अवसाद किस तरह हमारे जीवन में गहरे पैठ चुका है; इसकी तस्दीक राजस्थान के कोटा से आ रही खबरें करती हैं। वहां पढÃøाई कर रहे विद्यार्थियों द्वारा लगातार आत्महत्या की खबरें वाकई परेशान कर रही है।
इस वर्ष अब तक तकरीबन तेईस छात्रों ने अवसाद से ग्रसित होकर अपनी जान दे दी। अभिभावकों के दबाव और गलाकाट प्रतियोगिता ने एक ऐसे जहरीले वातावरण का निर्माण किया है कि बच्चों का उस दमघोंटू माहौल में सांस लेना दूभर हो रहा है। असफलता‚अवसाद और तनाव ने खिलखिलाती दुनिया को मायूसी के दोजख में धकेल दिया है। मां–बाप के सपनों का बोझ उठाए नन्हीं जिदगियां अब थकने लगी हैं। माना कि सब कुछ दांव पर लगाकर अभिभावक बच्चों पर एक बड़ा दांव खेलते हैं पर इसका मतलब ये नहीं कि मासूम जिंदगियां उनके सपनों के समक्ष बौनी हो जाए। परीक्षा की असफलता का डर छात्रों पर इस कदर हावी है कि वे संभलने और गिर कर उठ खड़े होने की बजाय मौत को सहर्ष स्वीकार रहे हैं।
बढ़ती हताशा‚ निराशा और अकेलापन उन्हें संभलने का मौका नहीं दे रही। आनंद‚ रोमांच और उत्साह से उनका नाता टूट चुका है। दरअसल‚ कभी हमें स्कूली जीवन में चुनौतियों से निपटने की कला ही नहीं सिखाई गई। हम जरा सी असलफता को जीवन की सबसे बड़ी हार मान लेते हैं‚ जबकि सच्चाई तो ये है कि हमारे जीवन में अस्सी प्रतिशत आनंद है और केवल बीस प्रतिशत दुख‚ लेकिन हम उस बीस प्रतिशत को पकड़ कर बैठ जाते हैं और उसे दो सौ प्रतिशत बना लेते हैं। यह जानबूझकर नहीं होता है‚ बस केवल हो जाता है। क्योकि हम प्रतिकूल हालात से निपटने की तकनीक नहीं जानते और न इस बारे में हमें कोई बताता है।
जाहिर है अनपेक्षित हालात में सामंजस्य न बिठा पाने के चलते बच्चे निराशा भरा कदम उठा रहे हैं। और ऐसा हो भी क्यों नॽ बड़ी सफलता जीवन की रेस में सबसे आगे होने का पैमाना बन गया है। जो जितना धनवान है वो उतना सफल और मर्यादित किरदार है। हार और नाकामी की हमारे समाज और परिवार में कोई जगह नहीं। पर हम क्यों भूल जाते हैं कि असली जीत केवल सफल होने में नहीं बल्कि गिर कर फिर से संभलने में होतीहै। विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों में खुद को मजबूत बनाए रखना इतना कठिन और दुष्कर भी नहीं यदि खुद को समयानुकूल ढालने की कला आती हो।
अगर जीवन को देखने का एक खास नजरिया विकसित कर लिया जाए तो आसानी से अवसाद जैसे दानव से निपटा जा सकता है‚ मगर गलती केवल हमारी नहीं। हमारी सामाजिक व्यवस्था भी इसके लिए जिम्मेदार है‚ जहां चुनौतियों और प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने का कोई कारगर उपाय नहीं बताया जाता। यदि इन्हें हमारे पठन–पाठन और कौशल प्रशिक्षण का अहम हिस्सा बना दिया जाए तो बहुत हद तक खुदकुशी पर भी काबू पाया जा सकता है। अभिभावक इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। शिक्षक‚ कोचिंग संस्थान‚ स्थानीय निकाय और सभ्य नागरिक समूहों को भी आगे आकर पहल करनी होगी। लगातार परामर्श‚ आपसी बातचीत‚ सतत संपर्क और प्रेरक कक्षाओं के जरिए बच्चों को आसानी से इस भयावह त्रासदी से उबारा जा सकता है। आखिर छात्र राष्ट्र की अहम पूंजी है। और एक एक जीवन राष्ट्र के लिए महत्वपूर्ण है उसे शिद्दत और प्रेम से सहेजना है दबाव या बोझ से घसीटना नहीं।