कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की तेलंगाना की तर्ज पर जाति जनगणना की मांग को लेकर बिहार में सत्तारूढ़ जेडीयू ने शुक्रवार को उन पर जोरदार हमला बोला. राजधानी पटना में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव रंजन और मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार ने उन पर ‘जातीय राजनीति’ करने का आरोप लगाया.
राजीव रंजन ने कहा, “बिहार ने राष्ट्रीय स्तर पर जाति जनगणना कराने की दिशा दिखाई है, कांग्रेस ने तो सिर्फ बातें की हैं.” उन्होंने कहा कि राहुल गांधी का गुरुवार को दरभंगा जाना महज राजनीतिक स्टंट था, ताकि वह पिछड़े वर्ग के मसीहा बन सकें.
जदयू नेता ने कहा कि राहुल गांधी ने दरभंगा में जातीय सियासत करने के लिए दौरा किया. उन्होंने जो गलतियां की हैं, उन पर पुलिस कार्रवाई करेगी. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि कांग्रेस केंद्र की सत्ता में रहते हुए जाति जनगणना करवा सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. उल्टे, जब सर्वे कराया गया तो उसका डेटा तक जारी नहीं किया गया.
राजीव रंजन ने 1990 के मंडल कमीशन के समय राजीव गांधी का रुख याद दिलाते हुए कहा कि उस वक्त कांग्रेस ने मंडल आयोग के खिलाफ जहर उगला था. तेलंगाना मॉडल पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि वहां की जाति जनगणना में गंभीर खामियां हैं. उन्होंने कहा, “तेलंगाना में अतिपिछड़ा वर्ग का वर्गीकरण नहीं किया गया है, उनकी संख्या में कमी दिखाई गई है, जबकि सवर्ण आबादी को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है.”
उन्होंने कहा कि मुस्लिम समुदाय की गणना में भी कोई स्पष्ट वर्गीकरण नहीं किया गया है. जदयू के मुख्य प्रवक्ता नीरज कुमार ने भी कांग्रेस पर हमला बोलते हुए कहा कि कांग्रेस तेलंगाना मॉडल का नाम लेकर अपनी असफलताओं से ध्यान भटकाना चाहती है. उल्लेखनीय है कि इस साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी गुरुवार को दरभंगा पहुंचे थे, जहां उन्होंने एनडीए के दलों पर जमकर निशाना साधा था. खासकर उन्होंने केंद्र पर कई गंभीर आरोप लगाए थे.
जातीय जनगणना पर कांग्रेस और सपा की आक्रामक राजनीति
जातीय जनगणना के मुद्दे पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी सबसे आक्रामक अंदाज में उतर चुकी हैं। राहुल गांधी का नारा ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’, अब एक आंदोलन का रूप लेता जा रहा है। कांग्रेस बिहार में खुद को पिछड़ों, अति-पिछड़ों और दलितों की नई आवाज के तौर पर पेश कर रही है। एक समय ऐसा भी था कि ये राजनीतिक स्पेस लालू यादव के नाम होया तकरता था।
वहीं समाजवादी पार्टी, भले ही बिहार में अभी सीमित आधार रखती हो, लेकिन जातीय जनगणना जैसे भावनात्मक मुद्दे पर अखिलेश यादव की सक्रियता किसी बड़े खिलाड़ी से कम नहीं लगती। यूपी में जातीय समीकरण के सफल प्रयोग के बाद समाजवादी पार्टी बिहार में भी वही मॉडल लागू करने की तैयारी में है।
एक आंख वोटबैंक पर, दूसरी नैरेटिव पर
अब बात करते हैं सबसे बड़ी ताकत यानी भारतीय जनता पार्टी की। बीजेपी का रवैया जातीय जनगणना को लेकर सतर्क है। पार्टी OBC नेताओं को आगे कर रही है, ताकि पिछड़े वर्ग का भरोसा बना रहे, लेकिन साथ ही वह हिंदू एकता के नैरेटिव को भी छोड़ना नहीं चाहती। यही वजह है कि बीजेपी न तो खुलकर समर्थन कर रही है, न ही साफ-साफ विरोध कर पा रही है। वह जानती है कि अगर आंकड़े सामने आ गए, तो उसके ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के ढांचे में दरार आ सकती है।
2025 का बिहार चुनाव है अहम
अगर बिहार विधानसभा चुनाव से पहले जतीय जनगणना के आंकड़े सामने आ जाते हैं, तो यह केवल डेटा नहीं, बल्कि राजनीतिक भविष्य का ब्लूप्रिंट होगा। कौन सी जाति कितनी संख्या में है, इसका खुलासा राजनीतिक दलों के टिकट वितरण, घोषणापत्र, और गठबंधनों को पूरी तरह से बदल सकता है। कांग्रेस और सपा जहां इसे सामाजिक न्याय की नई सुबह मान रही हैं, वहीं बीजेपी इसे सामाजिक विघटन का खतरा मानकर आगे बढ़ रही है।
सवाल ये नहीं कि जीतेगा कौन, सवाल ये कि इसे कौन अच्छे से संभाल पाएगा?
बिहार में जातीय जनगणना अब सिर्फ एक चुनावी मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना की पुनर्परिभाषा बन चुकी है। यह चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं लाएगा, बल्कि यह भी तय करेगा कि आने वाले दशक में बिहार का सामाजिक-राजनीतिक चेहरा कैसा होगा। इस बार जीत उसकी हो सकती है, जो जातीय आंकड़ों की इस विस्फोटक राजनीति को समझदारी, दूरदृष्टि और संतुलन के साथ संभाल पाए।