पिछले एक सप्ताह की ‘मीडिया स्टडी’ की जाए और राहुल द्वारा लिए गए ‘कुल टीवी टाइम’ का आकलन किया जाए तो मालूम होगा कि जितना टीवी टाइम अकेले राहुल ने लिया है उतना न किसी अन्य विपक्षी नेता ने लिया है‚ और न किसी अन्य दल ने लिया है। इसें हम राहुल और कांग्रेस की नई ‘मीडिया रणनीति’ कह सकते हैं कि रोज कुछ ऐसा कहो कि चरचा में रहो और इस तरीके से कहो कि विवाद के केंद्र में रहो और इसी तरह राजनीति का एजेंडा सेट करते रहो और सत्ता पक्ष को जबाव देने के लिए मजबूर करते रहो।
अपने लंदन प्रवास में राहुल ने हर दिन कुछ ऐसा कहा है जो मीडिया में छाया रहा है और हर खबर चैनल बार–बार बजाता रहा है कि उनने ये कहा वो कहा। और कभी–कभी तो यह सब इतना अधिक दुहरा है कि हमारे जैसे दर्शक बोर होकर चैनल बदलने पर मजबूर हुए हैं और वहां भी ऐसे ही सुर बजते दिखे हैं। ‘भारत जोडो यात्रा’ से पहले भी राहुल ऐसा कर चुके हैं और तब भी मीडिया ने उनको पूरी तवज्जो दी थी‚ तब भी सत्ता पक्ष ने उनकी उसी तरह से आलोचना की जैसी कि वह करता रहा है जैसे कि वे राजनीति के मामले में परिपक्व नहीं हैं‚ कि वे जो चाहे बिना सोचे बोल देते हैं‚ और बाद में माफी मांग लेते हैं‚ कि उनको गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए.राहुल के नये मीडिया सलाहकार जान गए हैं कि उन्हें लोगों की नजरों में नये सिरे से जमाना है तो उनको ज्यादा से ज्यादा अधिकाधिक समय तक मीडिया में रहना चाहिए।
इस ‘मीडिया नीति’ बडा प्रयोग ‘भारत जोडो यात्रा’ के दौरान किया गया। राहुल हर रोज कुछ न कुछ ऐसा बोलते कि निरंतर ‘विवादास्पद’ बने रहे। विवाद में बने रहने की इस नीति के कई फायदे हैं। मसलन‚ पहले अपने ‘कहे’ और ‘किए’ से मीडिया में चरचा में रहो क्योंकि मीडिया ‘विवादास्पद’ को पहले पकडता है क्योंकि वही सबसे अच्छा बिकता है। आपने कुछ ऐसा वैसा कहा नहीं कि मीडिया ने विवादास्पद बनाया नहीं। फिर मीडिया ऐसे ‘कथनों’ व ‘ट्वीटों’ को बार–बार दिखाता है‚ उन पर चरचा कराता है। इस तरह जितनी देर ‘विवादकर्ता’ मीडिया में रहता है‚ वह जनता की नजरों में बना रहता है। अगर सत्ता पक्ष उसकी आलोचना करता है तो भी विवादकर्ता चरचा में बना रहता है। असली चीज है ‘नजरों में रहना।’ याद करें‚ कुछ पहले राहुल ने ‘राफेल खरीद’ को अपने हमले का केंद्रीय मुद्दा बनाया और जितनी देर बनाया उतनी देर वे विवाद के विषय बने रहे। इन दिनों वे ‘अडाणी’ को मुद्दा बनाए हैं। राफेल को लेकर भी आरोप लगाया था कि उसमें भ्रष्टाचार हुआ है‚ कि जांच हो.ये अलग बात है कि उसमें कुछ न निकला। लेकिन राफेल का विवाद जितने दिन रहा वे मीडिया में रहे। उनका शायद यही अभीष्ट था। इन दिनों मीडिया का अपने पक्ष में जैसा उपयोग राहुल कर रहे हैं वैसा भाजपा या अन्य दल नहीं कर पा रहे।
जरा सोचें कि बाकी दल का कौन सा नेता कितनी देर तक मीडिया में रहा‚ कितनी बार खबर बनाई और विवाद के केंद्र में कितनी देर रहाॽ सिर्फ ममता बनर्जी इसका अपवाद रहीं। बंगाल के चुनाव के दौरान सबसे अधिक ‘टीवी टाइम’ ममता जी ने लिया। उनके पैर की चोट ने उनको मीडिया की हमदर्दी का पात्र बनाया और फिर उनका रोज का तकिया कलाम कि ‘खेला हौबे’ ने और फिर उनके चोटिल पैर से फुटबाल को किक लगाने ने और साथ ही उनके चुटीले वचनों ने उनको मीडिया का प्रिय नेता बना दिया। कहने की जरूरत नहीं कि उनकी जीत में अन्य बहुत से पहलुओं से एक बडा पहलू मीडिया में उनकी ‘फाइटर छवि’ का नजरों में बने रहना भी रहा। साफ है कि इन दिनों राहुल और उनकी टीम की सारी राजनीति ‘नजरों में बने रहने’ की राजनीति है। इस ‘मीडिया राजनीति’ का मूल सूत्र है कि मीडिया में हर समय छाए रहिए‚ कुछ ऐसा वैसा कहते रहिए जो सत्ता पक्ष को चुभने वाला हो‚ तंग करने वाला हो‚ चिढाने वाला और कुछ हद तक उसे आपत्तिजनक लगे ताकि वह अपनी प्रतिक्रिया देने को मजबूर हो। प्रतिक्रिया देते ही जो कहा जाएगा तुरंत विवाद में आ जाएगा और विवाद में आते ही ‘विवादकर्ता’ सबकी नजरों में छा जाएगा। साफ है असली खेल अधिकाधिक समय तक नजरों में बने रहने का है। राहुल ने इसे सीख लिया है। अब भाजपा को सीखना है कि वह और उसके नेता भी लोगों की नजरों में छाई रहें।
इन दिनों राहुल और उनकी टीम की सारी राजनीति ‘नजरों में बने रहने’ की राजनीति है। इस ‘मीडिया राजनीति’ का मूल सूत्र है कि मीडिया में हर समय छाए रहिए‚ कुछ ऐसा वैसा कहते रहिए जो सत्ता पक्ष को चुभने वाला हो‚ तंग करने वाला हो‚ चिढाने वाला और कुछ हद तक ,आपत्तिजनक लगे