आपराधिक मानहानि के मामले में दोषी ठहराए जाने के बाद शुक्रवार को लोकसभा सचिवालय ने राहुल गांधी को संसद की सदस्यता के लिए अयोग्य ठहरा दिया। राहुल की लोकसभा सदस्यता जाने के बाद से राजनीतिक बवाल शुरू हो गया है। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने विभिन्न शहरों में विरोध प्रदर्शन किया। बीजेपी नेताओं ने आरोप लगाया कि राहुल ने नरेंद्र मोदी के ओबीसी समुदाय को बदनाम करने की कोशिश की। कांग्रेस नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि फैसले को चुनौती दी जाएगी क्योंकि इसमें कई खामियां हैं। हम इसे सेशन कोर्ट और हाईकोर्ट में ले जाएंगे। मानहानि के संबंध में एक मूलभूत सिद्धांत यह है कि ये किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध होना चाहिए न कि सामान्य लहजे में कही गई बातों को इसका आधार बनाया जाए।
अभिषेक मनु सिंघवी कानून के जानकार हैं और उन्हें पता था कि फिलहाल जो कानून है उसके मुताबिक राहुल की सदस्यता छिननी तय है। दस जुलाई 2013 को लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि अगर किसी व्यक्ति को दो साल या उससे ज्यादा की सजा हो जाए तो वह संसद या विधानसभा का सदस्य नहीं रह सकता। कोर्ट ने तुरंत अयोग्यता का आदेश दिया था। डॉक्टर मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली तत्कालीन सरकार इसे बदलने के लिए एक अध्यादेश लाई। लेकिन राहुल गांधी ने यह कहकर उसका विरोध किया था कि ऐसे अध्यादेस को फाड़कर रद्दी की टोकरी में फेंक देना चाहिए। राहुल ने उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए शर्मनाक स्थिति पैदा कर दी थी।अब दस साल बाद राहुल को दो साल की सजा सुनाई गई है और सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उनपर लागू होता है। इसी फैसले के आधार पर उत्तर प्रदेश में विधानसभा सदस्य अब्दुल्ला आजम की सदस्यता खत्म हो चुकी है। अब्दुल्ला आजम को भी ट्रायल कोर्ट ने दो साल की सजा दी थी।
कांग्रेस अब इस लड़ाई को सियासी पिच पर लड़ना चाहती है। अब राहुल गांधी को मोदी के सबसे बड़े विरोधी के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाएगा। कांग्रेस के नेताओं की तरफ से बार-बार ये कहा जाएगा कि राहुल ही अकेले ऐसे नेता हैं जो नरेंद्र मोदी से नहीं डरते। राहुल गांधी ने अपनी सदस्यता गवां दी लेकिन माफी नहीं मांगी। मोदी का मुकाबला राहुल ही कर सकते हैं। लेकिन ये तो मानना पड़ेगा कि राहुल गांधी ने 10 साल पहले जो किया वही घूम फिरकर उनके सामने आ गया। अगर दस साल पहले उन्होंने मनमोहन सिंह के अध्यादेश का विरोध नही किया होता, उसे ‘पूरी तरह से बकवास’ नहीं बताया होता और उनकी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया होता तो सजा होने के बाद भी राहुल गांधी की संसद की सदस्यता को कोई खतरा नहीं होता।
पर उनके करीबी क्यों मान रहे बड़ा मौका
राहुल गांधी ने शुक्रवार को सदस्यता रद्द होने के कुछ घंटे बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर दी। उन्होंने ट्वीट कर कहा कि मैं भारत की आवाज के लिए लड़ रहा हूं। मैं हर कीमत चुकाने को तैयार हूं। यह ट्वीट उनकी प्रतिक्रिया से अधिक उनके सामने मौजूद सीमित विकल्पों को जाहिर कर रहा था।पिछले 24 घंटे में जिस तेजी से घटनाक्रम बदले और उसका जो प्रतिफल हुआ, उसके बाद राहुल गांधी के डेढ़ दशक से अधिक सियासी सफर में यह मेक या ब्रेक मोमेंट आ गया है। जानकारों के अनुसार राहुल गांधी के लिए आगे आने वाला समय बेहद चुनौतीपूर्ण है, लेकिन इसी में उनके पास खुद को विपक्षी खेमे में एक चैलेंजर के रूप में स्थापित होने का बड़ा मौका भी छिपा है। ऐसे में उनके सियासी सफर के लिए अगले कुछ दिन बेहद निर्णायक हो सकते हैं।
राहुल के एक करीबी नेता ने इस फैसले के बाद एनबीटी को बताया कि मोदी सरकार ने राहुल को वह सियासी जमीन दे दी, जिसका इंतजार उन्हें था। कहीं न कहीं राहुल गांधी के लिए अब बड़ा मौका आ गया है। उन्होंने संकेत दिया कि अगले कुछ दिनों में राहुल का काउंटर सामने आ जाएगा। उन्होंने संकेत दिया कि एक बड़ा कैंपेन राहुल के इर्द-गिर्द चलाया जा सकता है। भारत जोड़ो पदयात्रा का दूसरा चरण पहले से प्रस्तावित है। कांग्रेस को लगता है कि राहुल के लिए कानूनी जंग जरूर कठिन है, लेकिन सियासी तौर पर पार्टी और राहुल दोनों को नुकसान से अधिक लाभ देगा।
हालांकि मौके को भुनाना इतना भी आसान नहीं। अब तक राहुल गांधी की इसी बात के लिए आलोचना होती रही है कि वे मिले हुए मौकों को भुना नहीं पाते थे। भट्टा परसौल से भारत जोड़ा पदयात्रा के पहले चरण के अंत तक, उनके आलोचकों के अनुसार वह किसी मुद्दे पर शुरुआत तो करते हैं, लेकिन निरंतरता नहीं रख पाते। हालांकि राहुल ने पिछले कुछ दिनों से इस धारणा को बदलने की दिशा में मेहनत की है। भारत जोड़ा यात्रा की समाप्ति के बाद दूसरे चरण का ऐलान किया है। वह लगातार सक्रिय भी रहे। बीच में विदेश गए, तब भी वह वहां से खबरों में रहे। तो ऐसे में अब इस मुद्दे के बाद राहुल किस तीव्रता और निरंतरता से लोगों से कनेक्ट करते हैं, यह उनकी आगे की दिशा तय करेगी।
यही कारण है कि कांग्रेस को ब्रैंड राहुल पर मंथन और उन्हें देश की सबसे मुखर विपक्षी आवाज के रूप में भी स्थापित करने का मौका मिल रहा है। विपक्षी स्पेस में क्षेत्रीय दल राहुल की निरंतरता को लेकर सवाल उठाते हुए उनके नेतृत्व को खारिज करते रहे हैं। दो दिन पहले ही ममता बनर्जी ने ऐसा ही सवाल उठाया था। ऐसे में राहुल के करीबियों का मानना है कि अगर राहुल इस जंग को सियासी तौर पर लोगों तक ले जाने में सफल रहे तो यह बहस भी समाप्त हो जाएगी। इस मामले में राहुल गांधी को तमाम विपक्षी दलों के नेताओं का भी समर्थन मिला है। राहुल के करीबी नेता मिसाल देते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी जब गुजरात दंगे के बाद चारों ओर से घिरे हुए थे, तब उन्होंने इसके बीच से ही खुद को और मजबूत बनाकर निकाला। जिस पहलू को लेकर उन पर चौतरफा हमला हो रहा था, उसे उन्होंने अपना सबसे बड़ा सियासी हथियार बना लिया और यूपीए सरकार के सामने सबसे मजबूत चैलेंजर के रूप में उभरे। उन्होंने कहा कि इस बार फिर इतिहास दोहराया जाएगा और यह उनके पक्ष में जाएगा।
इस मुद्दे को अपने पक्ष में मोड़ना आसान नहीं
– सियासी तौर पर दोषसिद्धी और अयोग्यता के मुद्दे को अपने पक्ष में कर लेना राहुल के लिए इतना भी आसान नहीं। इसके पीछे पहला कारण है कि अभी भी उनका मुकाबला ब्रैंड मोदी से है जो अभी भी मजबूत है। ऐसे में इस स्थिति को इंदिरा गांधी वाली घटना से जोड़ना उतना तार्किक भी नहीं लगता है। तब तात्कालिक सरकार के खिलाफ नाराजगी शुरू हो चुकी थी।
– अंत में सबसे बड़ी बात होगी कि खुद राहुल कितनी ताकत से उतरेंगे और इसे अपने लिए अवसर मानेंगे। जैसा कि राहुल के एक करीबी नेता ने कहा, अंत में राहुल अधिकतर चीजें खुद तय करते हैं।
– दिलचस्प बात है कि जिस कानून के तहत राहुल की लोकसभा सदस्यता गई है, वह कानून राहुल गांधी के हस्तक्षेप के बाद ही 2013 में बना था, जब उन्होंने इससे राहत दिलाने से संबंधित यूपीए सरकार के ऑर्डिनेंस को सार्वजनिक मंच से फाड़कर अपनी असहमति दिखाई थी।