विश्व की सबसे प्राचीन भारत की सनातन परंपरा ने समाज के सभी वर्गों में सहयोग‚ समन्वय‚ सामंजस्य और मैत्री भाव स्थापित करने के लिए कालांतर में कई मानक स्थापित किए। वर्ण व्यवस्था से लेकर जातीय समीकरण इन्ही मापदंडों के तहत है। इनमे किसी वर्ग विशेष का न तो कोई महkव है और नहीं कोई योगदान। वैदिक काल में जिन विद्वानों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया‚ वे ब्राह्मण कहलाए। उस समय सबके लिए किसी भी वर्ण में स्थापित होने का मार्ग खुला था।
कालांतर में जब वर्ण व्यवस्था (समाज) सभी वर्गों को समायोजित करने में छोटी पड़ने लगी तो तात्कालिक चिंतकों के विचार–विमर्श से जातीय व्यवस्था बनाई गई। जातीय व्यवस्था भारतीय समाज के चिंतन से उपजी है। इसमें ब्रह्मण या किसी अन्य वर्ग का कोई योगदान नहीं है। जो लोग भारतीय समाज की जातीय व्यवस्था की उच‚ नीच और छोटा‚ बड़ा की बात कहकर आलोचना करते हैं‚ वो समाज के समन्वय धरातल को नहीं पहचानते। दुनिया के सभी समाज में जातीय व्यवस्था है। भारत के अलावा दुनिया की किसी व्यवस्था में समन्वय और सहयोग की स्थिति नहीं है। भारत की कृषि से लेकर विवाह जैसे मांगलिक कार्यों में सभी जातियों का सहयोग होता है। इसी प्रकार यज्ञ तथा बड़े धार्मिक आयोजनों में भी सभी को सहभागिता होती है। समय के साथ सभी व्यवस्थाओं में कुरीतियां आती है‚ लेकिन भारतीय समाज ने उसमे समय के साथ सुधार का कदम भी उठाया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत का एक बयान आज कल काफी चर्चा में है। भागवत ने कहा कि जाति व्यवस्था ब्राह्मणों ने बनाई। इससे ब्राह्मण वर्ग के साथ जातीय समीकरण के लोग अपना ज्ञान बता रहे हैं। असल में किसी अज्ञानता के लिए कोई जिम्मेदार नहीं होता। भागवत भारतीय समाज की अवधारणा और जातीय व्यवस्था के जानकार नहीं है। संघ प्रमुख होने से वह हिंदुत्व के भी विशेषज्ञ नहीं हैं। भागवत की अल्पज्ञता नाराजगी का विषय नहीं है। कभी कभी बड़े पद पर आसीन व्यक्ति को यह एहसास होता है कि वह सर्वज्ञ है और वह जो कुछ भी कहेगा‚ वही माना जाएगा। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि बड़े पद पर बैठे व्यक्ति की वाणी नियंत्रित और व्यवहार संयमित होना चाहिए। देश में कुछ ऐसे ही लोगों की वाणी से सामाजिक दुर्व्यवहार की घटनाएं होती हैं। बात जातीय व्यवस्था की हो रही है। जातीय व्यवस्था से किसी वर्ग विशेष का नहीं कोई योगदान है और नहीं कोई प्रभाव। भारतीय समाज में जातीय व्यवस्था से पहले वर्ण व्यवस्था थी। सबसे पुराने ऋग्वेद के पुरु ष सूक्त में वर्ण व्यवस्था का जिक्र आता है। इसमें सृष्टि एवं ब्रह्मांड की तुलना एक महापुरु ष से की गई है। ‘ब्राह्मणों असी मुखम आसिद‚ बाहू राजन्य कृत‚ उरू तदस्य यद वैश्य‚ पदाभियाम शुद्रो अजायत।’ अर्थात इस महापुरु ष के मुख से ब्राह्मण‚ बाहों से क्षत्रिय‚ इसे राजन कहा गया है‚ उरू यानी की मध्य भाग जिसे पेट भी कहते हैं‚ से वैश्य और पैर से शुद्र पैदा हुए। वेद में आगे चल कर इसकी विस्तृत व्याख्या हुई है। बहरहाल‚ ऋग्वेद शुद्र को समाज का सबसे महत्वपूर्ण बताता है। पहले तीन वर्ण के क्रियाकलाप एक दायरे में सीमित हैं‚ लेकिन इन तीनों की देखभाल करने की जिम्मेदारी शुद्र की है। शुद्र की महत्ता को देखते ही पैर पूजने की बात कही गई है। कभी भी मुख‚ बाह और पेट पूजने का जिक्र नहीं है। विश्व की किसी व्यवस्था में समाज में ऐसा तारतम्य नहीं है। कई शुद्र समाज के लोग अच्छे शिक्षक के साथ आध्यात्मिक चेतना के पुरोधा रहे तो बहादुर योद्धा और कुशल व्यापारी भी रहे। भारतीय समाज ऐसी विभूतियों से भरा पड़ा है। शंकराचार्य को वैचारिक पवित्रता और ब्रह्म ज्ञान का आलोक एक सफाई कर्मी से मिली थी। राजा मनु मानवीय सभ्यता के पहले शासक यानी की राजा हुए। उस समय शासन के संचालन और सामाजिक व्यवस्था के लिए कोई नियम या कानून नहीं था। राजा मनु ने सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने और राजतंत्र के लिए वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुरूप नियमावली बनाई‚ जिसे ‘मनुस्मृति’ कहते हैं। इसमें विभिन्न वर्गों के लोगों को उनकी रु चि और दक्षता के अनुसार कर्म करने का प्रावधान किया गया है। इस प्रकार ऋग्वेद से लेकर मनु स्मृति तक वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण वर्ग का कोई योगदान नहीं है। जातीय व्यवस्था को लेकर ब्राह्मण की आलोचना करने वालो को सही संदर्भ में देखना चाहिए।
आदि काल तक ब्राह्मण वन क्षेत्र में ही कुटीर बना कर रहता और भिक्षा से ही गुरु कुल चलाता था। नैमिष विमर्श के बाद स्थापित जाति व्यवस्था में कालांतर में कई बदलाव होते गए। त्रेता और द्वापर की जातीय व्यवस्था में अंतर दिखता है। इसी प्रकार अब कलयुग में आरक्षण ने पूरे सामाजिक समीकरण को बदल कर रख दिया है। छोटी और पिछड़ी जातियों में नये ब्राह्मण और राजन पैदा हो गए हैं। ये लोग ब्राह्मण को गाली देकर और सामाजिक दुर्व्यवस्था का ठीकरा फोड़ अपने ही समाज का शोषण कर रहे हैं।