भारत की “पड़ोस प्रथम” नीति लंबे समय से उसकी विदेश नीति का आधार रही है. इसका मकसद अपने पड़ोसी देशों के साथ मजबूत और सहयोगी रिश्ते बनाना है. लेकिन आज भारत के सामने अपने पड़ोस में अस्थिरता और चीन की बढ़ती दखलंदाजी जैसी बड़ी चुनौतियां हैं. दक्षिण एशिया में भारत का पड़ोस सिर्फ भौगोलिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से भी उसकी पहचान का हिस्सा है. फिर भी, सीमा विवाद, खासकर चीन और पाकिस्तान के साथ, पड़ोसी देशों में राजनीतिक उथल-पुथल और चीन की रणनीतिक चालों ने भारत की इस नीति को कठिन बना दिया है.
भूटान के साथ भारत के रिश्ते बहुत अच्छे हैं. दोनों देश व्यापार और विकास में गहरे सहयोगी हैं. लेकिन वहां भी चीन अपनी क्षेत्रीय दावेदारी बढ़ा रहा है, खासकर डोकलाम पठार को लेकर, जो भारत के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है. श्रीलंका के साथ भी भारत के संबंध मजबूत हो रहे हैं. वहां आर्थिक और रक्षा सहयोग पर काम चल रहा है. श्रीलंका ने भारत को भरोसा दिया है कि उसकी जमीन भारत के खिलाफ इस्तेमाल नहीं होगी. लेकिन नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव और म्यांमार जैसे देशों में हालात इतने आसान नहीं हैं.
नेपाल में भारत के साथ ऐतिहासिक संबंध रहे हैं. लेकिन अग्निवीर योजना और अतीत की कुछ घटनाओं ने इन रिश्तों में खटास पैदा की है. नेपाल अब चीन की ओर भी देख रहा है, जिससे भारत की चिंता बढ़ी है. बांग्लादेश में आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता के कारण वहां की जमीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होने का खतरा है. हालांकि, उसने भारत को अपने बंदरगाहों का उपयोग करने की अनुमति दी है. मालदीव में चीन की आर्थिक पकड़ इतनी मजबूत हो गई है कि वहां सैन्य अड्डे और निगरानी उपकरण बनने की आशंका है.
म्यांमार में चल रहा आंतरिक संघर्ष और चीन का वहां की सैन्य सरकार को समर्थन भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए खतरा पैदा कर सकता है. पाकिस्तान के साथ भारत का रिश्ता हमेशा से तनावपूर्ण रहा है. सीमा विवाद और आतंकवाद ने अविश्वास को और गहरा किया है. चीन का बढ़ता प्रभाव इन सभी देशों में भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. वह अपनी बेल्ट एंड रोड पहल और आर्थिक मदद के जरिए इन देशों को अपने पक्ष में कर रहा है. इससे भारत के प्रभाव को कम करने की कोशिश हो रही है.
भारत का पड़ोस उसके लिए सिर्फ एक भूगोल नहीं, बल्कि उसकी सुरक्षा, स्थिरता और विकास का आधार है. लेकिन पड़ोसी देशों की आर्थिक कमजोरी और राजनीतिक अस्थिरता ने चीन को मौका दिया है कि वह इन देशों में अपनी पैठ बनाए. श्रीलंका में आर्थिक संकट ने भारत के निर्यात को प्रभावित किया है. मालदीव जैसे छोटे देशों में चीन की मदद ने उन्हें भारत से दूर करने की कोशिश की है. भारत ने अपनी नीति के तहत हमेशा पड़ोसियों को बिना किसी शर्त के मदद दी है. लेकिन पड़ोसियों को लगता है कि भारत उनके साथ बराबरी का व्यवहार नहीं करता. इससे अविश्वास की भावना बढ़ी है.
भारत ने 1947 से लेकर अब तक अपनी पड़ोस नीति को कई बार बदला है. शुरू में उसका ध्यान शांति और सीमाओं को सुरक्षित करने पर था. शीत युद्ध के दौरान गुटनिरपेक्षता अपनाकर भारत ने विदेशी ताकतों से अपने पड़ोस को बचाने की कोशिश की. 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत ने पड़ोसियों के विकास में हिस्सेदारी शुरू की. 2008 में “पड़ोस प्रथम” नीति ने इसे और औपचारिक रूप दिया. इसमें आर्थिक सहयोग, संपर्क और सुरक्षा पर जोर दिया गया.
भारत ने बिम्सटेक और बीबीआईएन जैसे मंचों के जरिए क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ाने की कोशिश की है. वह बिम्सटेक में सुरक्षा का नेतृत्व करता है. श्रीलंका जैसे देशों के साथ समुद्री सुरक्षा में सहयोग करता है. भारत की सागर नीति हिंद महासागर में उसके हितों को बढ़ावा देती है. लेकिन इन सबके बावजूद, पड़ोस में स्थिरता बनाए रखना आसान नहीं है. भारत का आर्थिक प्रभाव दक्षिण एशिया में मजबूत है. लेकिन क्षेत्रीय व्यापार बहुत कम है.
पड़ोसी देशों में भारत की विकास परियोजनाएं चल रही हैं. वह अपनी सांस्कृतिक विरासत का इस्तेमाल करके लोगों के बीच संपर्क बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. फिर भी, चीन की आर्थिक और सैन्य ताकत के सामने भारत को और मेहनत करनी पड़ रही है. पड़ोसी देशों में अस्थिरता भारत के लिए मुश्किलें खड़ी करती है. म्यांमार में सैन्य सरकार का शासन, बांग्लादेश में राजनीतिक उथल-पुथल और नेपाल में बदलते हालात भारत की योजनाओं को प्रभावित करते हैं. सीमा पार आतंकवाद, खासकर पाकिस्तान से, भारत की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है. डोकलाम जैसे रणनीतिक इलाकों में चीन की सैन्य गतिविधियां भी भारत को सतर्क रखती हैं.
भारत को इन चुनौतियों से निपटने के लिए नई रणनीति अपनानी होगी. उसे अपने पड़ोस में संपर्क बढ़ाने के लिए सड़क, रेल और बंदरगाह जैसी परियोजनाओं को तेजी से पूरा करना होगा. बीबीआईएन और कलादान जैसी परियोजनाएं समय पर शुरू होनी चाहिए. भारत को कूटनीति में और सक्रिय होना होगा. न सिर्फ सरकारों के साथ, बल्कि लोगों और संगठनों के साथ भी. सुरक्षा सहयोग को और मजबूत करना होगा. इसमें खुफिया जानकारी साझा करना और आतंकवाद के खिलाफ मिलकर काम करना शामिल है.
भारत को अपने पड़ोसियों को आर्थिक मदद, व्यापार के मौके और आसान ऋण देकर उनके भरोसे को जीतना होगा. डिजिटल और वित्तीय संपर्क बढ़ाने से भी सहयोग मजबूत होगा. सांस्कृतिक आदान-प्रदान, शिक्षा और पर्यटन को बढ़ावा देकर भारत अपने पड़ोसियों के साथ गहरे रिश्ते बना सकता है. पर्यावरण और आपदा प्रबंधन में सहयोग भी जरूरी है. जलवायु परिवर्तन सभी देशों के लिए साझा चुनौती है. भारत को अपने सीमावर्ती राज्यों पर ज्यादा ध्यान देना होगा. ताकि वहां से सहयोग और व्यापार बढ़े.
निवेश का माहौल सुधारकर भारत अपने पड़ोसियों को और करीब ला सकता है. संकट के समय के लिए त्वरित प्रतिक्रिया टीमें और प्रबंधन केंद्र बनाना भी जरूरी है. भारत की पड़ोस नीति को अब “पड़ोस-स्मार्ट” नीति में बदलने की जरूरत है. इसका मतलब है कि भारत को बदलते हालात को समझकर तेजी से फैसले लेने होंगे. उसे अपनी ताकत का इस्तेमाल करना होगा. साथ ही पड़ोसियों के साथ भरोसा भी बनाना होगा.
चीन की रणनीति का जवाब देने के लिए भारत को अपनी कूटनीति, आर्थिक मदद और सांस्कृतिक प्रभाव को एक साथ इस्तेमाल करना होगा. पड़ोस में स्थिरता और सहयोग भारत के लिए सिर्फ एक नीति का हिस्सा नहीं है. यह उसकी क्षेत्रीय और वैश्विक महत्वाकांक्षाओं का आधार है. अगर भारत अपने पड़ोस को मजबूत और भरोसेमंद बनाना चाहता है, तो उसे इन चुनौतियों का डटकर सामना करना होगा. पड़ोसी देशों में अस्थिरता और चीन की दखलंदाजी भारत के लिए खतरे तो हैं. लेकिन सही रणनीति और सक्रियता से भारत इनका जवाब दे सकता है. उसे अपने पड़ोसियों को यह भरोसा दिलाना होगा कि वह उनकी जरूरतों को समझता है और उनके साथ बराबरी का रिश्ता चाहता है. तभी भारत अपने पड़ोस में शांति, स्थिरता और समृद्धि ला सकता है.