवान इतने बेचैन क्यों हैं
अब सवाल उठता है कि लोजपा से टूट कर बनी लोजपा-आर के नेता चिराग पासवान इतने बेचैन क्यों हैं. इसकी मूल वजह लोकसभा चुनाव में उन्हें मिली शत-प्रतिशत सफलता है. उन्हें यह भी लगता है कि पार्टी का आजाद अस्तित्व बनाए बगैर उन्हें राजनीति में मुकाम नहीं मिल सकता है. चूंकि उनके पिता रामविलास पासवान ने कभी मुस्लिम सीएम का मुद्दा उठाया था, इसलिए उन्हें लगता होगा कि मुसलमान जरूर उनका साथ देंगे. उनके पिता ने सवर्णों को तरदीह दी थी. चिराग को लगता होगा कि सवर्णों का साथ भी उन्हें जरूर मिलेगा. पर, 5-6 प्रतिशत वोट के सहारे उन्हें कामयाबी मिल पाएगी, इसमें संदेह दिखता है.