इंद्रदेव के कहर के कारण देश के उत्तरी भाग से काफी दर्दनाक दृश्य सामने आए। हर तरफ से तबाही के विचलित करने वाले दृश्यों को देख मन में यही सवाल उठा कि इस साल मानसून से जो हाल हुआ क्या वो वास्तव में प्राकृतिक आपदा हैॽ क्या इस तबाही के पीछे इंसान का कोई हाथ नहींॽ क्या भ्रष्ट सरकारी योजनाओं के चलते ऐसा नहीं हुआॽ कब तक हम ऐसी तबाही को कुदरत का कहर मानेंगेॽ
बीते सप्ताह जब देश के उत्तरी भाग से वर्षा के कारण होने वाली तबाही के दृश्य सामने आए तो हर किसी के मन में ऐसे ही कुछ सवाल उठे। क्या ऐसी तबाही को रोका जा सकता हैॽ क्या तबाही के लिए अधिक वर्षा ही जिम्मेदार हैॽ विकास के नाम पर पर्यावरण की होने वाली तबाही को किस हद तक जिम्मेदार ठहराया जा सकता हैॽ सरकार द्वारा बनाई जाने वाली सभी विकास की योजनाएं क्या पर्यावरण के संतुलन के हिसाब से बनती हैंॽ
दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों का जो हाल हुआ उससे तो सभी अचंभे में हैं। जगह–जगह जलभराव के कारण लंबे ट्रैफिक जाम ने पूरी व्यवस्था की जो पोल खोली उससे तमाम सवाल उठते हैं। जलभराव से निपटने के लिए सरकार द्वारा समय–समय पर चलाई जाने वाली योजनाओं को क्या पूरी गुणवत्ता से पूरा किया जाता हैॽ क्या नगर निगम या लोक निर्माण विभाग के अधिकारी अपना काम पूरी जिम्मेदारी से करते हैंॽ क्या सरकार के वरिष्ठ अधिकारी और संबंधित मंत्री इन कार्ययोजनाओं की जांच करते हैं‚ या फीता काटने और श्रेय लेने का ही काम करते हैंॽ सभी जानते हैं कि इन सभी सवालों का जवाब ‘नहीं’ में मिलेगा। दिल्ली में लगने वाले जाम के लिए केवल जलभराव ही जिम्मेदार नहीं था। जलभराव के कारण डीटीसी की कई बसें भी बिगड़ी हुई दिखाई दीं‚ जो कई जगह ट्रैफिक जाम की आग में घी का काम कर रही थीं। इन बसों के रखरखाव में होने वाले भ्रष्टाचार को इसका कारण क्यों न माना जाएॽ प्रायः देखा गया है कि डीटीसी की बसें वर्षा के कारण होने वाले जलभराव में अक्सर बिगड़ कर फंस जाती हैं। इसका सीधा मतलब हुआ कि इन बसों का नियमित रखरखाव सही ढंग से नहीं हो रहा। ऐसे में हमें ट्रैफिक पुलिसकर्मियों को ही जाम के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए। झमाझम बरसते बादलों के बावजूद दिल्ली जैसे कई अन्य शहरों में पुलिसकर्मी अपनी ड्यूटी करते दिखाई देते हैं।
हिमाचल प्रदेश और अन्य पहाड़ी इलाकों में जिस तरह की तबाही के मंजर दिखे उनने तो सरकारी योजनाओं की पोल ही खोल कर रख दी। विकास के नाम पर होने वाले पर्यावरण के विनाश की लीला कई सालों से चलती आई है। इसके लिए हर वो सरकार जिम्मेदार है‚ जिसने निहित स्वार्थों के चलते पर्यावरण की परवाह किए बिना ‘विकास’ की बेतरतीब योजनाएं बना डालीं। इन भ्रष्ट योजनाओं के कार्यान्वयन में भी अत्यधिक भ्रष्टाचार हुआ। इसी का नतीजा रहा कि हर साल साधारण वर्षा में ही सड़कें बुरी तरह तहस–नहस हो गइ। फिर तेज वर्षा के कारण ऐसे निर्माणों का क्या हाल होगा इसका अंदाजा तो कोई भी लगा सकता है। आज से कुछ साल पहले जब मैं सिंगापुर में था तो वहां के जल निकाय प्रबंधन को देख कर प्रसन्नता हुई। सिंगापुर में मेरे मेजबान ने एक दिन मुझे वहां के पब्लिक ट्रांसपोर्ट से घूमने का आग्रह किया। हमने तय किया कि हम एक दिन वहां की बसों और मेट्रो में घूमेंगे। सुबह–सुबह हम दोनों अपना–अपना छाता लेकर नजदीकी बस स्टॉप पर पहुंच गए। कुछ ही समय में मूसलाधार बारिश हुई। सिंगापुर के बस स्टॉप ने हमें भीगने नहीं दिया। परंतु जिस तीव्रता से वर्षा हुई‚ यदि भारत का कोई भी शहर होता तो घुटने–घुटने पानी भर जाता। लेकिन सिंगापुर में ऐसा नहीं हुआ। देखते ही देखते सड़क के किनारे बनी साफ–सुथरी नालियों ने पानी को इस कदर खींच लिया मानो कुछ हुआ ही नहीं। मैंने इस पर अपने स्थानीय मित्र से पूछा तो उन्होंने बताया कि यहां पर बारिश आम बात है‚ इसलिए न सिर्फ यहां रहने वाले‚ बल्कि यहां की सरकार भी हर तरह की परिस्थिति से निपटने के लिए हमेशा तैयार रहती है। इसीलिए आपको सिंगापुर में कभी भी जलभराव नहीं मिलेगा।
जिस तरह हमने विदेशों से कई अच्छी आदतें सीखी हैं‚ उसी तरह यदि हम जलभराव जैसी स्थितियों से निपटने के लिए भी तैयार हो जाएं तो ऐसी समस्याएं नहीं झेलनी पड़ेंगी। जान–माल के नुकसान के साथ–साथ पर्यावरण को भी बचाया जा सकेगा। परंतु जैसे हर जगह लालच के चलते भ्रष्टाचार ने अपने पांव पसारे हैं‚ उसने न सिर्फ देशवासियों को संकट में डालने का काम किया है‚ बल्कि दुनिया भर में हमारा सर भी नीचा किया है। इसलिए किसी विकास योजना को बनाने से पहले उससे होने वाले नुकसान का जायजा लेना भी अनिवार्य है वरना ऐसे मंजर हमें बार–बार देखने को मिलेंगे और हम इन्हें कुदरत का कहर मान मौन बैठे रहेंगे।