जी‚ बेचारे परीक्षार्थियों को तो एक मिनट भी फालतू नहीं मिलता। किसी के प्रश्न छूट जाते हैं‚ और किसी–किसी की तो उत्तर पुस्तिका ठीक उस वक्त झपट ली जाती है‚ जब वह अपने आखिरी बचे हुए प्रश्न का उत्तर लिखना बस शुरू ही करता है। सरकारी नौकरियों के परीक्षार्थियों को तो खैर अब परीक्षाएं देने का मौका ही नहीं मिलता। वैसे भी सरकार अब सिर्फ नौकरियों के फार्म ही भरवाती है‚ नौकरी देती नहीं है। रही परीक्षा की बात तो मजबूरन अगर वह करवानी भी पडे तो प्रश्नपत्र ही लीक हो जाते हैं। परीक्षा की नौबत ही नहीं आती। यह सच्चाई अपनी जगह फिर भी रहेगी कि परीक्षार्थियों को एक मिनट भी फालतू नहीं मिलता। लेकिन ईडी के डायरेक्टर संजय मिश्रा को पैंतालीस दिन मिल गए। हालांकि थोडे दिन पहले ही अदालत ने उन्हें एकदम ही गलत ढंग से परीक्षा देते पकडा था।
वैसे नहीं पकडा था जैसे वे नेताओं को पकडते हैं‚ और वैसे भी नहीं जैसे फर्रेवाले या मुन्ना भाई पकडे जाते हैं‚ बल्कि वैसे पकडा था जैसे राज्यों में पब्लिक सर्विस कमीशन वाले या कर्मचारी चयन आयोग वाले अपने लाडले परीक्षार्थियों को घर में बिठाकर प्रश्नपत्र हल करवाया करते हैं। ऐसे वक्त में जब सरकारी नौकरी पाने की इच्छा रखने वालों की बात तो छोडो‚ करने वालों तक को नौकरियों के लाले पडे हुए हैं‚ और उन्हें कभी परफार्मंस न दिखाने पर नौकरी खोने का डर दिखाया जाता है‚ और कभी वालंटरी रिटायरमेंट के लिए मजबूर किया जाता है‚ तब संजय मिश्र एकदम लाडले सरकारी नौकर की मिसाल पेश करते हैं। ऐसे लाडले नौकर निजी क्षेत्र में तो मिल जाते हैं जब सेठ जी को किसी का काम इतना पसंद आ जाता है कि वे उसे छोडना ही नहीं चाहते। लेकिन सरकारी क्षेत्र में ऐसी मिसालें कम ही मिलती हैं। यह सरकारी नौकरों के लिए सीख है कि नौकरी करो तो संजय मिश्रा की तरह करो‚ अपने आकाओं के इतने लाडले बनो कि वे आपको अपनी सेवा में रखने के लिए अदालत तक का दरवाजा खटखटाने से न हिचकें। वैसे तो संजय मिश्र को पैंतालीस दिन मिल गए हैं‚ लेकिन इन पैंतालीस दिन में भी वे अपने टारगेट पूरे नहीं कर पाए तो भी लोगों को विश्वास है कि वे अपने आकाओं के लाड–दुलार से वंचित नहीं होंगे। सरकारी नौकरी में इतने वफादार लोग कहां मिलते हैं जी।