लोकसभा चुनाव को लेकर भाजपा ने एक अलग राजनीति शुरू की है। जीत का गणित तैयार करने के लिए पार्टी अब मोहन यादव को मैदान में उतार दिया है। भाजपा की ओर से लखनऊ में यादव महाकुंभ का आयोजन किया गया। इसमें मोहन यादव के आने को लेकर चर्चा शुरू हो गई है।
लखनऊ:
लोकसभा चुनाव को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने हर एक सीट पर अपनी रणनीति तय करनी शुरू कर दी है। पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी विभिन्न राजनीतिक दलों के गढ़ पर कब्जे की तैयारी में जुटी रही। आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट जैसी समाजवादी पार्टी के परंपरागत गढ़ में भाजपा ने सेंधमारी की कोशिश की है। अब यादव लैंड पर कब्जे की कोशिश शुरू हो गई है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद यादव ने यादव वोट बैंक पर कब्जे की कोशिश की जा रही है। दोनों ही नेताओं ने मुस्लिम- यादव यानी माय समीकरण के जरिए 90 के दशक में अपनी राजनीति चमकाई। सत्ता में आए और करीब तीन दशक से यह समीकरण यूपी और बिहार के राजनीतिक मैदान में उसी मजबूती के साथ जमा हुआ है। भाजपा ने इस समीकरण को तोड़ने की कोशिश शुरू कर दी है। इस क्रम में मध्य प्रदेश में मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनकर भारतीय जनता पार्टी ने यादव वोट बैंक पर अपनी नजर गड़ा दी है। शिवराज सिंह चौहान को हटाकर मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनने के पीछे पार्टी की रणनीति बिहार और यूपी तक की राजनीति के मानकों को बदलने की है।
लखनऊ से नए नारे गढ़ने की कोशिश
यूपी की राजधानी लखनऊ से यादव वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश के तहत बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया गया। गुडौरा मैदान में आयोजित यादव महाकुंभ में खराब मौसम के बाद भी भारी भीड़ उमड़ी थी। यादव महाकुंभ से एक नारा निकला, यादव चला मोहन के संग। इस नारे के जरिए यादव वोट बैंक के बीच एक संदेश देने की कोशिश की जा रही है। मोहन यादव ने भी इस कार्यक्रम में यादवों की शक्ति का अहसास कराया। उन्होंने वोट बैंक के बीच संदेश देने की कोशिश की कि यादव किसी एक परिवार के पीछे- पीछे नहीं चल सकता। इस वर्ग को भी सही- गलत को देखते हुए फैसला लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि एमपी में बिना किसी राजनीतिक आधार के वह मुख्यमंत्री तक की कुर्सी पहुंचे। अखिलेश यादव पर निशाना साधते हुए कहा कि मेरे पिता मुख्यमंत्री नहीं थे। परिवार के लोगों का राजनीति से नाता नहीं है।
मोहन यादव के इन बयानों को आधार मानेंगे तो आपको अहसास होगा कि यूपी में जिस प्रकार से यादव वोट बैंक खुद को मुलायम परिवार तक सीमित रख रहा था, उसे अब एक और विकल्प देने की कोशिश की जा रही है। मोहन यादव एक बड़े चेहरे के रूप में उभर रहे हैं। यूपी और बिहार के यादव वोट बैंक के बीच उन्हें स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। भाजपा की कोशिश एक बने- बनाए वोट बैंक के किले को ढाहने की है। लोकसभा चुनाव में भी पार्टी मोहन यादव को स्टार प्रचारक बनाएगी। यूपी में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के किले में सेंधमारी का प्रयास किया जाएगा।
यूपी से बिहार तक है किलेबंदी
यादव वोट बैंक एकमुश्त वोट करने वाला वर्ग माना जाता रहा है। उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार की राजनीति में कमोबेश यही दिखता है। उत्तर प्रदेश में यादव वोट बैंक का चेहरा मुलायम सिंह यादव रहे। उनके निधन के बाद अब अखिलेश यादव इस वर्ग की राजनीति को आगे बढ़ाने का प्रयास करते दिख रहे हैं। वहीं, बिहार में यादव वोट बैंक की राजनीति लालू प्रसाद यादव ने की। उन्होंने बिहार के यादवों का एकमात्र नेता का तमगा अपने आप ले लिया। उनके बेटे तेजस्वी यादव भी उसी राजनीति को बढ़ाते दिख रहे हैं। अब तक सपा और राजद दोनों प्रदेश में माय (मुस्लिम+यादव) समीकरण के तहत चुनावी मैदान में उतर रहे थे। पिछले कुछ समय में अखिलेश यादव ने यूपी में पीडीए यानी पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक समीकरण को तैयार करने की कोशिश शुरू की है। तेजस्वी यादव भी पिता के माय समीकरण से आगे निकलकर सभी वर्गों का नेता बनने की कोशिश कर रहे हैं।
परंपरागत माय समीकरण को छोड़कर अन्य वर्गों को साधने की कोशिश में यादवों की राजनीति कुछ हद तक कम होने की आशंका इस वर्ग में जताई जाने लगी है। समाजवादी पार्टी और राजद की नई पॉलिटिक्स को देखते हुए अब तक यूपी- बिहार में यादवों के खिलाफ हमलावर रहने वाली भाजपा ने अब इस वर्ग को साधने की कोशिश शुरू कर दी है। यादवों को बस एक वोट बैंक बनकर रह जाने के कारण दूसरे दर्जे पर जाने वाली समस्या को गिनाया जा रहा है। ऐसे में यादवों को सत्ता पक्ष से जोड़कर एक वोट बैंक बन जाने के मिथक को तोड़ने की कोशिश की जा रही है।
बिहार में अहम 16 फीसदी यादव वोट बैंक
बिहार की राजनीति में यादव वोट बैंक को अहम रहा है। बिहार की राजनीति के दो ध्रुव लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार अपने- अपने हिसाब से इस वर्ग को साधते रहे हैं। भाजपा भी इस राजनीति में जुटी रही है। यही वजह है कि बिहार का हर चौथा विधायक यादव समाज से आता है। यादवों की राजनीतिक ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह वर्ग 16 फीसदी वोट अपने पास रखते हैं। यादव वोट बैंक को राजद का कोर वोट बैंक माना जाता है। जेपी आंदोलन से निकले लालू प्रसाद यादव ने मंडल कमीशन के बाद बिहार के इस वर्ग में राजनीतिक ताकत का अहसास कराया। 1990 में वे बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे। उनकी पार्टी 2005 तक बिहार की राजनीति में सत्ता में रही। लालू के अलावा जितने भी नेता ने बिहार की राजनीति में यादव वोट बैंक की राजनीति को साधने की कोशिश की, उन्हें मात ही मिली।
बिहार में करीब 16 फीसदी यादव मतदाता हैं। लालू यादव का मूल वोट बैंक यादव समुदाय है। इस वर्ग ने राजनीति में अपना दबदबा 90 के दशक में बढ़ाया। हालांकि, 2000 के बाद स्थिति बदलती दिखी। 2000 में बिहार में यादव विधायकों की संख्या 64 थी। 2005 में यह घटकर 54 हो गई। 2010 के विधानसभा चुनाव में यह संख्या घटकर 39 पर आ गई। हालांकि, 2015 में राजद- जदयू समीकरण ने असर दिखाया। यादव विधायकों की संख्या बढ़कर 61 पहुंच गई। 2020 में राजद- जदयू अलग हुई। इस बार नीतीश एनडीए के साथ थे तो यादव विधायकों की संख्या भी घटकर 52 रह गई। भाजपा अब इस वर्ग को साधने के लिए अलग रणनीति बनाती दिख रही है।
यूपी में 8 फीसदी यादवों की राजनीति अलग
यूपी की राजनीति में 8 फीसदी यादव वोट बैंक अपना अलग असर डालती रही है। यूपी की करीब 20 फीसदी ओबीसी वर्ग के वोट बैंक को एक साथ जोड़कर मुलायम सिंह यादव एक समय में अपनी अलग राजनीतिक ताकत बनने में कामयाब रहे थे। मंडल कमीशन के बाद यादव समाज में बड़ी गोलबंदी हुई। 1989 में मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही यह वर्ग सपा का कोर वोट बैंक बन गया। यादव वोट बैंक के दम पर मुलायम सिंह यादव तीन बार और अखिलेश यादव एक बार यूपी के मुख्यमंत्री बने। हालांकि, मुलायम से पहले जनता पार्टी के नेता के रूप में रामनरेश यादव सीएम बने थे। हालांकि, यूपी में भाजपा ने सपा के माय समीकरण से अन्य पिछड़े वर्ग को अलग किया। असर यह हुआ कि पार्टी ने अपनी छवि अलग बना ली है।यूपी में यादव समाज के नेता के रूप में आगरा पूर्वी संसदीय सीट से कांग्रेस के रघुवीर सिंह यादव 1952 में लोकसभा सदस्य चुने गए। वहीं, बाराबंकी, फतेहपुर से भारतीय क्रांति दल के उम्मीदवार के तौर पर रामसेवक यादव यूपी विधानसभा में पहुंचने वाले पहले विधायक थे। यूपी में लोहिया ने कांग्रेस के खिलाफ ओबीसी जातियों को एकजुट करने में सफलता हासिल की। 1977 में पहली बार राम नरेश यादव यूपी के पहले यादव सीएम थे।
10 जिलों में 15 फीसदी से अधिक वोटर
यूपी में यादव वोट बैंक करीब 8 फीसदी है। प्रदेश के इटावा, एटा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी, फिरोजाबाद, कन्नौज, बदायूं, आजमगढ़, फैजाबाद, बलिया, संतकबीर नगर, जौनपुर और कुशीनगर जिले को यादव बहुल क्षेत्र माना जाता है। इन जिलों की 50 से अधिक विधानसभा सीटों पर यादव वोटर अहम भूमिका में हैं। प्रदेश के 44 जिलों में 9 फीसदी वोटर यादव जाति के हैं। वहीं, 10 जिलों में यादव वोटर 15 फीसदी से अधिक हैं। पूर्वी यूपी और बृज क्षेत्र में यादव वोटर सियासत की दशा और दिशा तय करते हैं। यूपी में अभी यादव सियासत के सबसे बड़े चेहरे के तौर पर अखिलेश यादव हैं। वहीं, शिवपाल यादव, धर्मेंद्र यादव, रामगोपाल यादव, रमाकांत यादव जैसे चेहरे भी यहां से हैं। भाजपा ने अखिलेश के सामने दिनेश लाल यादव निरहुआ को चुनावी मैदान में उतार कर उन्हें इस वर्ग का नेता बनाने की कोशिश की है। ऐसे में देखना होगा कि यूपी की राजनीति में एमपी सीएम मोहन यादव किस प्रकार का असर छोड़ते हैं।