पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की गिरफ्तारी की खबर एक बार फिर से हमारे जेहन में पाकिस्तान के लोकतंत्र बनाम सेना के मसले को ताजा कर देती है। पाकिस्तान की अवाम और सियासत के लिए उनके प्रधानमंत्री या पूर्व प्रधानमंत्री का गिरफ्तार हो जाना कोई नई घटना नहीं है। अप्रैल‚ २०२२ में इमरान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाने के बाद से इमरान गिरफ्तारी होने तक लगातार जनसमर्थन अपने पक्ष में लेने की कोशिशें करते रहे और ९ मई‚ २०२३ को इस्लामाबाद की अदालत में सुनवाई के दौरान उन्हें अल–कादिर ट्रस्ट मामले में गिरफ्तार कर लिया गया है। उन पर देशद्रोह‚ लोगों को उकसाने‚ भ्रष्टाचार से संबंधित कई मुकदमे भी दर्ज हैं। इमरान की पार्टी‚ पाकिस्तान तहरीक–ए–इंसाफ एवं उनके समर्थक अपने नेता की गिरफ्तारी के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं।
इमरान की गिरफ्तारी की खबर से सबसे पहले जुल्फिकार अली भुट्टो याद आते हैं‚ जिन्हें प्रधानमंत्री रहते हुए जिया–उल–हक के नेतृत्व में सेना ने गिरफ्तार कर लिया था और उनके पूरे परिवार को निशाने पर रखा गया। पाकिस्तान में सरकार गिर जाने‚ सेना के तख्तापलट या अविश्वास से गिरी सरकार के बाद प्रधानमंत्रियों को निशाने पर लेने का इतिहास रहा है। इतिहास को देखा जाए तो इमरान की गिरफ्तारी वैचारिक विरोधाभासों से भरी हुई है। जुल्फिकर अली भुट्टो के अलावा और कई प्रधानमंत्री रहे हैं‚ जिनकी गिरफ्तारियां हुई हैं। हुसैन शहीद सुहरावर्दी‚ बेनजीर भुट्टो‚ नवाज शरीफ‚ शहीद खकान अब्बासी के नाम भी इनमें शामिल रहे हैं। अब इमरान का नाम भी इनमें जुड़ गया है। वैचारिक मतभेदों से इतर यह गिरफ्तारी का मसला लोकतंत्र की संस्था पर सवालिया निशान खड़ा करता है। पाकिस्तान में लोकतंत्र और सेना का विवाद आजादी के वक्त से चला आ रहा है। सेना और लोकतंत्र के मसलों से पूरे पाकिस्तान की अकादमिक बातें भरी हुई हैं। दक्षिण एशिया के एक बड़े तबके को पाकिस्तान की राजनीति में ऊपर–ऊपर से सिर्फ सेना‚ लोकतंत्र‚ पंजाबी आधिपत्य‚ आतंकवाद जैसे कुछ शब्द ही दिखाई देते हैं‚ और वो उसी को जरूरी बनाए रखने की वार्ता तैयार करते रहते हैं। पाकिस्तान में लोकतंत्र या बराबरी का शासन क्यों नहीं चल पाता‚ इसके पीछे की आधारिक चीजें क्या हैं‚ पाकिस्तान का समाज कैसा है‚ इन चीजों पर बहसें कम मिलती हैं। ऐतिहासिक विश्लेषण करने पर इसकी जड़ द्वि–राष्ट्र के सिद्धांत‚ उससे जुड़े अशराफीकरण एवं उस वक्त हो रहे पसमांदा आंदोलनों में मिलती है‚ जो आगे चलकर अंबेडकर और जोगेन्द्रनाथ मंडल को भी अपने साथ शामिल कर लेती है।
पाकिस्तान में लोकतंत्र मजबूत न होने के पीछे की वजहों में बड़ी वजह जातिगत (पाकिस्तान में इसके लिए बिरादरी शब्द प्रचलित) आधार पर असमानता भी है। जिस देश या समाज में लोग समान नहीं हैं‚ वहां लोकतंत्र की जड़ें कमजोर हो जाती हैं। दक्षिण एशिया के अन्य देशों के मुकाबले पाकिस्तान में सैन्य शासन की अधिकता या उसका प्रभाव मजबूती से रहा है। सेना और जमींदारों का गठजोड़ वर्ग एवं जाति‚ दोनों के आधार पर वहां के समाज को तोड़ता है‚ एक को बहुत ज्यादा मजबूत और एक को बहुत ज्यादा कमजोर बना देता है। जनता के बीच जाति–वर्ग की असमानता सियासी मसलों में भी दिखती है। १९५७ में पाकिस्तान में ४२ जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया लेकिन उस दस्तावेज में स्पष्ट लिखा गया कि यह कैटेगरी सिर्फ गैर–मुसलमानों के लिए है। पाकिस्तान राज्य आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं करता कि मुसलमानों में भी बिरादरी के आधार पर भेदभाव मौजूद है‚ और आधिकारिक रूप से घोषित अनुसूचित जातियों के बेहतरी के लिए भी पाकिस्तान सरकार के पास कोई योजनाएं नहीं हैं। पाकिस्तान पर लिखी गइ अकादमिक रचनाओं में जमींदारी‚ वर्ग‚ गरीबी‚ सामाजिक असमानता का जिक्र मिल जाता है‚ लेकिन उनके समाधान की तलाश में मजबूत उपाय नहीं दिखते। पाकिस्तान की सरकार दलित समुदाय को गरिमापूर्ण वोट के नजरिए से भी नहीं देखती‚ उनके वोटों पर नेता बने लोग उन्हें बंधुआ मजदूर‚ निम्न और हेय दृष्टि से देखते हैं। पाकिस्तान की सामाजिकी–राजनीति में इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। भारत और पाकिस्तान‚ दोनों एक साथ आजाद हुए‚ लेकिन दोनों में सामाजिक स्तर पर बहुत बड़ा फर्क है जो संविधान और सामाजिक–राजनीतिक आंदोलनों का है।
भारत में जाति–धर्म से जुड़े भेदभाव के मसलों का हल संवैधानिक‚ कानूनी और सामाजिक आंदोलनों के रूप में किया गया और यह एक प्रक्रिया के रूप में लोकतंत्र को बुनते–बनाते हुए चलता आ रहा है। यकीनन‚ इसमें खराबियां रहीं और भेदभाव पूरी तरह नहीं रुके लेकिन दलित‚ पिछड़े‚ आदिवासी‚ पसमांदा‚ दलित ईसाई और तमाम वर्गों ने अपनी–अपनी चेतना के साथ आंदोलन किए और उनकी लोकतंत्र में एक जगह रही‚ उनका वोट और उनका नेता रहा। छोटे–छोटे समूहों और संवैधानिक अधिकारों के प्रावधानों ने भारत में लोकतंत्र को टूटने नहीं दिया। पाकिस्तान की सामाजिकी और संविधान में बिरादरीवाद और वर्ग–अंतर के खिलाफ संवैधानिक प्रावधान न होने की वजह से लोकतंत्र के कई स्तंभ खोखले रह जाते हैं‚ और सेना–जमींदार का गठबंधन हावी हो जाता है।
समाज के हाशिये का तबका ही लोकतंत्र की सबसे मजबूत ढाल होती है‚ जब तक पाकिस्तान के सियासी पहरुओं को यह बात नहीं समझ में आएगी तब तक पाकिस्तान का लोकतंत्र कभी अविश्वास का शिकार होगा‚ कभी उसे सेना गिरा देगी और सरकार गिरने के बाद हर प्रधानमंत्री अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित रहेगा। पाकिस्तान में लोकतंत्र का कमजोर होना और प्रधानमंत्रियों के गिरफ्तार होने का इतिहास वर्तमान की राजनीति में भी बने रहना लोकतंत्र और उसको बनाए रखने वाले कारकों के प्रति बेफिक्री जाहिर करता है। दक्षिण एशिया एवं अंतरराष्ट्रीय संबंधों के दृष्टिकोण से भी यह पाकिस्तान में तानाशाही के रवैये का अहसास दिलाता है। मानवाधिकार‚ लोकतंत्र‚ समानता‚ अधिकार‚ आजादी जैसे शब्दों तक पहुंच अवाम के सभी तबकों की नहीं है‚ और एक बेहतर समाज लोकतंत्र की नींव होता है। इमरान खान की गिरफ्तारी तथ्यों से ज्यादा पाकिस्तान के लिए सीखने और संभलने का मौका है। बिरादरीवाद का स्थायी समाधान‚ जातिगत भेदभाव के मसलों पर सही और जरूरी नीति के साथ–साथ जमींदारी उन्मूलन पाकिस्तान में लोकतंत्र और उनके आने वाले नेताओं को मजबूत करेगा।
इमरान की गिरफ्तारी की खबर से सबसे पहले जुल्फिकार अली भुट्टो याद आते हैं‚ जिन्हें प्रधानमंत्री रहते हुए जिया–उल–हक के नेतृत्व में सेना ने गिरफ्तार कर लिया था और उनके पूरे परिवार को निशाने पर रखा गया। पाकिस्तान में सरकार गिर जाने‚ सेना के तख्तापलट या अविश्वास से गिरी सरकार के बाद प्रधानमंत्रियों को निशाने पर लेने का इतिहास रहा है। इतिहास को देखा जाए तो इमरान की गिरफ्तारी वैचारिक विरोधाभासों से भरी हुई है॥