वो शोर करते हैं, संसद के अंदर करते हैं‚संसद के बाहर निकलकर बाहर के प्रांगण में करते हैं। यूं यह काम तमाम टीवी एंकर भी करते हैं–शोर‚ फिर एंकर के शोर को वह सम्मान ना मिलता‚ जो सांसद के शोर को मिलता है। यद्यपि दोनों के ही कंधों पर–टीवी एंकरों और सांसदों के कंधों पर ही लोकतंत्र का भार टिका है। पर आप यह न समझ लें कि लोकतंत्र शोर पर ही टिका है। ना लोकतंत्र सिर्फ शोर पर ना टिका‚ वह तो बहुत से फर्जी नारों पर भी टिका है। झूठे वादों पर भी टिका है‚ लोकतंत्र की निर्भरता शोर पर बहुत ही महत्वपूर्ण है।
सांसद से घर निकलते हैं और क्या करते हैं–शोर। घर पर जाकर अगले दिन के शोर की प्रेक्टिस करते हैं। फिर अगले दिन क्या करते हैं–शोर। हाल के संसद सत्र को शोर सत्र घोषित कर दिया जाए‚ तो अनुचित ना होगा। बैठे से बेगार भली और बैठे से शोर भला। सांसद सक्रिय रहते हैं या कम–से–कम सक्रिय दिखते हैं। शोर मचाते हुए कैसे सक्रिय दिखते हैं। शोर थोड़ा और सतत हो जाए‚ तो फिर शोर के स्पांसर भी तलाशे जा सकते हैं‚ जैसे किसी दिन का शोर स्पांसर कर सकता है‚ कोई टीवी चैनल‚ जो खुद भी चौबीस घंटे शोर ही मचाता है। एक दिन के संसदीय शोर को कोई वाशिंग पाऊडर स्पांसर कर सकता है। पूरा संसद सत्र धुल गया‚ शोर में‚ पर आप अपने कपड़े धोइये हमारे वाशिंग पाउडर में–टाइप इश्तिहार आ सकता है किसी वाशिंग पाऊडरवाले का।
एक दिन के संसदीय शोर का स्पांसर जूते का कोई ब्रांड हो सकता है। इसका इश्तिहार हो सकता है कि बस हमारी ही कसर बाकी है‚ पर अभी इसे बाहर सड़क पर चलाइये मजबूती के साथ। लोकतंत्र सिर्फ शोर पर क्यों टिके‚ जूता‚ वाशिंग पाऊडर‚ और टीवी चैनल भी अपना शोरमयी योगदान दें लोकतंत्र में। संसदीय शोर की गरिमा है‚ इसलिए उसे कायदे के स्पांसर मिलने चाहिए। व्यंग्यकार की आफत यह है कि इन दिनों जो भी बात वह मजाक में बोलता है‚ उस पर सीरियस अमल हो जाता है। यह अलग बात है कि व्यंग्यकार की सीरियस बातों को मजाक में ही लिया जाता है। खैर शोर फॉर होम का अब वक्त आ गया‚ राष्ट्रीय संसाधन बचेंगे।