भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित करने का एलान किया गया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद सोशल मीडिया साइट एक्स पर इसका एलान किया है.
उन्होंने इसकी घोषणा करते हुए लिखा, “मुझे यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि लालकृष्ण आडवाणी जी को भारत रत्न से सम्मानित किया जाएगा. मैंने भी उनसे बात की और इस सम्मान से सम्मानित होने पर उन्हें बधाई दी.”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया पर लिखा, “भारत के विकास में हमारे दौर के सबसे सम्मानित नेताओं में से एक रहे आडवाणी जी का योगदान अविस्मरणीय है.”
“उनका सफ़र ज़मीनी स्तर पर काम करने से शुरू होकर उप प्रधानमंत्री के रूप में देश की सेवा करने तक का रहा है. उन्होंने गृह मंत्री और सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में भी अपनी पहचान बनाई. उनकी संसदीय यात्रा अनुकरणीय और समृद्ध नज़रिए से भरी रही है.”
“उन्हें भारत रत्न देने का फ़ैसला मेरे लिए बेहद भावुक घड़ी है. मुझे उनके साथ काम करने और उनसे सीखने का कई बार मौक़े मिले.”
वहीं, आडवाणी ने कहा, “मैं पूरी विनम्रता और कृतज्ञता के साथ भारत रत्न स्वीकार करता हूं. यह न केवल एक व्यक्ति के रूप में मेरे लिए सम्मान की बात है बल्कि उन आदर्शों और सिद्धांतों का भी सम्मान है जिसकी मैं पूरी ज़िंदगी अपनी पूरी क्षमता के साथ सेवा करने के लिए प्रेरित रहा हूं.”
11 नवंबर, 1995 को मुंबई के शिवाजी पार्क में बीजेपी ने एक बहुत बड़ी रैली का आयोजन किया था.
पार्टी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी उस रैली को संबोधित कर रहे थे. अचानक उन्होंने घोषणा की कि अगले चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी पार्टी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार होंगे. न ही पार्टी के कार्यकर्ता और न ही आरएसएस का नेतृत्व आडवाणी के मुख से इन शब्दों की उम्मीद कर रहा था.
होटल लौटते ही आडवाणी के करीबी गोविंदाचार्य ने उनसे पूछा था, ‘आरएसएस से सलाह लिए बिना आपने इतनी महत्वपूर्ण घोषणा क्यों कर दी?’ आडवाणी का जवाब था, ‘अगर मैंने संघ के इसके बारे में बताया होता तो उन्होंने इस बात को नहीं माना होता.’
विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने भी स्वीकार किया था कि उन्हें बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि आडवाणी इस तरह की घोषणा करने जा रहे हैं.
ये एलान उस समय हुआ था जब हर जगह यही कयास लगाए जा रहे थे कि स्वयं लाल कृष्ण आडवाणी बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार होंगे.
बाद में आडवाणी ने अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री माई पीपुल’ में लिखा, “मैंने जो कुछ भी किया वो एक त्याग नहीं था. मैं क्या सही है और देश और पार्टी के लिए क्या बेहतर है के तर्कसंगत आकलन के बाद इस नतीजे पर पहुंचा था.”
बाद में नामी पत्रकार स्वपन दासगुप्ता ने भी इस एलान के बाद उनसे इसका कारण पूछा था.
आडवाणी का जवाब था, “हमें अपने वोट बढ़ाने की ज़रूरत है. उसके लिए हमें अटलजी की ज़रूरत है.”
आरएसएस से ऐसे जुड़ा नाता
लाल कृष्ण आडवाणी को आगे कभी भारत के प्रधानमंत्री बनने का मौका नहीं मिला. जब वाजपेयी के बाद पार्टी ने सन 2009 में उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा तो पार्टी को हार का सामना करना पड़ा.
जब उनकी पार्टी ने सन 2014 में चुनाव जीता तब तक नरेंद्र मोदी उनके नेतृत्व को चुनौती देने के लिए उठ खड़े हुए थे.
आडवाणी का जन्म 8 नवंबर, 1927 को कराची में हुआ था. वो कराची के पारसी इलाके जमशेद क्वार्टर्स में रहा करते थे. उनकी प्रारंभिक पढ़ाई वहाँ के मशहूर सेंट पैट्रिक स्कूल में हुई थी.
दशकों बाद जब आडवाणी के पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ से मुलाक़ात हुई थी तो जिस पहले विषय पर उनकी बात हुई थी वो था उनका स्कूल और दोनों ने अपनी 45 मिनट की मुलाक़ात के पहले 20 मिनट सेंट पैट्रिक स्कूल के बारे में बातें करते हुए बिताए थे.
पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त रहे टीसीए राघवन बताते हैं, “जब आडवाणी 2005 में कराची के अपने सेंट पैट्रिक स्कूल गए थे तो वहाँ के छात्रों ने उनके सम्मान में ‘फॉर ही इज़ अ जॉली गुड फ़िलो’ गाया था तो उनकी आंखों में आँसू आ गए थे.”
आडवाणी के आरएसएस का सदस्य बनने की भी दिलचस्प कहानी है.
आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में लिखा, “स्कूल समाप्त करने के बाद में हैदराबाद सिंध में अपनी छुट्टियाँ बिता रहा था. उन दिनों में वहां टेनिस खेलना सीख रहा था. एक दिन मैच के बीचों बीच मेरे टेनिस पार्टनर ने कहा मैं जा रहा हूँ.”
“मैंने उनसे पूछा आप इस तरह सेट पूरा किए बिना कैसे जा सकते हैं? उन्होंने जवाब दिया, मैं कुछ दिन पहले ही आरएसएस का सदस्य बना हूँ. मैं शाखा के लिए देर नहीं कर सकता, क्योंकि वहाँ समय की पाबंदी का कड़ा नियम है.”
कुछ दिनों बाद खुद आडवाणी आरएसएस के सदस्य बन गए थे. इस तरह एक टेनिस मैच ने उनके आरएसएस में प्रवेश के लिए भूमिका तैयार की थी.
दीनदयाल उपाध्याय के अनुरोध पर लाल कृष्ण आडवाणी दिल्ली आए और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ काम करने लगे.
वाजपेयी की मदद के लिए राजस्थान से दिल्ली आए
विभाजन के एक महीने बाद सितंबर, 1947 में आडवाणी कराची से दिल्ली के लिए रवाना हुए. वो उन गिने चुने शरणार्थियों में शामिल थे जो ब्रिटिश ओवरसीज़ कॉरपोरेशन के विमान से दिल्ली पहुंचे थे.
आडवाणी ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत राजस्थान से की थी. सन 1957 के चुनाव के बाद दीनदयाल उपाध्याय के अनुरोध पर आडवाणी दिल्ली आए.
तब उनको नवनिर्वाचित सांसद अटल बिहारी वाजपेयी के साथ लगाया गया ताकि वो अंग्रेज़ी बोलने वाले दिल्ली के अभिजात वर्ग के बीच अपनी पैठ बना सके.
आडवाणी तब वाजपेयी के 30 राजेंद्र प्रसाद रोड स्थित उनके निवास पर उनके साथ रहने लगे.
सन 1960 में ‘ऑर्गनाइज़र’ के संपादक के आर मलकानी ने अपने अख़बार के लिए उनसे फ़िल्मों की समीक्षा लिखवाना शुरू कर दिया.
वो ‘नेत्र’ के उपनाम से फ़िल्म समीक्षाएं करने लगे. उन दिनों आडवाणी को पत्रकारों के कोटे से आरके पुरम में रहने के लिए एक फ़्लैट मिल गया. उस ज़माने में इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार आर रंगराजन उनके पड़ोसी हुआ करते थे.
उनके बेटे और नामी इतिहासकार महेश रंगराजन बताते हैं, “उन दिनों आडवाणी अपने स्कूटर से आरएसएस के झंडेवालान मुख्यालय जाया करते थे. मेरे पिता उनके साथ उनके स्कूटर पर पीछे बैठ कर जाते थे और बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग के अपने दफ़्तर में उतर जाते थे. कुछ दिनों बाद जब मेरे पिता ने कार खरीद ली तो भूमिकाएं बदल गईं. तब आडवाणी बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग में कार से उतर कर झंडेवालान के लिए बस पकड़ने लगे.”
सोमनाथ से रथ यात्रा
सन 1970 में आडवाणी राज्यसभा के सदस्य बने. 19 वर्ष बाद यानी नवंबर 1989 में वो पहली बार लोकसभा का चुनाव जीत कर आए.
सन 1973 में उनके नेतृत्व में जनसंघ में हुए विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया गया.
एक समय में प्रजा परिषद के नेता और जनसंघ के अध्यक्ष रहे बलराज मधोक को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया.
सन 1984 के चुनाव में बीजेपी के बुरी तरह से पराजित होने के बाद सन 1986 में उन्हें पार्टी में जान फूँकने और उसकी मुख्य विचारधारा को मज़बूत करने की ज़िम्मेदारी दी गई.
सन 1990 आते आते वो कांग्रेस पार्टी को बराबर के स्तर पर चुनौती देने की स्थिति में हो गए. जन नेता न होने के बावजूद वो पार्टी में गाँधीवादी समाजवाद को अपनाने की बहस को रोकने में सफल हो गए.
निलंजन मुखोपाध्याय अपनी किताब ‘द आरएसएस आरकॉन्स ऑफ़ द इंडियन राइट’ में लिखते हैं, “1990 में आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा ने राम मंदिर के मुद्दे को भारतीय राजनीति के केंद्र बिंदु में ला दिया.”
“इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदुओं के सबसे पूजनीय धर्मपुरुष राम की पृष्ठभूमि में हो रही रथ यात्रा के कारण उसे देखने और उसमें भाग लेने बहुत बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए लेकिन उस यात्रा में आडवाणी की उपस्थिति ने उस आंदोलन को वो वैधता प्रदान की जो इससे पहले कभी देखी नहीं गई थी.”
‘6 दिसंबर 1992 जीवन का सबसे दुखद दिन’
आडवाणी भारतीय राजनीति में ऐसे शब्द भंडार गढ़ने में सफल हो गए जो लोगों को सुसंगत और तार्किक प्रतीत होते थे. यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जो उनसे असहमत थे, उनको नापसंद करना मुश्किल हो गया.
सन 1990 का साल पूरी तरह से आडवाणी का था. 23 अक्तूबर को जब लालू प्रसाद यादव ने बिहार में समस्तीपुर में उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून की धारा 3 के तहत गिरफ़्तार करवाया तो अटल बिहारी वाजपेयी को तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण को ये बताने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई कि उनकी पार्टी विश्वनाथ प्रताप सिंह की गठबंधन सरकार से अपना समर्थन वापस ले रही है.
दो वर्ष बाद जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई गई तो आडवाणी वहां मौजूद थे. झांसी के गेस्ट हाउस में नज़रबंद रहने के दौरान उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में दो लेख लिखे थे जिसमें उन्होंने स्वीकार किया था कि ‘6 दिसंबर, 1992 उनके जीवन का सबसे दुखद दिन था.’
निलंजन मुखोपाध्याय लिखते हैं, “रिहा होने के बाद जब उनसे पूछा गया कि क्या उनके लेख से ये समझा जाए कि उन्होंने 16वीं सदी में बनाई गई मस्जिद के लिए माफ़ी माँग ली है तो उन्होंने कहा कि ऐसा समझना ठीक नहीं है. हाँलाकि अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा था कि उनका दुख इस बात के लिए था कि संघ परिवार भीड़ को नियंत्रित करने में सफल नहीं हो पाया जिसकी वजह से उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़ी.”
लेकिन आडवाणी का शुरू किया आंदोलन 2024 में राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह के साथ एक मुकाम तक पहुंच गया, हालांकि 22 जनवरी, 2024 को हुए आयोजन में ख़ुद आडवाणी शरीक़ नहीं हो सके.
आगरा शिखर सम्मेलन आयोजित करने में भूमिका
सन 1998 में जब भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकार बनी तो लाल कृष्ण आडवाणी को पहले गृह मंत्री और फिर बाद में उप प्रधानमंत्री बनाया गया.
उसी दौरान पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ आगरा शिखर सम्मेलन में भाग लेने भारत आए. आगरा शिखर सम्मेलन हांलाकि नाकामयाब हो गया लेकिन कम लोगों को पता है कि इसको आयोजित करने के पीछे लाल कृष्ण आडवाणी की महत्वपूर्ण भूमिका थी.
करण थापर अपनी आत्मकथा ‘डेविल्स एडवोकेट द अनटोल्ड स्टोरी’ में लिखते हैं, “सन 2000 के शुरुआती दिनों में अशरफ़ जहाँगीर काज़ी भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त बनाए गए. वो उस समय वाजपेयी कैबिनेट में नंबर 2 आडवाणी के साथ संबंध बनाना चाहते थे. मुझे ये ज़िम्मेदारी दी गई कि मैं अशरफ़ को अपनी कार में बैठा कर आडवाणी के पंडारा पार्क वाले घर में ले जाऊँ.”
थापर ने लिखा, “मैं रात के 10 बजे उन्हें वहाँ ले कर गया. ये गुप्त मुलाक़ात क़रीब डेढ़ घंटे तक चली. इसके बाद अगले 18 महीनों में आडवाणी और अशरफ़ इस तरह 20 या 30 बार मिले. मई, 2001 में भारत ने घोषणा की उसने जनरल मुशर्रफ़ को अपने यहां आमंत्रित किया है. एक दिन सुबह साढ़े छह बजे मेरा फ़ोन बजा. आडवाणी लाइन पर थे. उन्होंने कहा कि आपने मुशर्रफ़ वाली ख़बर तो सुन ली होगी. आप हम दोनों के दोस्त को बताइए कि इसका बहुत कुछ श्रेय हम दोनों की मुलाक़ातों को जाता है.”
पाकिस्तान के उच्चायुक्त काज़ी से गले मिले
अहम बात ये है कि जब मई, 2002 में जम्मू के पास कालचूक हत्याकाँड हुआ तो भारत सरकार ने इन्हीं अशरफ़ जहाँगीर काज़ी को एक हफ़्ते के अंदर भारत छोड़ देने के लिए कहा.
करण थापर लिखते हैं, “अशरफ़ के इस्लामाबाद रवाना होने से एक दिन पहले श्रीमती आडवाणी ने मुझे फ़ोन कर कहा कि क्या आप अशरफ़ और उनकी पत्नी आबिदा को मेरे यहाँ चाय पर ला सकते हैं? मेरी समझ में नहीं आया कि एक तरफ़ भारत सरकार इस शख़्स को अपने देश से निकाल रही है और दूसरी तरफ़ उसका उप प्रधानमंत्री उसी शख़्स को अपने यहाँ चाय पर बुला रहे हैं.”
“बहरहाल मैं उनको लेकर आडवाणी के यहाँ पहुंच गया. हम लोगों ने आडवाणी की स्टडी में चाय पी. विदा लेते समय जब अशरफ़ आडवाणी कि तरफ़ हाथ मिलाने के लिए बढ़े, तभी कमला ने कहा, ‘गले लगो.’”
“दोनों व्यक्ति ये सुन कर आश्चर्यचकित रह गए. दोनों ने एक साथ उनकी तरफ़ देखा. कमला आडवाणी ने फिर कहा कि गले लगो.”
“अशरफ़ और आडवाणी ने एक दूसरे को गले लगाया. मैं आडवाणी के पीछे खड़ा था. मैंने देखा कि आडवाणी की आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं.”
किताबें पढ़ने और फ़िल्में देखने के शौकीन
आडवाणी को हमेशा किताबें पढ़ने का शौक रहा. एक बार उनसे पूछा गया कि आपकी कमज़ोरी क्या है तो उनका जवाब था किताबें और कुछ हद तक च़ॉकलेट्स. एलविन टॉफ़लर की ‘फ़्यूचर शॉक’, ‘थर्ड वेव’ और ‘पॉवर शिफ़्ट’ उनकी पसंदीदा किताबें हैं.
उनको इतिहास और राजनीति पर लिखी स्टेनली वॉलपर्ट की किताबें भी बहुत पसंद हैं. आडवाणी फ़िल्मों के भी हमेशा दीवाने रहे.
सत्यजीत राय की फ़िल्में, हॉलीवुड की फ़िल्में ‘द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई’, ‘माई फ़ेयर लेडी’ और ‘द साउंड ऑफ़ म्यूज़िक’ उनकी फ़ेवरेट फ़िल्में हैं.
हिंदी फ़िल्मों में आमिर ख़ाँ की ‘तारे ज़मीन पर’ और शाहरुख़ ख़ान की ‘चक दे इंडिया’ को उन्होंने बहुत पसंद किया. आडवाणी को संगीत का भी बहुत शौक है.
लता मंगेश्कर का ‘ज्योति कलश छलके’ गीत उन्हें सबसे अधिक पसंद है. इसके अलावा वो मेहदी हसन, जगजीत सिंह और मलिका पुखराज की ग़ज़ले सुनने के भी शौकीन हैं.
इमेज कैप्शन,
पाकिस्तान दौरे के समय मोहम्मद अली जिन्ना की मज़ार पर लाल कृष्ण आडवाणी
जिन्ना की तारीफ़ पर विवाद
आडवाणी के राजनीतिक करियर में सबसे बड़ा विवाद उस समय उठ खड़ा हुआ जब उन्होंने पाकिस्तान जा कर मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ़ कर दी. अपनी समझ में उन्होंने एक ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेला था, लेकिन उलटे उसने उनका राजनीतिक जीवन क़रीब क़रीब ख़त्म कर दिया था.
वरिष्ठ पत्रकार और इंदिरा गाँधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के प्रमुख राम बहादुर राय कहते हैं, ‘आडवाणी ने ऐसा क्यों किया उसको आडवाणी ही बेहतर बता सकते हैं, वो वाजपेयी जैसी छवि अर्जित करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन इसको मानने के लिए कोई तैयार नहीं था क्योंकि इससे पहले का उनका इतिहास इसको न मानने के लिए मजबूर कर रहा था.’
“वो अटल बिहारी वाजपेई के पूरक के रूप में तो अच्छे लगते हैं लेकिन जब खुद एक नेता के तौर पर वो उभरते हैं तो वो आरएसएस के प्रवक्ता हो जाते हैं. इस भूमिका से जैसे ही वो हटने की कोशिश करते हैं, उनका दोहरा नुकसान होता है. पहला नुकसान होता है कि जिस ज़मीन पर वो खड़े हैं, वो उनके पैर से खिसक जाती है और उन पर गहरा अविश्वास पैदा हो जाता है.”
हाशिए पर होने की ‘व्यथा कथा’ और भारत रत्न सम्मान
सन 2005 के बाद से आडवाणी नागपुर से आने वाले उन संकेतों को पढ़ने में विफल रहे जिसमें बार बार कहा जा रहा था कि अब उनके सक्रिय राजनीति से हटने का समय आ गया है.
नतीजा ये रहा कि बीते कुछ सालों से उन्हें राजनीतिक जीवन वो शर्मिंदगी उठानी पड़ी जिसका उन जैसा क़द्दावर नेता बिल्कुल हक़दार नहीं है.
जब 2013 की एक दोपहर गोवा के पार्टी सम्मेलन में नरेंद्र मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया गया, उस समय उनका दुख बाँटने वाला कोई नहीं था. ये उन नेताओं की तरफ़ से उन्हें एक दुखद जवाबी उपहार था जिनकी पूरी जमात उनके संरक्षण में पली और बड़ी हुई थी.
एक ऐसे नेता के लिए जिसने हज़ारों मील रथ पर चल कर पार्टी को भारतीय लोगों के लिए प्रासंगिक बनाया, राजनीतिक में इस तरह हाशिए पर जाना कुछ लोगों को ‘काव्यात्मक न्याय’ नहीं लगा.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें मार्गदर्शक मंडल में भेजे जाना भी कुछ लोगों को रास नहीं आया बल्कि विपक्ष तक ने इस पर सवाल उठाया.
हालांकि, अब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आडवाणी को देश के सबसे बड़े सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने का एलान किया है तब समर्थक इसे उनकी दशकों की मेहनत का ‘न्यायोचित सम्मान’ बता रहे हैं.