चीन की दंबगई का उसी के अंदाज में जवाब देने में केंद्र की मोदी सरकार कोई कसर नहीं छोड़़ती है। हाल में चीन ने अपने फैसले से भारत के साथ तनातनी को मजाहिरा किया। पहला‚ उसने अरुणाचल प्रदेश के ११ जगहों के नाम चीनी भाषा में जारी किए। इस घोषणा का सीधा सा अर्थ इन भारतीय क्षेत्रों पर अपना दावा करना है। दूसरा‚ चीन में तैनात भारत के दो पत्रकारों को संदेश भेजा कि उनका चीनी वीजा रोक दिया गया है और वे चीन नहीं लौट सकेंगे। ये सारा घटनाक्रम यह बताने को काफी है कि भारत का अपने पड़़ोसी देश के साथ रिश्ता कितना तल्ख है। शायद चीन की इसी हनक का जवाब देने के लिए गृहमंत्री अमित शाह ने चीन से सटे सीमावर्ती इलाके का दौरा किया। शाह ने बिना लाग–लपेट के चीन को यह संदेश दिया कि भारत उसकी बंदरघुड़़कियों से ड़रने वाला नहीं है और भारत की सुई की नोक बराबर जमीन पर कोई कब्जा नहीं कर सकता है। चीनी समकक्ष के साथ भले भारतीय प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की आधिकारिक मुलाकातें होती रही हों‚ मगर संबंधों में सहजता का अभाव दिखता है। यहां तक कि लद्दाख में पैंगोंग झील में वर्ष २०२१ में दोनों सेनाओं के बीच हिंसक झड़़प के बाद कमांड़र स्तर की वार्ता भी रिश्तों को सामान्य नहीं बना सकी है। रह–रहकर चीन अपनी करतूतों से बाज नहीं आता है। शाह ने अरुणाचल प्रदेश जाकर और वहां से चीन को कड़े़ शब्दों में भारत की मंशा जताकर यह संदेश देने की भरसक कोशिश की है कि भारत को लेकर चीन को अब तो अपनी समझ का दायरा बढ़ाना चाहिए कि अब किसी दबाव में नहीं आने वाला। चीन की विस्तारवादी नीतियों और उसकी हमेशा पड़़ोसी देशों के प्रति आक्रामक तरीके से बर्ताव करना किसी भी सभ्य देश के बर्दाश्त के बाहर की चीज है। दरअसल‚ यह जरूरी भी था। चीन की कुटिल चाल का सही और सधे रूप में जवाब इसी तरह होना चाहिए। हां‚ सिर्फ जुबानी खर्च करने के बजाय कुछ केंद्र सरकार को सीमावर्ती इलाकों में आधारभूत संरचना को मजबूत करना होगा। वैसे‚ भारत ने इस दिशा में काम शुरू किया भी है। ‘वाइब्रेंट विलेज’ कार्यक्रम शुरू करने के पीछे यही मकसद है कि सीमा से लगते उन गांवों में बुनियादी ढांचा मजबूत हो। फिलहाल अरुणाचल‚ सिक्किम‚ उत्तराखंड़‚ हिमाचल और लद्दाख के कुल २‚९६७ गांवों को विकसित करने की योजना है।
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