पटना हाई कोर्ट ने बिहार में चल रहे जातिगत सर्वे पर अंतरिम आदेश से रोक लगा दी है। इस मामले में अगली सुनवाई ३ जुलाई‚ २०२३ को निर्धारित की गई है। सनद रहे कि यह सर्वे प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में है क्योंकि १५ मई तक इस कार्य को संपन्न होना था। कोर्ट का मानना है कि जनगणना कराने का अधिकार सिर्फ भारतीय संसद को है। इसलिए केंद्र सरकार ही जनगणना करा सकती है। इसके अलावा‚ निजता के अधिकार और इस प्रक्रिया पर खर्च राशि की वैधानिकता को भी कठघरे में रखा है। विदित हो कि कई दफा न्यायिक फैसले और अपेक्षित न्याय में अंतर अनुभव किया गया है।
इस संदर्भ में तीन महkवपूर्ण पहलुओं पर विचार करना जरूरी है। पहला–बिहार सरकार ने राज्य के खर्चे पर जातिगत सर्वे का निर्णय क्यों लियाॽ भाजपा (बिहार इकाई) सहित लगभग सभी राजनीतिक दलों का यह एक सामूहिक निर्णय था कि जातिगत जनगणना हो। सभी दलों के सदस्य उस सर्वदलीय समिति का भी हिस्सा थे जो देश में जातिगत जनगणना कराने की मांग को लेकर प्रधानमंत्री से मिली थी। केंद्र सरकार की मनाही के बाद बिहार सरकार ने सर्वसम्मति से सर्वे करने का निर्णय लिया। ज्ञात हो कि बिहार विधानमंडल जातिगत जनगणना के पक्ष में दो–दो बार सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर चुका था। दूसरा–अखिल भारतीय स्तर पर जातिगत सर्वे की यात्रा कैसी रही हैॽ उत्तर–मंडल काल में हरेक जनगणना वर्ष में जाति संबंधी आंकड़ों की जरूरत पर निरंतर बहस हुई है। इस बाबत संसद में २०११ में जातिगत सर्वे कराने का प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से पारित हुआ था। तत्पश्चात ही २०११ में सामाजिक–आर्थिक और जातिगत जनगणना कराई गई। हालांकि विभिन्न करणों से यूपीए सरकार उस जनगणना के आंकड़े को सार्वजनिक नहीं कर पाई। एनडीए सरकार ने तो उसे त्रुटिपूर्ण बताकर ठंडे बस्ते में ही डाल दिया‚ जबकि २०१८ में तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद के पटल पर बयान दिया था कि उनकी सरकार एसईसीसी के आंकड़ों को सार्वजनिक करेगी और २०२१ में जातिगत जनगणना भी कराएगी‚ लेकिन ठीक इसके उलट संसदीय प्रश्नोत्तर के दौरान गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने बताया कि केंद्र सरकार जातिगत जनगणना नहीं कराएगी।
कई राज्यों की मांग को देखते हुए केंद्र सरकार ने कहा कि राज्य सरकारें अपने खर्च पर जातिगत सर्वे करा सकती हैं। कर्नाटक‚ तेलंगाना और ओडि़शा जातिगत सर्वे करा चुके हैं। तीसरा–जातिगत सर्वे का उद्देश्य क्या हैॽ जातिगत और धार्मिक आंकड़ों की बात करें तो एससी/एसटी और धार्मिक आंकड़े तो प्रथम जनगणना से ही होते आ रहे हैं। सिर्फ ओबीसी और सवर्ण जातीय समूह इस प्रकार की गिनती से वंचित रहे हैं। एससी/एसटी के लिए आरक्षण उनकी जनसंख्या के अनुपात में निर्धारित किया गया था। उसी तर्ज पर सामाजिक–शैक्षणिक दृष्टिकोण से हाशिये के समूह (ओबीसी) को आरक्षण देने के लिए संविधान में प्रावधान दिए गए थे। इसके तहत ही मंडल आयोग की अनुशंसा को वीपी सिंह सरकार ने १९९० में लागू किया। अब जबकि ईडब्लूएस आरक्षण के बाद वह सीमा टूट चुकी है‚ ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ की मांग जोर पकड़ रही है। यह मुहिम सामाजिक न्याय के लिए अहम कदम मानी जा रही है। जातिगत सर्वे का उद्देश्य सिर्फ आरक्षण के अनुपात को निर्धारित करना नहीं है‚ बल्कि विकास की योजना तैयार करते समय एक–एक जन के सामाजिक–आंकड़े को भी ध्यान में रखा जाए। गरीबी के स्तर की पहचान कर उसके निदान का प्रारूप तय हो।
ओबीसी बहुत बड़ी जातियों का समूह है‚ जिनके संबंध में सही आंकड़े उपलब्ध नहीं है इसलिए उनके विकास संबंधी नीतिगत निर्णय का आधार सिर्फ अनुमानित व काल्पनिक होता है। विकास के लक्ष्यों को हासिल करने में यह बाधा है। जातिगत सर्वे सिर्फ जाति की जानकारी ही प्रस्तुत नहीं करेगा‚ बल्कि उनका शैक्षणिक–आर्थिक खाका भी इकट्ठा करेगा। इससे समावेशी विकास का मार्ग निर्धारित किया जा सकेगा। सवर्ण जातीय समूहों के आंकड़ों से आर्थिक गरीबी की भी पहचान हो पाएगी‚ जिससे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम को प्रभावशाली बनाया जा सकेगा। राष्ट्र संघ जैसा अंतरराष्ट्रीय संगठन हो या देश में नीति आयोग‚ दोनों प्रकार की संस्थाओं की कार्यशैली में आंकड़ों का निर्माण‚ प्रयोग और महत्व बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देता है। उनकी कार्ययोजनाओं और रिपोर्ट निष्कर्ष में आंकड़ों का उपयोग ही विश्वसनीयता का आधार माना जाता है। भारतीय संदर्भ में जाति में विभाजित समाज की गैर–बराबरी को जातिगत आंकड़ों से ही समझी जा सकती है। जातियों में गरीबी और गरीबों की जाति के अंतर्विरोध का विश्लेषण कर उसे दूर करने की सरकारी कोशिश की जा सकेगी।