लोकसभा चुनाव से एक साल पहले बीजेपी ने बिहार में अपना चेहरा बदल दिया है। कुशवाहा जाति से आने वाले सम्राट चौधरी को पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष की कमान दी है। इसे बीजेपी का मास्टर स्ट्रोक बताया जा रहा है।
राजनीति के जानकार कहते हैं कि सम्राट चौधरी के माध्यम से बीजेपी एक तरफ ओबीसी समाज को साधने की कोशिश की है तो दूसरी तरफ नीतीश कुमार के लव-कुश गठजोड़ में सेंधमारी भी करेगी।
सम्राट चौधरी मात्र 5 साल पहले 2018 में जेडीयू से बीजेपी में शामिल हुए थे। इस दौरान इन्हें पहले पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया। 2020 में एनडीए की सरकार बनी तो उन्हें पंचायती राज मंत्री बनाया गया।
2022 में एनडीए की सरकार टूटी तो पार्टी ने उन्हें विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष बनाया। अब पार्टी ने सम्राट चौधरी को बड़ी जिम्मेदारी दी है।
1. कुशवाहा के बहाने ओबीसी समाज को साधने की कोशिश
बिहार में बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती ओबीसी को साधना है। पार्टी जानती है कि यहां उनका सीधा मुकाबला महागठबंधन की पार्टियों से है, जिनका सबसे बड़ा जनाधार ओबीसी और मुस्लिम हैं। इस स्थिति में सम्राट चौधरी को प्रदेश की कमान सौंपकर ओबीसी को साधने की कोशिश की गई है।
सम्राट चौधरी कुशवाहा समाज से आते हैं। बिहार में यादव के बाद कुशवाहा समाज की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है। यहां कुशवाहा और कुर्मी मिलाकर लगभग 12% वोट है। इसमें कुर्मी 2-3% हैं, बाकी 9-10 प्रतिशत कुशवाहा हैं। 2005 से लगातार ये वर्ग नीतीश कुमार का साथ देते रहे हैं। बीजेपी इसमें सेंधमारी करने में जुट गई है।
कुशवाहा समाज से ताल्लुक रखने वाले उपेंद्र कुशवाहा पहले ही नीतीश कुमार से अलग हो गए हैं। उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली है। वे बीजेपी को समर्थन का संकेत दे रहे हैं। नीतीश के करीबी रहे आरसीपी सिंह भी अलग हो गए हैं और खुद को कुर्मी नेता बता कर कोइरी-कुर्मी समाज में सेंधमारी करने में जुटे हैं।
2. मुखर नेता होने का मिला लाभ, नीतीश पर सीधा हमला करते हैं
वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी कहते हैं कि सम्राट चौधरी को मुखर होने का इनाम मिला है। चौधरी अपने विपक्षियों के प्रति कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। महागठबंधन की सरकार बनने के बाद वे सीधा नीतीश कुमार पर हमलावर हैं।
बीजेपी के नेता आलोचना भी करते हैं तो संतुलित तरीके से। बागी कहते हैं कि बिहार में फिलहाल अब इस तरह की राजनीति का दौर नहीं रहा है। ऐसे में सम्राट चौधरी इस पद के लिए फिट बैठते हैं।
अब तीन पाॅइंट में समझिए सम्राट चौधरी के सामने प्रदेश अध्यक्ष के रूप में चुनौती
1. भाजपा के मूल कैडर को अपने साथ जोड़ पाना
सम्राट चौधरी बिहार के वैसे नेता हैं, जो सभी प्रमुख राजनीतिक दलों में रह चुके हैं। वे सबसे पहले आरजेडी में गए। 2014 में आरजेडी छोड़कर जेडीयू में शामिल हुए। इसके बाद 2018 में बीजेपी में शामिल हुए। बीजेपी में बाहरी लोगों को इतने बड़े पद देने का रिवाज कम है।
ऐसे में उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने पर कैडर के नेताओं में नाराजगी हो सकती है। पार्टी में कई नेता हैं, जो वर्षों से पार्टी के साथ जुड़े हैं और इस पद के लिए दावेदरी पेश कर रहे थे। सम्राट चौधरी को संतुलित तरीके से पार्टी के मूल कैडर को साथ लेकर बढ़न होगा।
2. कुशवाहा समाज में पैठ बनाने के साथ सवर्ण को बिखरने से रोकना
सम्राट चौधरी के सामने एक बड़ी चुनौती कुशवाहा समाज के वोटर्स को पार्टी के साथ जोड़ना होगा। उनके सामने उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार जैसे क्षत्रप हैं, जो वर्षों से इस समाज के नेता हैं। सम्राट चौधरी का दायरा भागलपुर और मुंगेर के इलाके तक सीमित था।
अब उन्हें राज्य भर में इस जाति से जुड़ना होगा। इसके साथ ही सवर्ण वोट, जो बीजेपी का कोर वोट बैंक माना जाता है। उन्हें बिखरने से रोकना भी बड़ी जिम्मेदारी होगी।
3. लोकसभा में पार्टी को ज्यादा से ज्याद सीटों पर जीत दिलाना
सम्राट चौधरी के सामने सबसे पहला चुनाव 2024 का लोकसभा है। वरिष्ठ पत्रकार अरुण पांडेय कहते हैं कि 40 सीटों वाले लोकसभा चुनाव में बीजेपी हमेशा नीतीश कुमार को चेहरा बनाकर चुनाव लड़ती रही है। अब भी नीतीश की पार्टी जेडीयू के पास 16 सांसद हैं।
सम्राट चौधरी के सामने सबसे बड़ी चुनौती चेहरे की क्राइसिस को दूर करना होगा। बिहार बीजेपी को अपना चेहरा एस्टैब्लिश करना के साथ साथ ज्यादा सीटों पर जीत दर्ज कराना होगा। इसके बाद 2025 में बिहार विधानसभा का चुनाव भी है।
तय उम्र नहीं होने के बाद भी राबड़ी सरकार में बन गए थे मंत्री
सम्राट चौधरी 1990 से राजनीति में सक्रिय हैं। 10 साल बाद 2000 में सम्राट कम उम्र में विधायक बन गए थे। तब राबड़ी सरकार में उन्हें माप तौल मंत्री बनाया गया था, लेकिन उम्र कम होने की वजह से उनके नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया गया था। वे 2000 और 2010 में परबत्ता विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े और निर्वाचित हुए।
साल 2010 में विधानसभा में विपक्षी दल के मुख्य सचेतक बनाए गए। इसके बाद एनडीए सरकार में जेडीयू कोट से 2014 में शहरी विकास और आवास विभाग मंत्री बनाए गए। 2018 में वे जेडीयू छोड़ बीजेपी में शामिल हुए।
पिता की सियासी विरासत से सम्राट को मिलेगा लाभ
पॉलिटिकल एक्सपर्ट कहते हैं कि सम्राट चौधरी वर्तमान में बड़े नेता के रूप में उभरे हैं। उनके पिता शकुनी चौधरी भी राज्य के कद्दावर नेता थे। कुशवाहा समाज में उनकी अपनी पैठ थी। यही कारण है कि वे 7 बार विधायक रहे।
राज्य सरकार में मंत्री बने। इसके बाद सांसद भी चुने गए। वे राजद और जेडीयू दोनों दलों में रहे थे। पिता के अलावा उनकी मां पार्वती देवी भी तारापुर से विधायक रह चुकी हैं। सम्राट को पिता की विरासत का लाभ मिलेगा।
सत्ता परिवर्तन के साथ ही संगठन में बदलाव पर लग गई थी मुहर
अगस्त महीने में बिहार में सत्ता से हटने के बाद बीजेपी की दिल्ली में कोर कमेटी की बैठक हुई थी। इसमें गृह मंत्री अमित शाह, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत बिहार के सभी वरिष्ठ नेता मौजूद थे।
इस बैठक में संगठन को मजबूत करने और बड़े बदलाव पर सहमति बनी थी, लेकिन लगातार तीन उपचुनाव (गोपालगंज, मोकामा कुढ़नी) के कारण संगठन में बदलाव टल रहा था। प्रदेश अध्यक्ष की रेस में दीघा विधायक संजीव चौरसिया के साथ साथ एमएलसी प्रमोद चंद्रवंशी का नाम भी शामिल था।