हमारी चैंपियन पहलवानों का मामला इस कदर बिगड़ गया है कि इसे संभालना अब किसी के लिए भी मुश्किल होगा। इसमें हर कोई अपने अपने स्तर पर ज़िम्मेदार है और कहीं न कहीं इसका दोषी है। सबसे बड़ी बात ये है कि पुलिस को पहलवान बेटियों के साथ इस तरह ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिए थी, उन्हें सड़क पर घसीटना नहीं चाहिए था। बल प्रयोग की ये तस्वीरें ग़ुस्सा दिलाती हैं। जो भी देखेगा, उसकी हमदर्दी इन पहलवानों के साथ होगी। अगर तर्क ये है कि पहलवानों ने पुलिस से अनुमति लिए के बिना संसद जाने की कोशिश की, क़ानून को तोड़ा और पुलिस के लिए उन्हें रोकना ज़रूरी था, तो सवाल उठता है, क्या इसके लिए इस तरह बल का प्रयोग करना ज़रूरी था?
इस मामले में सबसे ज़्यादा ग़लती बृजभूषण शरण सिंह की है, जो अपने बयानों से खिलाड़ियों को भड़का रहे हैं, उन्हें चिढ़ा रहे हैं। उन्हें अपनी ज़ुबान पर लगाम लगानी चाहिए और मामले को और उलझाना नहीं चाहिए। ग़लती खेल मंत्रालय की भी है, जिसने मामले को इतना बढ़ने दिया। ऐसी क्या मजबूरी थी कि समय रहते, इस मामले को सुलझाया नहीं गया? आज ये कहना कि पहलवान राजनीतिक खेल का शिकार हो गए, बेमानी है। ये पहलवान तो शुरु से ही नेताओं को अपने से दूर रख रहे थे, इन्हें राजनीतिक हाथों में क्यों जाने दिया गया? कोई भी समस्या न तो पुलिस की ताक़त से सुलझ सकती है, न टेंट उखाड़ने से। ये मानना पड़ेगा कि जनता की नज़र में बृजभूषण शरण सिंह एक बाहुबली नेता हैं, जिसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है। दूसरी तरफ़ ये पहलवान, देश को मेडल दिलाने वाली बेटियां हैं, चैंपियन हैं, लोगों की सहानुभूति उनके साथ है।