आजकल कानून और नियम–कायदे को अपने तरीके से परिभाषित करने का चलन तेजी से बढ़ा है। चाहे राजनीतिक पार्टियां हों‚ समाजसेवा में लगे संगठन हों या जाति या धर्म के आधार पर बने संगठन। ताजा मामला मोनू मानेसर के समर्थन में गुरुग्राम में आयोजित महापंचायत का है। पिछले हफ्ते मंगलवार को आयोजित इस जुटान में २००–३०० लोग मानेसर के समर्थन में जुटे।
ऐसे आयोजन का सीधा सा मतलब यही निकलता है कि वो सत्ता प्रतिष्ठान को चुनौती देते हैं‚ कानून–व्यवस्था को दोयम दर्जे का समझते हैं‚ नियमों की अवहेलना करते हैं और सही को गलत कहने का भौंड़ापन दिखाते हैं। दो मुस्लिम युवकों को पहले पीटने फिर जलाकर मार देने का कायराना काम मोनू मानेसर और उसके साथियों ने किया। ऐसे संकेत राजस्थान पुलिस की जांच में भी सामने आए हैं। सवाल यही कि जब मानेसर का नाम पुलिस की तफ्तीश में सामने आया है तो फिर कानून को अपना काम करने दिया जाए। ऐसी महापंचायतें सिर्फ और सिर्फ कानून के रास्ते में रोड़़ा अटकाने का काम करती हैं‚ सत्ता के इकबाल को चुनौती देती हैं और गलत लोगों के धत्कर्म को वाजिब ठहराने का माहौल बनाती हैैं। चुनांचे‚ सरकार और न्यायपालिका‚ दोनों को ऐसे आयोजनों पर अंकुश लगाने का काम करना चाहिए। जब तक प्रशासन या सरकार का समर्थन या सॉफ्ट कॉनर्र ऐसे संगठनों के साथ रहेगा‚ पीडि़़त को न्याय मिलना दूर की कौड़़ी साबित होगा। गुरुग्राम में मोनू के हक में जो स्वर उठे हैं‚ वो दरअसल कानून–व्यवस्था को सीधे चुनौती देने सरीखा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। जुनैद और नासिर की मौत वाकई दर्दनाक है।
कम–से–कम लोगों को पुलिस की जांच पर तो भरोसा करना ााहिए। दलगत आधार पर अगर पुलिस को बांटा गया तो इसका दुष्प्रभाव न केवल हम और आप‚ बल्कि आने वाली पीढ़ी भी भुगतेगी। राजस्थान पुलिस की कार्रवाई को भाजपा शासित राज्य की पुलिस बताकर ऐसी महापंचायत संविधान का अनादर कर रही हैं। अगर इस चलन को तत्काल बंद नहीं किया गया तो देश में किसी को भी न्याय मिलना दूभर हो जाएगा। अपराधियों की असली जगह जेल होती है‚ अगर उन अपराधियों और समाज विरोधी तत्वों को भीड़़ जुटाकर गोलबंदी की जाएगी और सरकार को दबाव में लेकर बचाने का प्रयास होगा तो यह न्याय के साथ अन्याय होगा।