अपने टीवी का एक बडा फीचर है ‘चरचा’ या ‘बहस’ या ‘डिबेट’। दैनिक राजनीतिक‚ सामाजिक और सांस्कृतिक टॉपिकों पर आयोजित ऐसी बहसें पब्लिक को राजनीतिक रूप से सजग करती हैं। ऐसी बहसें खबरों के भीतर की परतों को‚ उनके दबे छिपे इशारों और राजनीतिक फलितार्थों को खोलने वाली होती हैं। और चूंकि अपना समाज परंपरा से भी शास्त्राार्थ–प्रेमी है‚ इसलिए भी ऐसी बहसें आकर्षित करती हैं।
यों खबर जरा सी होती है‚ लेकिन उसके निहितार्थ बडे होते हैं‚ जिनको ये चरचाएं खोलती हैं‚ और इसीलिए लोकप्रिय होती हैं। खबर तो एक–दो लाइन में निपट जाती है‚ लेकिन स्पर्धात्मक राजनीति में खबर की एक लाइन भी कई बार आग लगाने वाली बन जाती है। ट्विटर इसमें काफी मददगार हैं। फिर यह सुनियोजित राजनीति का जमाना है। कौन सी तीखी बाइट कैसा असर पैदा करेगी‚ किसे फायदा होगा आदि सब पूर्व नियोजित होता है।
टीवी बहसों में अक्सर प्रवक्ता भाग लेते हैं। ये एक प्रकार के ‘राजनीतिक ग्लेडिएटर’ होते हैं‚ जो अपने दल की लाइन और नेता को हर हमले से बचाते हैं और प्रति–हमले से काम लेते हैं। इसीलिए बहसों में अक्सर तू–तू मैं–मैं होने लगती है। यों बहस का फॉरमेट भी मिनट और सेकिंड के टाइम स्केल में काम करता है। बीस–पच्चीस मिनट की बहस में चार–पांच प्रवक्ताओं को मुश्किल से तीन–चार मिनट नसीब होते हैं। इसी लिमिटेड टाइम में उनको कुश्ती मारनी होती है। चतुर प्रवक्ता अक्सर दूसरों को बीच में काटकर अपनी पेलने लगते हैं‚ और जब एंकर उसे टोकता/टोकती है‚ तो हारता हुआ प्रवक्ता उसी पर चढ बैठता है कि तुम पक्षपात करते हो‚ तुम बिके हुए हो‚ तुम उन/इनके दलाल हो.। बहसों का वर्तमान रूप हमारी दैनिक छीनझपट की राजनीति का ही प्रतिबिंब है। ज्यों–ज्यों हमारी राजनीति तीखी स्पर्धा के दौर में आई है त्यों–त्यों बहसें ‘तू–तू मैं–मैं’ वाले ‘वाग्युद्ध’ में बदलने लगी हैं।
कई बार तो ऐसी चरचाएं फ्री स्टाइल वाली कुश्ती में बदल जाती हैं। कई चैनल भी ऐसी ‘तू–तू मैं–मैं’ को होने देते हैं। वे मानते हैं कि जितना ‘तू–तू मैं–मैं’ होगी‚ उतना ही बहस हिट होगी लेकिन कई बार यह ‘तू–तू मैं–मैं’ बदतमीजी‚ गालीगलौज में और धमकी में बदल जाती है। इस टिप्पणीकार ने कई दफा ऐसी बहसें देखी हैं‚ जिनमें एंकर को कोई प्रवक्ता व्यर्थ में डांटे जा रहा है‚ उसके चैनल पर दोषारोपण किए जा रहा है जबकि एंकर ने उससे सिर्फ निरुत्तर करने वाला एक मासूम सा सवाल भर पूछा है।
आज की स्पर्धात्मक राजनीति में न तो कोई दल पूरी तरह देवता है‚ न पूरी तरह दानव है। एंकर को सब पता होता है। ऐसे में कई बार एंकर किसी प्रवक्ता के दल की जब दुखती रग को छू लेता है‚ तो उसे तुरंत शाप का भागी बनना पडता है। जो प्रवक्ता हर समय अपनी ‘आजादी पर खतरा’ चिल्लाते हैं‚ वही एंकरों को धमकाते दिखते हैं। अपने कल्पित फासिज्म से लडते–लडते कुछ प्रवक्ता खुद फासिस्ट से बन जाते हैं। ऐसे कलह भरे और धमकी भरे सीनों के लिए वही प्रवक्ता जिम्मेदार होते हैं‚ जो जमीन पर हारे होते हैं। वे टीवी में हावी होकर अपने को जीता हुआ समझते हैं। ऐसे प्रवक्ताओं के नेतृत्व को समझना है कि हर समय क्षुब्ध और क्रुद्ध दिखते प्रवक्ता दलों को फायदे की जगह नुकसान अधिक पहुचाते हैं। आम आदमी तर्क और कुतर्क का भेद जानता है‚ जो प्यार से समझाता है। लोग उसे पसंद करते हैं‚ जो बहस में झल्लाता है‚ उसे नापसंद करते हैं। हर समय नाराज दिखने वाला प्रवक्ता अपने ही दल और नेता की छवि खराब करता है।
तर्क का जवाब तर्क से दिया जाए तो ठीक लगता है। तथ्य का जवाब तथ्य से दिया जाए तो सटीक लगता है। व्यर्थ की चीत्कार–फूत्कार‚ एंकर की डांट–डपट को देख लगता है कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। ऐसे प्रवक्ताओं को चाहिए कि वे मीडिया को ‘मीडियम’ की तरह ही लें। उस पर सवारी न गांठें‚ अगर वे मीडिया को अपने डंडे से हांकना चाहेंगे तो अपने दल और नेता का ही नुकसान करेंगे। ध्यान रहे‚ टीवी से कुछ नहीं छिपता। वह सबको एक्सपोज करता चलता है। इधर आप गुस्सा करते किसी एंकर पर बरसते दिखे और उधर आप आम दर्शक की नजरों में गिरे और खल बने।
टीवी पर दिखते ‘प्रीतिकर’ चेहरे मोहते हैं जबकि ‘अप्रीतिकर’ चेहरे ‘बोर’ करते हैं। गुस्से से तमतमाए चेहरे टीवी के सबसे अप्रीतिकर चेहरे होते हैं। जो प्यार से समझाता है‚ वो पसंद आता है। जो झल्लाता है‚ नापसंद होता है।