मीडिया का ‘रवैया’ बदलने लगा है। चैनलों के ‘रुख’ बदलने लगे हैं। एंकरों के ‘तेवर’ बदलने लगे हैं। चर्चा कार्यक्रमों के ‘मिजाज’ बदलने लगे हैं। टॉपिक बदलने लगे हैं। चैनलों के ‘बहस’ और ‘चरचा’ कार्यकमों में सत्ता पक्ष के मुकाबले प्रतिपक्ष को अधिक जगह दी जाने लगी है‚ और रिपोर्टर भी सत्ता पक्ष के प्रति और अधिक ‘क्रिटिकल’ होने लगे हैं। मीडिया का मिजाज ऐसा ही है।
जब–जब चुनाव आते हैं। जब–जब ‘सत्ता–बदल’ का हल्ला अधिक जोर–शोर से होता दिखता है‚ चैनल भी अपने सुर बदलने लगते हैं। ‘जैसी बहै बयार पीठ तक तैसी दीजै’ करने लगते हैं। इन दिनों यही होता दिख रहा है। हर ‘अस्पष्ट और अपरिभाष्य’ समय में एक ओर अधिक झुका रहा ‘मीडिया’ सबसे पहले अपने को ‘तटस्थ–सा’ दिखाने की जुगत में लग जाता है। ऐसे मुद्दों को तरजीह देने लगता है‚ जो जनसामान्य के हित और न्याय से जुडे होते हैं‚ और वह सत्ता से भी सवाल कर सके और इस तरह अपने को ‘तटस्थ’ जैसा दिखा सके। इसीलिए इन दिनों खबर चैनल ऐसे ही मुद्दों हाइलाइट करते दिखते हैं और चरचा का विषय बनाते रहते हैं ताकि उनको ‘सत्ता के भौंपू’ की जगह ‘जनता का भौंपू’ माना जाए। पिछले दिनों हुई एमपी के एक आदिवासी पर एक दबंग द्वारा पेशाब करने की घटना हो या कुश्ती संघ के चीफ द्वारा महिला पहलवानों का ‘यौन उत्पीडन’ करने के ‘आरोप’ के संदर्भ में ‘न्याय की मांग को लेकर लंबा धरना हो या मणिुपर में दो महीने पहले एक बडी भीड द्वारा दो औरतों को निर्वस्त्र घुमाने की हर तरह से निंदनीय और शर्मनाक घटना हो. हमारे चैनल आजकल अपने को ‘जनहितकारी’ रूप में पेश करते हैं!
हम देखते हैं कि खबर चैनलों ने इन मुद्दों को ‘मानवीय’ मुद्दे की तरह बनाया है‚ और सत्ता पक्ष हो या विपक्ष‚ सबको राजनीति से ऊपर उठकर मिलकर काम करने की लाइन दी है। यह विपक्ष के दबाव का या शायद मीडिया की अपनी ‘मानवीयता’ का दबाव है‚ जिसने उसे ‘तटस्थ जैसा’ दिखने का मौका दिया है। एक वक्त रहा जब कई चैनलों के कई एंकरों का रवैया भी एक ओर झुका हुआ सा नजर आता था। विपक्ष के प्रवक्ता बीच बहस में ऐसे एंकरों पर आरोप लगाकर उनको रक्षात्मक बनाते रहते थे कि ‘वो और उनका चैनल बिका हुआ है’‚ कि ‘वो गोदी मीडिया’ हैं.! पहले एंकर ऐसे आरोपों के जवाब में विपक्ष के प्रवक्ताओं को डांट भी देते थे लेकिन इन दिनों वे मन मसोस कर रह जाते हैं। यह भी बदलाव का एक नमूना है। अगर हम मानें कि विपक्ष ने कई चैनलों को अगर रक्षात्मक बनाया है‚ तो अपने ‘हमलों’ से बनाया है अपनी ‘मीडिया टेक्टिक्स’ से बनाया है। शायद इसी कारण इन दिनों चैनल इतने ‘तटस्थ–से’ दिखते हैं कि वे सत्ता पक्ष के प्रवक्ताओं द्वारा मणिपुर के बरक्स बंगाल व राजस्थान में हुई हिंसा व बलात्कारों की खबरों को ‘एजेंडा’ बनाने की कोशिशों तक को नजर अंदाज करते दिखते हैं। और दिन होते तो सत्ता पक्ष इधर खबर बनाता था तो उधर हर चैनल उसे अपना मुद्दा बनाकर विपक्ष को रक्षात्मक बनता रहता था। अब हाल यह है कि इधर विपक्ष कहता है‚ और चैनल उसे अपना मुद्दा बनाकर सत्ता पक्ष को ही रक्षात्मक बनाने लगते हैं। यह अपने आप में एक बडी ‘मीडिया–फिफ्ट’ है! अब सत्ता पक्ष के जाने–माने नेता राजस्थान या बंगाल में ‘रेप’ जैसी ‘जघन्य घटनाओं की लाख बात करते रहें मीडिया उनको अपना मुद्दा उस तरह से बनाता नहीं दिखता जिस तरह से कभी बनाया करता था। यह मीडिया खासकर खबर चैनलों की भूमिका में आ रहा एक बडा बदलाव है। यह बदलाव कई बार इतना साफ नजर आता है कि जिसे देख सत्ता के प्रवक्ता तक अपने हाथ मलते नजर आते हैं।
कहने की जरूरत नहीं कि विपक्ष के कुछ बडे दलों व प्रवक्ताओं ने एक सोची–समझी रणनीति के तहत ऐसा किया है। इस रणनीति के तहत वे पहले तो हर चरचा में ‘हल्ला’ बोलते हैं‚ फिर अपने को मीडिया के विक्टिम की तरह पेश करते हैं‚ फिर चैनल पर आरोप लगाते हैं कि ‘वो बिका हुआ है’ और जब चैनल रक्षात्मक हो उठता है तो वे सत्ता के प्रवक्ता को बीच में टोक कर बचे खुचे ‘टाइम’ में से अधिकांश समय अपनी ओर खींच लेते हैं ताकि सत्ता पक्ष बहुत बोल ही न सके। कहने की जरूरत नहीं कि विपक्ष अपनी इस नीति में काफी हद तक सफल रहा है‚ और सत्ता पक्ष अब तक हतप्रभ सा दिखता है कि इस बदलते मीडिया का क्या करें‚ कि अपनी आवाज को उसकी आवाज कैसे बनाएं‚ कि अपने ‘हल्ले’ को कैसे चैनलों का ‘हल्ला’ बनाएंॽ
कहने की जरूरत नहीं कि विपक्ष के कुछ बडे दलों व प्रवक्ताओं ने सोची–समझी रणनीति के तहत ऐसा किया है। इस रणनीति के तहत वे पहले तो हर चरचा में ‘हल्ला’ बोलते हैं‚ फिर अपने को मीडिया के विक्टिम की तरह पेश करते हैं‚ फिर चैनल पर आरोप लगाते हैं कि ‘वो बिका हुआ है’ …