काश, IIT-JEE की तैयारी करने कोटा गए 17 साल के मनीष प्रजापत को कोई सलाहकार मिल जाता। अफसोस, उसने हॉस्टल में पंखे से लटककर फांसी लगा ली। यह सिर्फ मनीष की बात नही है इससे पूर्व भी अनेको बच्चो ने मौत को गले लगाया है . कभी न कभी हर बच्चे के जीवन में ऐसा मोड़ आता है जब वह भीतर से टूट जाता है या कई तरह की भावनाएं मन में आने लगती है। वह जल्दी हिम्मत हारने लगता है।
कोटा जाने वाले बच्चों का दर्द समझिए
मनीष इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए आजमगढ़ से कोटा गया था। जिस दिन उसने यह खौफनाक कदम उठाया, कुछ देर पहले तक उसके पिता वहीं कोटा में साथ थे। जैसे ही उन्होंने ट्रेन पकड़ी, मनीष ने दुनिया को अलविदा कह दिया। यूपी-बिहार के बहुत से बच्चे ‘कोटा फैक्ट्री’ में अच्छे भविष्य का सपना लेकर जाते हैं। कैसे भी करके मां-बाप पैसा देते हैं। बच्चों का भी सपना होता है फिर अचानक कोटा जाकर ऐसा क्या हो जाता है कि वे पंखे से झूल जाते हैं? हालत का अंदाजा ऐसे लगाइए कि इस साल प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों की सुसाइड का यह 19वां मामला है। इसी महीने की शुरुआत में यूपी के मनजोत सिंह ने कोटा में सुसाइड कर लिया था।
मनजोत ने दीवार पर तीन नोट चस्पा किए थे, ‘Sorry, मैंने जो भी किया है अपनी मर्जी से किया है। प्लीज मेरे दोस्तों और पैरेंट्स को परेशान ना करें।’ इसके बाद अगले नोट में Happy Birthday Papa लिखते हुए उसने छोटा सा दिल बनाया था। ओह, तस्वीर देखकर आपकी आंखों में आंसू आ जाएंगे। हमारी शिक्षा व्यवस्था, सोच और समाज के तरीके में ऐसा क्या गड़बड़ हो गया है कि होनहार जान देने लगे हैं। 12वीं के बाद एक JEE या डॉक्टर ही नहीं, बहुतेरे विकल्प हैं। कोई यह बात क्यों नहीं समझता।
मैंने कोटा में रहने वाली अपनी दोस्त कीर्ति नामा से बात की। उन्होंने राजस्थान बोर्ड से पढ़ाई की है। 85 पर्सेंट हासिल करने के बाद उन्होंने भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की थी। वह बोलते-बोलते असली वजह बता गईं कि आखिर बच्चे वहां सुसाइड क्यों कर रहे हैं। आप अगर अभिभावक हैं या खुद पढ़ाई के लिए कोटा या किसी दूसरे शहर जाना चाहते हैं। या घर पर ही पढ़ रहे हैं तो आपको इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
पढ़ो-लिखो, तेंडुलकर नहीं बन जाओगे…
वैसे भी, अब तक मां-बाप के सोचने का नजरिया भी नहीं बदला है। बच्चों को उनकी पसंद के हिसाब से करियर बनाने की छूट पूरी तरह नहीं मिली है। अब भी गाइडेंस के नाम पर अपनी उम्मीदों का बस्ता उनकी पीठ पर बांधा जाता है। मां-बाप को सोचना चाहिए कि क्या करियर सिर्फ डॉक्टर और इंजीनियर बनने में हैं। क्या आईपीएल खेलकर युवा क्रिकेटर अच्छा जीवन नहीं जी रहा है। संगीत, फिल्म, क्रिकेट, कला, बिजनस ऐसे न जाने कितने फील्ड्स हैं जिसमें जीवन संवारा जा सकता है। जरूरत है तो इस बात को समझने की। बच्चा बैट लेकर खेलने जाए तो प्लीज उससे मत कहिए, ‘पढ़ो लिखो, तेंडुलकर नहीं बन जाओगे।’ अब जमाना बदल चुका है। कम उम्र में कोटा भेजने का कोई मतलब नहीं है। साथ ही मां-बाप समझें कि उनका बेटा या बेटी की पसंद क्या है, वे क्या पढ़ना चाहते हैं। उन पर अपनी इच्छा थोपने से अच्छा है कि उन्हें इतना सोचने का अवसर दीजिए कि वे खुद तय कर सकें कि उनकी पसंद क्या है। बच्चों पर प्रेशर मत दीजिए, ये वे परिंदे हैं जिन्हें उड़ने के लिए खुला आसमान चाहिए। हमें बच्चों की इतनी मदद तो करनी होगी।
किसी शायर ने क्या खूब लिखा है-
निकाल लाया हूं एक पिंजरे से इक परिंदा
अब इस परिंदे के दिल से पिंजरा निकालना है।
निदा फ़ाज़ली ने ये लाइनें (नीचे की) जब लिखी होंगी तो उनके मन में यही भाव रहा होगा कि बच्चों को अपनी कल्पना, अपनी सोच, अपनी पसंद से आगे बढ़ने दो। आप समझ रहे हैं न!
बच्चों के छोटे हाथों को चांद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे।