परीक्षा देने के बाद परीक्षार्थियों को अपने परिणाम का इंतजार रहता है। टॉपर बच्चों को स्कूल और अन्य लोगों तथा संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जाता है। परिजन बच्चों से ज्यादा अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। इसी बीच समाज और परिजन असफल बच्चों को दरकिनार करने या उपेक्षित रखने की बड़ी भूल करते हैं। नकारात्मक और उपेक्षापूर्ण भाव से कम अंक पाने वाले बच्चों पर आजीवन असर रहता है। कुछ तो आवेग में गलत कदम तक उठा लेते हैं। परीक्षा परिणाम कुछ परिवारों के लिए सुखद बन जाता है तो कुछ के लिए ह्रदय विदारक।
आज बच्चे आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठा ले रहे हैं। आत्महत्या निश्चत तौर पर कायराना कदम है परंतु किशोरावस्था के जिस पड़ाव पर बच्चे होते हैं‚ उसमें इस बात का विवेक होना मुश्किल होता है। किशोरवय में कॅरियर की अनिश्चितता तो दूसरी तरफ शरीर में आ रहे बदलाव को लेकर आश्चर्य और चिंता के साथ जीवन की शुरुआत होती है। ऐसे समय में बच्चों पर ज्यादा अंक लाने का दबाव बनाया जाता है। इस चौतरफा दबाव के लिए शिक्षा पद्धति‚ स्कूल समाज और परिवार जिम्मेदार हैं। बच्चे पर आगे बढ़ने ‚ एक दूसरे को पीछे छोड़ने का दबाव इस कदर हावी है कि जरा सी चूक हुई नहीं कि जीवन में पीछे छूटने का भय घर कर जाता है। बच्चे के पहली कक्षा में पढ़ने की शुरुआत के समय से ही माता–पिता क्लास में टॉप करने का लक्ष्य निर्धारित कर देते हैं। यह निर्धारण इतने गहरे रूप में होता है कि इसमें असफलता या कम अंक आने की गुंजाइश नहीं बचती है‚ जिसका परिणाम होता है कि बच्चों को इस तरह समझा दिया जाता है कि ९५‡ से ज्यादा अंक आने पर ही हम जीवन में सफल हो सकते हैं। घोषित लक्ष्य का निर्धारण किया जाता है। परिणाम होता है कि इस टॉपर रेखा से नीचे रहने पर बच्चे अपने को किसी काबिल नहीं पाते और उन्हें इस दबाव से बचने का सहज उपाय आत्महत्या ही नजर आता है। आप जरा सोचिए‚ ऐसे बच्चे जो असफल हो जाते हैं‚ उनको समाज किस नजरिए से देखता है‚ और किस दबाव में रखता है‚ गौर करने लायक बात है।
अब १०वीं और १२वीं के परीक्षा परिणाम आ गए हैं। १०वीं बोर्ड में ९३.१२% और १२वीं में ८७.३३% बच्चे पास हुए हैं। ज्यादा अंक लाने और असफल बच्चों में घोर निराशा का भाव है। यह निराशा इतनी गहरी होती है कि इनको कोई रास्ता नहीं दिखता और ये जीवन से ज्यादा मृत्यु को महत्व देना सहज मानते हैं। एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक २०१७–२०१९ तक २४००० हजार बच्चों ने आत्महत्या की‚ जिनमें ४००० से ज्यादा बच्चों ने परीक्षा में कम अंक आने पर की आत्महत्या की। आत्महत्या करने वाले बच्चों की आयु १४ से १८ वर्ष के बीच है। इनमें १३‚३२५ लडकियों ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या के मामले सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश‚ महाराष्ट्र‚ पश्चिम बंगाल‚ तमिलनाडु में दर्ज किए गए। आखिर‚ क्या वजह है कि बच्चों को यह रास्ता ही सबसे पहले दिखता है। सिर्फ एक परीक्षा के परिणाम से किसी भी व्यक्ति की क्षमता‚ योग्यता को परिभाषित या आकलित नहीं किया जा सकता। ऐसे सैकड़ों हजारों की संख्या में लोग जीवन के शुरु आती दौर में बहुत सफल होते नहीं दिखते हैं पर बाद में वे अपने जीवन में सबसे ज्यादा सफल व्यक्ति बन जाते हैं। इस तरह वे अपने परिवार‚ समाज और देश का खूब मान बढ़ाते हैं‚ जिससे सुनिश्चत हो जाता है कि परीक्षा परिणाम से ही किसी व्यक्ति की प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
आज सरकार लगातार इस बात की पड़ताल और सुधार कर रही है कि कैसे बच्चों को इस कृत्य को करने से रोका जाए। फिर भी इस दिशा में आंशिक सफलता ही मिल रही है जबकि पूर्णतया अंक के नकारात्मक प्रभाव से हम अपनी नई पीढ़ी को भेंट चढ़ने से नहीं रोक पा रहे। दरअसल‚ हमने अपने आसपास जिस जटिल प्रतिस्पर्धा का वातावरण निर्मित किया है जैसा कि हमने पहले चर्चा की है कि शुरु आती कक्षा से ही शिक्षक और परिवार द्वारा प्रतियोगिता के लिए दबाव बनाने की शुरुआत हो जाती है। आपने देखा ही होगा कि घर में कोई रिश्तेदार आ जाए तो बच्चे की खैर नहीं। तुरंत ही बच्चों से पहला सवाल पूछ लिया जाता है कि आप बड़े होकर क्या बनोगे।
यह उम्र खेलने और दुनिया को समझने की होती है जबकि संतोषजनक उत्तर नहीं मिलने पर बच्चे की प्रतिभा पर सवाल उठने की गुंजाइश बन जाती है। इस उम्र से इतनी अपेक्षा करना कितना न्यायपूर्ण है। यह गौर करने लायक बात है। हमारा प्रयास बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण पर होना चाहिए न कि कक्षा में परीक्षा के माध्यम से अंक लाने की। हमें इसका विकल्प खोजना ही होगा। सिर्फ सरकारों की जिम्मेदारी नहीं है। समाज और परिवार की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा बनती है। बच्चे देश के भविष्य हैं। इनके बेहतर इंसान बनने से ही देश सुदृढ़ बन सकता है। बेहतर राष्ट्र का निर्माण हो सकेगा।