बिहार का शोक कोसी नदी जब शांत रहती है, तो फसल लहलहाते हैं. तटबंध के अंदर रहने वाली महिलाएं लालपान की बेगम बन जाती हैं. लेकिन, जब यही कोसी अपना कोष खोलती है, तो सिर्फ और सिर्फ तबाही मचाती है. जिंदगियां डूबती हैं, घर डूबते हैं, सामान डूबते हैं. डूब जाते हैं अरमान भी. लालपान की बेगम की साड़ी की खूंट (गेठरी) में रुपए नहीं, बचते हैं तो सिर्फ अथाह दर्द. जिसकी कहानी पुश्त दर पुश्त बच्चे अपनी दादी-नानी से सुनते रहते हैं.
तो दूसरी ओर, जब पानी निकल जाता है तो खेतों में जमा बालू देख किसानों के चेहरे ऐसे मुरझाते हैं, जैसे किसी ने छुईमुई की पत्तियों को छू दिया हो. हो भी क्यों नहीं. दिखने में प्राकृतिक आपदा लगने वाली बाढ़, सरकारों के प्रति नाराजगी में बदल जाती है. सवाल खड़ा होता है कि आखिर इस कोसी बराज और बांध से किस-किस को फायदा पहुंचा, पहुंच रहा है और पहुंचते रहेगा.
बांध टूटता है तो क्या होता है?
सहरसा के हेमपुर गांव की रहने वाली लालदाय देवी बताती हैं कि 1984 में जब हमारे ससुराल में बांध टूटा था, तो उस समय वह अपने ननिहाल बाराही गांव में सात दिन के नवजात बेटे को लेकर थी. अहले सुबह ही पता चल गया कि उनके ससुराल में बांध टूट गया है. ससुराल का सारा सामान बह गया था. एक मवेशी को उनके पति ने किसी तरह बहने से बचाया था. पूरा गांव विस्थापित हो गया. महिलाएं और बच्चों को लोगों ने रिश्तेदारों के घर किसी तरह से पहुंचा दिया. पानी के साथ आए बालू के ढेर के नीचे बचे-खुचे सामान को लोग निकालते और आंसू बहाते थे. बाढ़ थमने के बाद गांव के लोगों ने खेतों में दोबारा घर बनाया. इस तबाही में किसी का कुछ नहीं बचा था.
बाढ़ से तबाह और बालू में धंसे कुछेक पक्का घर की निशानी अब भी तबाही के मंजर की गवाही दे रही है. आज जब बिहार में जमीन का सर्वे चल रहा है, तो हजारों लोग ऐसे हैं, जिनके पास जमीन के कागजात नहीं हैं. साल दर साल आने वाले बाढ़ में सब के सब बहकर कहां चले गए, यह कोई नहीं जानता है. खेती तो कर सकते हैं, पर जमीन को बेच नहीं सकते हैं. पिछली बार 18 अगस्त 2008 को भारत की सीमा से 8 किमी नेपाल के कुसहा में जब तटबंध टूटा था तो सुपौल, अररिया, पूर्णिया, मधेपुरा और सहरसा जिलों के 50 लाख लोग प्रभावित हुए थे.
बिहार सरकार, विश्व बैंक, जीएफडीआरआर की रिपोर्ट की मानें तो अकेले बिहार में 412 पंचायतों के 993 गांव इसकी चपेट में आए. इस त्रासदी में 2,36,632 घर ध्वस्त हुए. 1100 पुल और क्लवर्ट टूटे. 1800 किमी रोड क्षतिग्रस्त हुए. 38000 एकड़ धान, 15500 एकड़ मक्के और 6950 एकड़ की अन्य फसलें बर्बाद हुई. 10,000 दुधारू पशु, 3000 अन्य पशु व 2500 छोटे जानवरों की मौत हुई. 362 लोगों की जान गई और 3500 लोग लापता दर्ज किए गए. यह तो सरकारी आंकड़े हैं, असल क्षति इन आकड़ों से कई गुना ज्यादा था.
बाढ़ न आए तो कोसी के किसान रहेंगे धनवान
कोसी क्षेत्र के किसान बड़े मेहनती होते हैं. मौसम आधारित खेती करते हैं. नदी और पंपसेट ही सिंचाई का साधन होता है. पर, हर साल आने वाला बाढ़ कमर नहीं, उन्हें ही तोड़ देता है. पानी सूखने के बाद जमा दिखने वाले रेत खेतों की फसल उपजाने की तोकत को तोड़ कर रख देती है. बाढ़ आया तो पानी से, नहीं आया तो तपती सफेद रेत से तबाही. किसान आखिर करें तो क्या करें? पढ़ाई बीच में ही छोड़ बच्चों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ जाता है. अच्छे घरों में शादी तक नहीं हो पाती है. जिंदगी बस कटते जाती है. पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के अंदर जन्म से लेकर मरने तक कैद जिंदगी भगवान से बस यही प्रार्थना करती हैं कि ‘अगले जनम मोहे इस इलाके में न जन्म दिहो.’
9 साल में बनकर तैयार हुआ था बराज और तटबंध
कोसी नदी पहले 200 किमी में धारा परिवर्तित करते हुए घूम-घूम कर बहती रहती थी. आजादी के बाद 1955 में सरकार ने इस नदी को तटबंधों में बांधने की शुरुआत की. नेपाल के भीम नगर में बराज, दोनों किनारे तटबंध बने और नहर निकाली गई.
पूरब में बीरपुर से कोपरिया तक लगभग 125 किमी और पश्चिम में भारदह से घोषेपुर तक लगभग 126 किमी का तटबंध 1963-64 में बनकर तैयार हो गया. इन तटबंधों के बीच की चौड़ाई कहीं 20 किमी तो कहीं-कहीं कुछ कम हो गई. तटबंध बनने के साथ ही इसके अंदर बसे लोगों की समस्याएं शुरू हुई. इन दोनों तटबंधों के बीच रहने वाले लोगों को हर साल बाढ़, कटाव और विस्थापन झेलने की नियति बन गयी.
यूं समझिए बाढ़ का गणित
कोसी क्षेत्र में काम करने वाले महेंद्र यादव कहते हैं कि कोसी के बाढ़ को आप चार तरह से समझ सकते हैं. पहला, तटबंध के बीच के इलाके में हर साल पूरे मानसून सीजन में भयानक बाढ़ आना तय है. दूसरा, तटबंध के बाहर सटे इलाकों में वर्षा का पानी और अन्य जल श्रोतों का पानी तटबंध के भीतर की जमीन ऊंची हो जाने से आने वाले सीपेज के पानी से जल जमाव रहता है. तीसरे तरह की बाढ़ तटबंध के बाहर सुरक्षित इलाकों में वर्षा व अन्य नदियों के उफान से आती है और चौथी बात कोसी तटबंध के टूटने के कारण सुरक्षित इलाकों में तबाही बनकर कहर बरपाती है. 2008 की कुसहा त्रासदी वैसी ही बाढ़ थी, जो कोसी तटबंध के आठवीं बार टूटने के कारण आई थी.
गाद और सिल्ट से ऊंचा होते जा रहा है नदी का तल
महेंद्र कहते हैं कि प्रत्येक साल नदी के साथ गाद और सिल्ट से नदी का तल ऊंचा होते जा रहा है. बाहर की जमीन नीचे है. सुरक्षा बांध बनाकर, पुल की कम चौड़ाई और उसके लिए गाइड बांध बनाकर तटबंध की चौड़ाई को कम की गई है. इसके कारण बाढ़ की विभीषिक तटबंध के बीच पहले से भयावह हो गई है. कटाव भी बढ़ गया है. आज भी तटबंध के बीच के गांवों के भूगोल बदलते रहते हैं. अपने जीवन में अनेक लोग 10 से 20 बार तक नए-नए जगहों पर घर बनाए हैं. कुछ गांव तो दूसरे मौजा और दूसरे की जमीनों पर भी बसते हैं, फिर साल दो साल में उजड़ जाते हैं.
अबतक आठ बार टूट चुका है कोसी तटबंध
कोसी तटबंध अबतक आठ बार टूट चुका है. पिछली बार 2008 में नेपाल के कुसहा में बांध टूटा था. इससे पहले 1991 में भी नेपाल के जोगनिया में, 1987 में गण्डौल में, 1984 सहरसा जिले के नवहट्टा में, 1981 में बहुआरा में, 1971 में भटनियां में, 1968 में जमालपुर में और 1963 में डलवां में तटबंध टूटा था.
बाढ़ और बांध की मरम्मत के नाम पर होती है लूट
कोसी के बाढ़ को 90 के दशक से कवर करने वाले सहरसा के सीनियर पत्रकार नवीन निशांत कहते हैं कि बांध बनाने का उद्देश्य कोसी की धराओं को नियंत्रित करना था. लेकिन यह साल दर साल कमाई का जरिया बन गया. वे कहते हैं कि कोसी नदी में हर साल 6 इंच से लेकर एक फीट तक सिल्ट के रूप में रेत की परत चढ़ती जा रही है. पिछले 60 सालों में 15 से 20 फीट तक सिल्ट नदी में जमा हो गया है. सरकार ने कभी भी सिल्ट निकालने का काम नहीं किया. कारगर उपाय तो यह होता कि सिल्ट निकालकर नदी की गहराई बढ़ाई जाती. लेकिन, सरकार तटबंध को ऊंचा करते जा रही है.
अब स्थिति यह हो गई है कि बांध के बाहर सटे हुए पक्का मकान बांध से नीचे होते जा रहे हैं. कहीं बांध टूटा तो तबाही पहले से ज्यादा मचेगी. नवीन कहते हैं कि सभी लोग जानते हैं कि तटबंध के अंदर हर साल बाढ़ का आना तय है. फिर भी बांध के अंदर ज्यादा सड़कें पास कराई जाती है. फिर, बाढ़ में उन सड़कों को कागज पर बना और बहा दिया जाता है और इसके नाम पर करोड़ों रुपए का बंदरबांट कर लिया जाता है. जबकि इन इलाकों का विकास मास्टरप्लान बनाकर किया जाना चाहिए. तटबंध के अंदर बसे 308 गांव के लोग राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट बैंक बने हुए हैं.
सीनियर जर्नलिस्ट नवीन निशांत कहते हैं, कोसी बराज की उम्र 30 साल आंकी गई थी. लेकिन इसे बने हुए ज्यादा साल हो गए हैं. इसे 9 लाख क्यूसेक पानी डिस्चार्ज के लिए डिजाइन किया गया था. लेकिन अब तो 6 लाख क्यूसेक से कम पानी डिस्चार्ज की स्थिति में बराज पर ओवर फ्लो हो जा रहा है. यह खतरे की घंटी है.
दूसरी ओर, दोनों तटबंध मिट्टी के बने हुए हैं. चौड़ीकारण और ऊंचीकरण में बालू का ही ज्यादातर इस्तेमाल हो रहा है. इस कारण बांध पर हमेशा खतरा मंडराते रहता है. समस-समय पर बांध टूटते रहता है. लोगों की सुरक्षा चाहिए, तो पक्का बांध बनाना होगा. नदी भी पूरब की ओर शिफ्ट हो रही है. ऐसे में पक्का बांध नहीं बनाया गया, तो भविष्य में सहरसा, सुपौल, मधेपुरा और खगड़िया में तबाही मचना तय है.