बहुत संभव है कि जब आप ये पंक्तियां पढें‚ होली के रंगों में डूबे हुए हों–आपादमस्तक यानी सिर से पांव तक–और आपकी आंखों में कभी बांकेबिहारी‚ कभी अवधबिहारी‚ कभी बाबा विश्वनाथ तो कभी संत वारिस अली शाह की अलबेली होलियों के दृश्य नाच रहे हों। यह भी हो सकता है कि मस्ती में खोए हुए याद करके कुछ ज्यादा ही तरंगित और आनंदित हुए जा रहे हों कि अलग–अलग रूप–रंगों और नामों से ही सही‚ उल्लास का यह पर्व विदेश में भी कम उत्साह और उमंग से नहीं मनाया जाता।
अपने बहुभाषी–बहुधर्मी देश में कई दूसरे त्यौहारों की ही तरह होली और उससे जुड़े हुड़दंगों और ठिठोलियों के भी अनेक रूप–रंग हैं। इनमें कुछ परंपरा‚ आस्था और भक्ति की देन हैं‚ तो कुछ खालिस हास–परिहास‚ उल्लास‚ उमंग और शोखियों के जाए। इनके दीदार का शौक फरमाने वाले कद्रदान कई बार यह देखकर दांतों तले उंगलियां दबा लेते हैं कि ये कितने बहुरु पिये हैं–ब्रज के बरसाना में जाकर लट्ठमार हो जाते हैं‚ तो अवध में पहुंच कर गंगा–जमुनी और वाराणसी में चिताओं की भस्म से भी परहेज न करने वाले। प्रसंगवश‚ अवधबिहारी राम की राजधानी अयोध्या ओर बाबा विश्वनाथ की वाराणसी‚ दोनों में होली का हुड़दंग होलिका दहन से पांच दिन पहले शुरू होता है–रंगभरी एकादशी के दिन से ही। अयोध्या में इस दिन नागा साधु सबसे पहले हनुमानगढ़ी में विराजमान हनुमंतलला के साथ होली खेलते हैं‚ फिर उनके निशान के साथ अयोध्या की पंचकोसी परिक्रमा पर निकल पड़ते हैं। यह परिक्रमा वास्तव में सारे मठों–मंदिरों को रंगोत्सव में शामिल होने का निमंत्रण होती है। फिर तो सारा संत समाज नगर की सड़कों पर या गलियों में निकल आता है‚ और सारे भेदभाव भूलकर पांच दिन रंगों और तरंगों में डूबता–उतराता रहता है।
बाबा विश्वनाथ की वाराणसी में होली बाबा के मिजाज के अनुसार ही अड़भंगी है–साथ ही राग–विराग‚ दोनों से भरी। दरअसल‚ यह इकलौती नगरी है‚ जहां धधकती चिताओं के बीच उनकी भस्म से होली खेली जाती है‚ और महाश्मशानघाट मणिकर्णिका से नगरी की संकरी गलियों तक में हुड़दंग का हर रंग निराला होता है। इस गीत के साथ–खेलैं मसाने में होरी दिगंबर‚ खेलैं मसाने में होरी!.लखि सुंदर फागुनी छटा के‚ मन से रंग–गुलाल हटा के चिता भस्म भरि झोरी.दिगंबर खेलैं मसाने में होरी।–हां‚ यहां हुरियारे सबसे पहले बाबा विश्वनाथ से ही होली खेलते हैं–उन्हें अबीर–गुलाल‚ रंगों से नहला कर। कोई आठ साल पहले इस होली में तब एक नया आयाम जुड़ा‚ जब वृंदावन की तरह वाराणसी के विभिन्न आश्रमों में बेरंग और बेनूर जीवन यापन को अभिशप्त विधवाओं ने भी अस्सी घाट पर आकर होली खेली। वे गंगा में नौका विहार करती हुई काशी के अस्सीघाट पर जमा हुइ–उसी अस्सी घाट पर जहां‚ कहा जाता है कि संवत १६८० की श्रावण शुक्ला सप्तमी को संत तुलसीदास ने अपना शरीर तजा था।
इस होली में विधवाओं ने कुछ देर को ही सही खुद पर आरोपित उन सारी बंदिशों को ठेंगा दिखाया जो उन्हें हर्ष और उल्लास के सारे अवसरों या उत्सवों में शामिल होने से रोकती आई हैं। एक दूजे पर फूल बरसाए‚ अबीर–गुलाल लगाया‚ झूम–झूम कर फाग गाया‚ बेलौस होकर नाचीं‚ होली खेली और कुछ देर को ही सही वैधव्य के ऊँचे पहाड़ से उतर कर जीवन के समतल पर आइ। अकारण नहीं कि होली को बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व माना जाता है तो ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ का अवसर भी। इसलिए कि यह खेतों में पकी फसलों को काटकर घर लाने और उनके अनाज का स्वाद लेने के मौसम में आता है। तब‚ जब शीत–ग्रीष्म ऋतुएं परस्पर गलबहियां कर रही होती हैं। होली आम लोगों को तो लुभाती ही है‚ कवियों और साहित्यकारों को भी ललचाती है। उन्होंने भी इसके खूब गुन गाए हैं। कई ने इसे शीत–ग्रीष्म ऋृतुओं के मिलन की संधि–वेला‚ मदनोत्सव और बसंत के ऐसे विलक्षण प्रेमाख्यान के पर्व के रूप में व्याख्यायित किया है‚ जो किसी को भी बेगाना नहीं रहने देता। इसके लिए चाहे कितनी भी वर्जनाएं और बंदिशें क्यों न तोड़नी पड़ें। अवध की होली की गंगा–जमुनी रंगत का जादू तो कुछ ऐसा है कि क्या गांव–क्या शहर‚ क्या गली–क्या मोहल्ले और क्या चैराहे‚ रंगे–पुते चेहरों वाले हुड़दंग मचाते हुरियारे किसी को भी अपनी जाति या धर्म याद नहीं करने देते।
होली को यह रंगत‚ कहते हैं‚ पहले पहल सूबे के तीसरे नवाब शुजाउद्दौल ने अपनी तत्कालीन राजधानी फैजाबाद में बख्शी थी। उनके निधन के बाद १७७५ में उनके पुत्र आसफउद्दौला ने सूबे की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित की तो भी इसे कायम रखा। नवाब सआदत अली खां ने होली के आयोजनों के लिए शाही खजाने से धन देने की परंपरा शुरू की। होली पर कई ठुमरियां लिखने वाले नवाब वाजिद अली शाह को तो कृष्ण बन कर होली खेलने का शौक भी था। एक बार होली और मुहर्रम एक ही दिन पड़ गए और होली की खुशी और मुहर्रम के मातम के बीच चुनाव की नौबत आ गई तो लखनऊ के कई अंचलों में हुरियारों ने होली न खेलने का फैसला कर लिया। इस पर वाजिद अली शाह ने कहा कि अगर हिंदू इस भावना से होली नहीं मना रहे कि कहीं मुसलमानों की मुहर्रम से जुड़ी भावनाओं को ठेस न पहुंच जाए‚ तो मुसलमानों का भी फर्ज है कि हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करें।’ फिर उन्होंने बिना देर किए ऐलान करा दिया कि अवध में न सिर्फ मुहर्रम के ही दिन ही होली मनाई जाएगी‚ बल्कि वे खुद भी उसमें हिस्सा लेने पहुंचेंगे। उन्होंने सबसे पहले रंग खेला।
अंग्रेजों द्वारा उन्हें सत्ता से बेदखल कर देने के बाद १८५७ का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ और उनके अवयस्क बेटे बिरजिस कद्र की ताजपोशी के साथ सूबे की बागडोर बेगम हजरतमहल के हाथ आई तो उन्होंने अवधवासियों को एकता के सूत्र में जोड़े रखने के लिए न सिर्फ होली‚ बल्कि ईद‚ दशहरे और दीवाली को भी गंगा–जमुनी स्वरूप प्रदान किया। लखनऊ के समीपवर्ती बाराबंकी जिले में स्थित संत हाजी वारिस अली शाह की दरगाह में सूफियाना मिजाज वाली बहुधर्मी होली के रंग भी कुछ कम निराले नहीं होते। इसमें रंग और गुलाल ही नहीं उड़ते‚ मिठाइयां–पकवान भी बांटे जाते हैं। अवध ही नहीं‚ यह देश की इकलौती दरगाह है‚ जहां होली पर जुलूस निकाल कर जश्न मनाया जाता। ‘जो रब है‚ वही राम है’ का संदेश दिया जाता है। यह भी कि दीन को मानकर जो झगडे हैं‚ दीन को जानकर नहीं होते।