भारत में भाषा को लेकर हमेशा से बहस होती रही है और अब फिर से ये मुद्दा गर्म हो गया है. तमिलनाडु और केंद्र सरकार के बीच समग्र शिक्षा अभियान के फंड को लेकर तनाव बढ़ गया है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने साफ कहा है कि उनका राज्य हिंदी को थोपे जाने के खिलाफ है. वो दो भाषाओं की नीति को मानते हैं और उसी पर चलना चाहते हैं. उनका कहना है कि तमिलनाडु में तमिल और अंग्रेजी ही काफी है. दूसरी तरफ, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इन आरोपों को खारिज किया है. उनका कहना है कि हिंदी को थोपने की कोई योजना नहीं है. उन्होंने फरवरी में कहा था कि तमिल हमारी सभ्यता की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है. लेकिन अगर तमिलनाडु के बच्चे तमिल, अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषाएं सीखें तो इसमें क्या बुराई है? उनका मानना है कि कुछ लोग इस मुद्दे को राजनीति से जोड़ रहे हैं और गलत तरीके से पेश कर रहे हैं.
इस बहस का असली सवाल वही पुराना है जो सालों से चल रहा है. क्या तीन भाषाओं की नीति से हिंदी को गैर-हिंदी राज्यों पर थोपा जा रहा है? खासकर दक्षिण भारत के राज्य इस बात से नाराज रहते हैं. दूसरा बड़ा सवाल ये है कि अगर तीन भाषाओं की नीति को सही भी मान लिया जाए, तो क्या विकास के आंकड़े ये बताते हैं कि हिंदी की जगह अंग्रेजी को जोड़ने वाली भाषा बनाना चाहिए? आसान शब्दों में कहें तो क्या हिंदी बोलने वालों को अंग्रेजी सीखने के लिए कहा जाए ताकि उनके लिए मौके बढ़ें? या फिर गैर-हिंदी बोलने वालों को हिंदी सीखने के लिए मजबूर किया जाए, ये कहकर कि ये उनके फायदे के लिए है? इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए डेटा बहुत मदद करता है. ये हमें सच्चाई को समझने का रास्ता दिखाता है.
1991 और 2011 की भाषा जनगणना के आंकड़ों से एक साफ बात सामने आती है. गैर-हिंदी बोलने वाले लोग नई भाषाएं सीखने के लिए ज्यादा तैयार रहते हैं. लेकिन हिंदी बोलने वाले लोग ऐसा कम करते हैं. उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में 1991 में 84.5% लोग जो तमिल को अपनी पहली भाषा मानते थे, वो सिर्फ तमिल ही बोलते थे. मतलब वो एक ही भाषा जानते थे. लेकिन 2011 तक ये संख्या घटकर 78% हो गई. यानी धीरे-धीरे लोग दूसरी भाषाएं भी सीख रहे हैं. इसी तरह ओडिशा में ओडिया बोलने वालों में एक भाषा जानने वालों की संख्या 86% से घटकर 74.5% हो गई. महाराष्ट्र में मराठी बोलने वाले, पंजाब में पंजाबी बोलने वाले, गुजरात में गुजराती बोलने वाले और आंध्र प्रदेश में तेलुगु बोलने वाले लोग भी धीरे-धीरे कई भाषाएं सीख रहे हैं. ये ट्रेंड दिखाता है कि गैर-हिंदी राज्य बहुभाषी बनने की तरफ बढ़ रहे हैं.
लेकिन हिंदी बोलने वाले राज्यों में ऐसा नहीं है. वहां लोग ज्यादातर एक ही भाषा पर अटके हुए हैं. जैसे, 1991 में बिहार में 90.2% हिंदी बोलने वाले सिर्फ हिंदी ही जानते थे. 2011 में जब बिहार अलग हुआ, तो ये संख्या बढ़कर 95.2% हो गई. राजस्थान में भी हिंदी बोलने वालों में एक भाषा जानने वालों की संख्या 93% से बढ़कर 94.3% हुई. उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में भी यही देखने को मिलता है. मतलब हिंदी वाले राज्यों में लोग दूसरी भाषाएं सीखने में कम रुचि दिखाते हैं. ये अंतर बहुत बड़ा है और ये सवाल उठाता है कि क्या हिंदी बोलने वालों को बहुभाषी बनने की जरूरत नहीं है?
अब दूसरी और तीसरी भाषा के चुनाव को देखते हैं. गैर-हिंदी राज्यों में अंग्रेजी सीखने वालों की संख्या बढ़ रही है. तमिलनाडु में 1991 में 13.5% तमिल बोलने वाले अंग्रेजी जानते थे. 2011 में ये बढ़कर 18.5% हो गया. ओडिशा और पंजाब में भी अंग्रेजी सीखने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी. लेकिन हिंदी वाले राज्यों में ऐसा नहीं हुआ. हरियाणा में 1991 में 17.5% हिंदी बोलने वाले अंग्रेजी जानते थे, जो 2011 में घटकर 14.6% रह गया. हिंदी बेल्ट में अंग्रेजी सीखने का रुझान या तो कम हुआ या फिर रुक गया. दूसरी तरफ, हिंदी सीखने की बात करें तो तमिलनाडु में 1991 में सिर्फ 0.5% तमिल बोलने वाले हिंदी जानते थे, जो 2011 में 1.3% हुआ. कर्नाटक में कन्नड़ बोलने वालों में हिंदी जानने वालों की संख्या 8.5% पर स्थिर रही. लेकिन गुजरात और महाराष्ट्र में हिंदी सीखने वालों की संख्या बढ़ी. गुजरात में 21.6% से 39% और महाराष्ट्र में 35.7% से 43.5% लोग हिंदी सीखने लगे.
सवाल ये है कि क्या दक्षिण भारत में हिंदी के खिलाफ आवाज उठने की वजह यही है, और क्या इसीलिए इन राज्यों के लोग अंग्रेजी को ज्यादा तरजीह देते हैं. गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्य हिंदी को अपनाने में आगे हैं, शायद इसलिए कि वो हिंदी बेल्ट के करीब हैं और वहां व्यापार के लिए हिंदी काम आती है. लेकिन तमिलनाडु जैसे राज्य हिंदी को लेकर सख्त हैं. ये अंतर साफ करता है कि हर राज्य की अपनी जरूरतें और सोच अलग है. अब सवाल ये है कि कौन सी भाषा लोगों को बेहतर जिंदगी और मौके दे सकती है? इसके लिए मानव विकास सूचकांक (HDI) के आंकड़े देखने पड़ते हैं. इनसे पता चलता है कि जिन राज्यों में अंग्रेजी बोलने वाले ज्यादा हैं, वहां HDI ज्यादा है. यानी वहाँ जीवन स्तर बेहतर है. लेकिन हिंदी वाले राज्यों में HDI कम है. मतलब अंग्रेजी जानने से लोगों की जिंदगी बेहतर होने की संभावना बढ़ती है.
माइग्रेशन के आंकड़े भी यही कहते हैं. हिंदी बोलने वाले राज्यों से बहुत सारे लोग गैर-हिंदी राज्यों में जा रहे हैं. वहां उन्हें नौकरी और बेहतर जिंदगी के मौके मिलते हैं. Economic Advisory Council और Multiple Indicator Survey की रिपोर्ट बताती है कि हिंदी बेल्ट से लोग दक्षिण और पश्चिमी राज्यों की तरफ जा रहे हैं. ये राज्य अंग्रेजी में आगे हैं और विकास में भी. लेकिन यहां ये भी देखा गया है कि जब एक तमिल भाषी किसी कन्नड़ भाषी से बात करता है और अगर दोनों अंग्रेजी नहीं जानते हैं तो वो आपस में हिन्दी में ही बात करने की कोशिश करते हैं. आंकड़े साफ कहते हैं कि इन राज्यों में भी अंग्रेजी न जानने वालों की खासी तादात है और जरूरत पड़ने पर हिंदी का ही इस्तेमाल करते हैं.
हिंदी बने राष्ट्रीय भाषा
भारत में हिंदी को पूरे देश की राष्ट्रीय भाषा बनाने का सवाल बहुत पुराना और भावनात्मक है. कुछ लोग मानते हैं कि हिंदी देश को एक सूत्र में बांध सकती है, तो कुछ इसके खिलाफ हैं. इस सवाल का जवाब आसान नहीं है, लेकिन इसे समझने के लिए कुछ तर्कों को देखा जा सकता है.
भारत में हिंदी को पूरे देश की राष्ट्रीय भाषा बनाने का विचार लंबे समय से चर्चा में है. हिंदी भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. 2011 की जनगणना के अनुसार, लगभग 43.6% लोग हिंदी को अपनी मातृभाषा मानते हैं. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में हिंदी मुख्य भाषा है. इन राज्यों की आबादी बहुत बड़ी है, इसलिए हिंदी बोलने वालों की संख्या करोड़ों में है. इतने लोग एक भाषा बोलते हैं, तो ये देश के बड़े हिस्से को जोड़ने में मदद कर सकती है. आंकड़े बताते हैं कि हिंदी को समझने वालों की संख्या और भी ज्यादा है, क्योंकि कई लोग इसे दूसरी भाषा के रूप में जानते हैं.
हिंदी का साहित्य और इतिहास बहुत पुराना है. ये संस्कृत से निकली भाषा है और इसमें अवधी, भोजपुरी, ब्रज जैसी कई बोलियाँ शामिल हैं. हिंदी में लिखा साहित्य बहुत समृद्ध है. तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखा, जो आज भी पढ़ा जाता है. कबीर के दोहे और प्रेमचंद की कहानियाँ हिंदी की ताकत दिखाते हैं. ये साहित्य देश की संस्कृति का हिस्सा है. हिंदी फिल्में और टीवी शो भी इसे लोकप्रिय बनाते हैं. 2023 तक बॉलीवुड की फिल्मों ने पूरे भारत में हिंदी को फैलाया है. तमिलनाडु और असम जैसे गैर-हिंदी राज्यों में भी लोग फिल्मों और गानों की वजह से हिंदी समझते हैं.
सरकार हिंदी को पहले से बढ़ावा देती है. संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को संघ की राजभाषा माना गया है. सरकारी दफ्तरों में हिंदी और अंग्रेजी का इस्तेमाल होता है. 14 सितंबर 1949 को हिंदी को ये दर्जा दिया गया था. हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है. स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जाती है, खासकर हिंदी बेल्ट में. 2020 की नई शिक्षा नीति में भी हिंदी को बढ़ावा देने की बात है. अगर इसे राष्ट्रीय भाषा बनाया जाए, तो ये सरकारी काम और शिक्षा को एकसमान बना सकती है. इससे गैर-हिंदी राज्यों में भी हिंदी फैल सकती है.
हिंदी की लिपि देवनागरी है, जो आसान और साफ है. ये लिपि मराठी, नेपाली, संस्कृत और कई दूसरी भाषाओं में भी इस्तेमाल होती है. 2011 के आंकड़ों से पता चलता है कि देवनागरी लिपि को समझने वाले लोग बढ़ रहे हैं. हिंदी सीखना आसान है क्योंकि इसके शब्द और व्याकरण कई भारतीय भाषाओं से मिलते-जुलते हैं. जैसे, गुजराती और मराठी बोलने वालों को हिंदी समझने में कम दिक्कत होती है. ये एक ऐसी भाषा है जो अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों को जोड़ सकती है.
हिंदी भारत के बाज़ार और रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत काम आती है. छोटे शहरों और गांवों में लोग हिंदी बोलते और समझते हैं. 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 70% से ज्यादा ग्रामीण इलाकों में हिंदी मुख्य संवाद की भाषा है. व्यापार में भी हिंदी का बड़ा रोल है. दिल्ली, मुंबई जैसे बाज़ारों में हिंदी आम है. अगर कोई नई योजना या प्रोडक्ट गांव तक पहुँचाना हो, तो हिंदी ज्यादा असरदार है. इससे देश का हर हिस्सा आर्थिक रूप से जुड़ सकता है.
हालांकि, हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने में चुनौतियां भी हैं. 2011 के आंकड़ों से पता चलता है कि गैर-हिंदी राज्यों में लोग अपनी मातृभाषा को ज्यादा तरजीह देते हैं. तमिलनाडु में तमिल बोलने वाले 78% लोग सिर्फ एक भाषा जानते हैं. वो हिंदी को थोपा हुआ मानते हैं..तमिल, तेलुगु, कन्नड़ जैसी भाषाएँ भी बहुत पुरानी हैं और इनका साहित्य समृद्ध है. 2023 में तमिलनाडु ने तीन भाषा नीति का विरोध किया था. वहाँ के लोग कहते हैं कि तमिल और अंग्रेजी उनके लिए काफी हैं.
विकास के लिहाज से भी बहस है. अंग्रेजी से नौकरी और दुनिया से जुड़ने के मौके मिलते हैं. 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, अंग्रेजी जानने वाले राज्यों का HDI (मानव विकास सूचकांक) ज्यादा है.. लेकिन हिंदी भी कम नहीं है. हिंदी बेल्ट में लोग अंग्रेजी कम जानते हैं, फिर भी वहां से माइग्रेशन बढ़ रहा है. इसका मतलब हिंदी भी लोगों को जोड़ती है. अंग्रेजी के साथ हिंदी को बढ़ावा देना एक रास्ता हो सकता है.
हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का मतलब ये नहीं कि दूसरी भाषाएँ खत्म हो जाएं. भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं हैं और हर भाषा की अपनी जगह है. 2011 के डेटा से पता चलता है कि गैर-हिंदी राज्यों में हिंदी जानने वालों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है. जैसे, गुजरात में 39% गुजराती बोलने वाले हिंदी जानते हैं. महाराष्ट्र में ये संख्या 43.5% है. इससे लगता है कि हिंदी को अपनाने की संभावना है.
निष्कर्ष में, हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के कई कारण हैं. लेकिन इसे लागू करने के लिए गैर-हिंदी राज्यों की सहमति जरूरी है. 2025 तक भारत में भाषा नीति पर बहस जारी है. हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने से पहले सबकी भावनाओं को समझना होगा. अगर सही तरीके से कदम उठाए जाएं, तो हिंदी देश को जोड़ने में बड़ी भूमिका निभा सकती है.
एक सच्चाई ये भी है
अब दुनिया की बात करें तो यूनेस्को की एक रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के 40% लोग ऐसी भाषा में पढ़ाई नहीं कर पाते जो वो समझते हैं. गरीब और मध्यम आय वाले देशों में ये संख्या 90% तक है. 25 करोड़ से ज्यादा बच्चे इससे प्रभावित हैं. यूनेस्को का कहना है कि देशों को कई भाषाओं में पढ़ाई की नीति अपनानी चाहिए. बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाना जरूरी है ताकि वो आसानी से समझ सकें. लेकिन कई देशों में ऐसा करना मुश्किल है. वहाँ टीचरों को दूसरी भाषाएँ सिखाने की ट्रेनिंग नहीं है. पढ़ाई की किताबें भी मातृभाषा में नहीं मिलतीं. कुछ जगहों पर लोग भी इसका विरोध करते हैं. यूनेस्को की रिपोर्ट International Mother Language Day के 25 साल पूरे होने पर आई है. ये दिन मातृभाषा को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है.
यूनेस्को कहता है कि माइग्रेशन बढ़ने से स्कूलों में अलग-अलग भाषा के बच्चे आ रहे हैं. 31 मिलियन से ज्यादा बच्चे जो अपने देश छोड़कर आए हैं, उन्हें भाषा की वजह से पढ़ाई में दिक्कत हो रही है. रिपोर्ट कहती है कि हर देश को अपनी जरूरत के हिसाब से नीति बनानी चाहिए. कुछ देशों में औपनिवेशिक काल से चली आ रही भाषाएं आज भी पढ़ाई में इस्तेमाल होती हैं, जिससे नुकसान हुआ है. कई जगहों पर बहुत सारी भाषाएं होने से भी चुनौती बढ़ती है.
यूनेस्को का सुझाव है कि टीचरों को मातृभाषा और दूसरी भाषाओं में ट्रेनिंग दी जाए. स्कूलों में बच्चों की भाषा के हिसाब से टीचर लगाए जाएं. छोटे बच्चों को उनकी अपनी भाषा में पढ़ाने का तरीका सिखाया जाए. स्कूलों के बाहर भी सपोर्ट सिस्टम बनाना होगा. माता-पिता और समाज को भी जोड़ना होगा ताकि भाषा का झगड़ा खत्म हो. हर देश को अपनी परेशानियों को समझकर रास्ता निकालना होगा. भारत जैसे देश में जहां इतनी भाषाएं हैं, ये और भी जरूरी है. अंग्रेजी और मातृभाषा को साथ लेकर चलना एक अच्छा तरीका हो सकता है. इससे न सिर्फ बच्चे बेहतर पढ़ेंगे, बल्कि देश भी आगे बढ़ेगा.