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विपक्षी एकता की बैठक में ‘सियासी लहर’ लूट ले गई कांग्रेस, ताकते रह गए बाकी ……….

UB India News by UB India News
July 20, 2023
in विपक्ष
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विपक्षी एकता की बैठक में ‘सियासी लहर’ लूट ले गई कांग्रेस, ताकते रह गए बाकी ……….
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राहुल गांधी के चेहरे से कभी ममता बनर्जी को नफरत थी। कांग्रेस के साथ किसी गठबंधन के भी ममता खिलाफ थीं। कांग्रेस से ममता की नफरत का आलम यह था कि वे कांग्रेस द्वारा कभी बनाए यूपीए (UPA) का नाम भी बदल देना चाहती थीं। बेंगलुरु में विपक्षी दलों की सोमवार और मंगलवार को हुई बैठक की समाप्ति पर प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए राहुल गांधी के लिए जब ममता ने यह कहा- आवर फेवरिट राहुल जी (Our Favourite Rahul Ji) तो एकबारगी लगा कि यह वही ममता बनर्जी हैं क्या ! टूटने-बिखरने के कई आयाम-अवसर देख चुकी कांग्रेस अगर सवा सौ साल से अधिक समय से कायम है तो निश्चित ही इसका श्रेय उसके रणनीतिकारों को जाना चाहिए। इसलिए कि किसी को कैसे काबू में किया जा सकता है और कैसे अपना लोहा उससे मनवाया जाता है, इसकी तमाम तरकीब उसके पास है। फिलहाल विपक्षी एकता की कवायद चल रही है तो इस प्रसंग में कांग्रेस की उन तरकीबों पर गौर करना जरूरी है।

ममता-केजरीवाल को कांग्रेस ने कैसे काबू में किया
साल 2021 में ममता बनर्जी की टीएमसी को बंगाल विधानसभा के चुनाव में बड़ी कामयाबी मिली थी। कामयाबी तो पहले भी उन्हें लगातार दो बार से मिलती रही थी, लेकिन तीसरी बार की कामयाबी का उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह तक पूरे चुनाव के दौरान बंगाल को अपना बसेरा बना चुके थे। संगठन से लेकर केंद्र की सरकार तक ने बंगाल में बीजेपी की कामयाबी के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ा। इसके बावजूद तीसरी बार ममता बनर्जी सत्ता बचाए रखने में कामयाब हो गई थीं। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में उनका उत्साह बढ़ा होगा। बीजेपी से खार खाए लोगों को भी एहसास होने लगा कि नरेंद्र मोदी को ममता ही चुनौती दे सकती हैं। वे इस मकसद से विपक्षी नेताओं को एकजुट करने के लिए दिल्ली-मुंबई की यात्रा भी कर आईं। शरद पवार और उद्धव ठाकरे से मशविरा भी किया। ममता तब अपने इस सुझाव के साथ विपक्षी नेताओं से मिल रही थीं कि कांग्रेस को किनारे रख कर विपक्षी दलों का गठबंधन बने, ताकि नरेंद्र मोदी को चुनौती दी जा सके। उन्हें यूपीए के नाम पर भी आपत्ति थी। जाहिर है कि कांग्रेस से नफरत का मतलब राहुल गांधी का विरोध भी था। वे राहुल को पीएम फेस स्वीकारने को तैयार न थीं। हालांकि जिस एनसीपी और शिवसेना के नेताओं पर उन्होंने सर्वाधिक भरोसा किया, उन्होंने कांग्रेस बिना किसी विपक्षी मोर्चे की संभावना खारिज कर दी। थक कर ममता खामोश बैठ गईं।

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फिर आरंभ हुई विपक्षी दलों की एकता की कोशिश
बिहार में महागठबंधन का स्वरूप बदला तो सात (तब) दलों के समर्थन से सीएम बने नीतीश कुमार को भी ममता की तरह बीजेपी को उखाड़ फेंकने का आइडिया सूझा। महागठबंधन में सहयोगी आरजेडी ने नीतीश को विपक्ष का पीएम फेस बता कर एकता प्रयासों में लगने का इशारा किया। नीतीश पीछे न हटें, इसलिए लालू ने उन्हें सोनिया के दरवाजे तक पहुंचा दिया। सोनिया से कोई उत्साहवर्धक संकेत न मिलने पर नीतीश भी खामोश हो गए, लेकिन बार-बार वे कांग्रेस से विपक्षी एकता की पहल की अपील करते रहे। आखिरकार सात-आठ महीने बाद वह घड़ी आई, जब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने नीतीश कुमार को बातचीत के लिए दिल्ली बुलाया। कांग्रेस की हरी झंडी पाकर नीतीश ऊर्जान्वित हो गए और विपक्षी नेताओं से मिलने का सिलसिला शुरू किया। यहां यह उल्लेखनीय है कि कांग्रेस ने खुद इसकी पहल नहीं की, बल्कि नीतीश को यह जिम्मेदारी सौंपी। कांग्रेस नेताओं को पता था कि अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी को साथ लाना टेढ़ी खीर है।

नीतीश की पहल पर साथ आने को राजी हुईं ममता
नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता मिशन के तहत सबसे पहले दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को साधा। उनकी रजामंदी से उत्साहित होकर नीतीश ने दिल्ली में वाम दलों के नेताओं से मुलाकात की। फिर वे ममता बनर्जी और अखिलेश यादव से मिलने कोलकाता और लखनऊ गए। राजनीति में अपनी अधिक उम्र के बावजूद अब भी सक्रिय रहने वाले शरद पवार से मुंबई जाकर मिले। मुंबई में ही उनकी मुलाकात उद्धव ठाकरे से भी हुई। नीतीश कुमार को ही इसका श्रेय जाता है कि विपरीत ध्रुव के नेताओं और दलों को एक मंच पर बैठने के लिए उन्होंने राजी कर लिया। यह विपक्षी एकता की दिशा में सबसे बड़ी सफलता थी, लेकिन इसके पीछे दिमाग कांग्रेस का था। कांग्रेस भी विपक्षी एकता की ख्वाहिशमंद थी, लेकिन उसे मालूम था कि अखिलेश, ममता और अरविंद को पटाना उसके बूते से बाहर की बत है। इसके लिए नीतीश को उसने दांव पर लगाया और सफल भी रही। कांग्रेस के लिए यह बड़ी सफलता थी।

कांग्रेस आहिस्ता-आहिस्ता अपने पत्ते खोल रही है
ममता बनर्जी ने कांग्रेस को उसकी औकात बताने के लिए विपक्षी एकता के लिए पहली बैठक पटना में रखने की सलाह दी। नीतीश के लिए तो यह खुशी की बात थी, लेकिन कांग्रेस को यह सूट नहीं कर रही थी। पटना में पहली बैठक इसलिए रद्द करनी पड़ी कि कांग्रेस का कोई बड़ा नेता आने को तैयार नहीं हुआ। कांग्रेस की मंशा जो रही हो, पर उसने वाजिब कारण भी बताए। खैर, लालू के आग्रह पर बैठक की नई तारीख तय की गई और उसमें मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी शामिल हुए। लालू प्रसाद यादव ने राहुल को शादी की सलाह दी और विपक्षी नेताओं के बाराती बनने की बात मजाक में कही, लेकिन इसमें बड़ा राज छिपा था। पटना की बैठक में इतना तो साफ हो गया कि कांग्रेस की अब भी विपक्षी दलों में पूछ है। रणनीतिक ढंग से यहां भी कांग्रेस कामयाब रही। अगली बैठक के लिए पहले कांग्रेस शासित हिमाचल प्रदेश का चयन हुआ। बाद में इसे कर्नाटक के बेंगलुरु में शेड्यूल किया गया।

बेंगलुरु बैठक में कांग्रेस के नेतृत्व पर लगी मुहर
बेंगलुरु बैठक में UPA का नाम बदल कर INDIA करने के अलावा बहुत कुछ तो सामने नहीं दिखा, लेकिन एक बात साफ हो गई कि कांग्रेस का नेतृत्व सबको कबूल है और राहुल गांधी के चेहरे से किसी को नफरत नहीं है। राहुल को अगर ममता ने ‘आवर फेवरेट राहुल जी’ कहा तो इसका संकेत साफ है कि राहुल के चेहरे पर अब ममता को भी कोई आपत्ति नहीं है। कांग्रेस और खासकर कर्नाटक कांग्रेस की बैठक के बेहतरीन आयोजन के लिए भी ममता ने जिस अंदाज में धन्यवाद किया, वह बहुत कुछ बता गया। यहां भी कांग्रेस की चाल कामयाब हुई। पीएम फेस और सीट शेयरिंग जैसे बहुविवाद विषय पर बैठक में कांग्रेस ने चर्चा होने से बचा लिया। इसके लिए अगली बैठक मुंबई में प्रस्तावित है, जहां एनसीपी के नेतृत्व वाले महाअघाड़ी के सभी दल मेजबान बनेंगे। महाअघाड़ी में कांग्रेस भी शामिल है। महाअघाड़ी के घटक दल एनसीपी के नेता शरद पवार और शिवसेना (उद्धव) के नेता उद्धव ठाकरे कांग्रेस के बिना विपक्षी गठबंधन के ममता बनर्जी के प्रस्ताव को खारिज कर चुके थे। यानी कांग्रेस का ही वर्चस्व उस बैठक में भी बना रहेगा।

PM फेस व सीट शेयरिंग पर बिखर सकती है एकता
कांग्रेस अभी तक तो अपनी रणनीति में कामयाब रही है, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती विपक्षी गठबंधन में सीट शेयरिंग को लेकर होगी। अगली बैठक में इसके लिए 11 सदस्यों की समन्वय समिति बनानी है। उसके बाद सीट शेयरिंग का सवाल आएगा। यह काम समन्वय समिति को ही देखना है। कमेटी में जाहिरा तौर पर एनसीपी, शिवसेना,सपा, जेएमएम, कांग्रेस, टीएमसी, पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, आप, सीपीआई, सीपीएम जैसे दलों के नेता ही प्रतिनिधि होंगे। इनमें केजरीवाल और ममता की पार्टी के नेताओं को छोड़ कर अधिकतर तो कांग्रेस के ही समर्थक होंगे। ऐसे में सीट शेयरिंग का काम भी आसान नजर आता है, लेकिन यह कांग्रेस के लिए ही अधिक लाभकारी होगा। अगर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने रंग बदला और कोई नई शर्त थोप कर किनारा कर लिया तो विपक्षी गठबंधन के बिखरने में भी देर नहीं लगेगी। जो भी हो, कांग्रेस ने यह तो साबित कर ही दिया कि वह इस हाल में भी दूसरे विपक्षी दलों को हांक सकती है।

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