संत रविदास‚ जिनकी आज जयंती है‚ का लोक प्रचलित नाम रैदास है‚ लेकिन देश के कई अंचलों में वे कई दूसरे नामों से भी जाने जाते हैं–कहीं ‘रोहिदास’ हैं‚ कहीं ‘रु इदास’ तो कहीं रायादास। कहीं–कहीं उनके रेदास‚ रेमदास और रौदास नाम भी मिलते हैं। लेकिन उनकी विलक्षणता नामों की बहुलता में नहीं‚ बल्कि इस तथ्य में प्रतिध्वनित होती है कि वे हिंदी की भक्ति काव्यधारा की उस बहुजन–श्रमण परंपरा के शीर्षस्थ संत कवियों में से एक हैं‚ जिन्हें बाबा साहब ड़ॉ. भीमराव अंबेडकर इस मायने में क्रांतिकारी बता गए हैं कि वह हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था के ऊँच–नीच‚ विषमता–परजीविता के पोषक सारें मूल्यों को दरकिनार कर मनुष्यमात्र की समता की हिमायत करते रहे। बारंबार हिदायत देते हैं कि कोई भी इंसान जन्म के आधार पर नहीं‚ तब नीच होता है‚ जब अपने ह्रदय को संवेदना व करु णा कहें या दया व धर्म से विरहित कर लेता है‚ और खुद को ओछे कर्मों का कीचड़ लगा बैठता है। इस क्रम में वे साफ कहने से भी नहीं चूकते कि आदमी के आदमी से जुड़ने में जाति ही सबसे बड़ी बाधा है‚ और ‘रैदास ना मानुष जुड़ सके‚ जब लौं जाय न जात।
दरअसल‚ उनके समय में धर्म व संस्कृति का चोला पहन कर चारों ओर इतराती–फिरती ऊँच–नीच व छुआ–छूत जैसी सामाजिक बीमारियों ने न सिर्फ सहज मनुष्यता का मार्ग अवरु द्ध कर रखा था‚ बल्कि अन्त्यज करार दी गइ जातियों‚ जिनमें संत रविदास की जाति भी शामिल थी‚ को सर्वाधिक त्रास झेलने को अभिशप्त कर रखा था। ऐसे में स्वाभाविक ही था कि वे अपनी रचनाओं में पीडि़त के रूप में उनका प्रतिरोध करते और उनके कवच–कुंड़ल बने पाखंडों व कुरीतियों के विरु द्ध मुखर होते। यह उनका साहस ही था‚ जिसके कारण वे कई और कदम आगे बढकर यह भी कह पाए कि उनके तइ बेदीन व पराधीन होना एक ही बात है‚ और ‘पराधीन को दीन क्या‚ पराधीन बेदीन’ की व्यवस्था देते हुए अपने सारे साहित्य को बेदीन‚ हीन और पराधीन लोगों से प्रीति व मिताई की गाथा बना दिया। जो भी विसंगति या व्यवस्था इस प्रीति व मिताई के आड़े आई‚ उसको झाडने व झिंझोड़ने में उन्होंने कोई कोर–कसर नहीं रखी।
उन्होंने लोगों से सम्यक आजीविका व नेक कमाई को ही अपना धर्म व श्रम को ईश्वर मानकर उसे ही दिन–रात पूजने को कहा और बताया कि संसार में सुख पाने व चैन से रहने का यही एक रास्ता है। स्वयं भी श्रम करके ही जीवन–यापन करते और श्रम करके जीने को सबसे बड़ा मूल्य मानते थे। गौरतलब है कि उन्होंने आदर्श समाज और अच्छे राज्य की जो अवधारणा पेश की‚ वह हुबहु हमारे संविधान के संकल्पों जैसी है। कहते हैं ऐसा चाहौं राज मैं जहं मिलै सभन को अन्न‚ छोट बड़ो सभ सम बसैं रैदास रहै प्रसन्न! उनकी यह चाह उन्हें वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से भी आगे ले जाती है। इस सतर्क तर्क तक भी कि जब सभी लोग हाड़–मांस व खून के ही बने हैं‚ तो भिन्न या छोटे–बड़े कैसे हो सकते हैं जब सभ कर दोउ हाथ पग दोउ नैन दोउ कान‚ रविदास पृथक कइसे भये हिंदू औ मूसलमानॽ वे कहते ही नहीं‚ खुद को मंदिर–मस्जिद से दूर रखकर हिंदू–मुस्लिम‚ दोनों से प्रेम करते व बार–बार जोर देकर कहते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों में कोई भेद नहीं है। जिन तत्वों से हिंदू बने हैं‚ उन्हीं तत्वों से मुसलमान. दोनों के जन्म का तरीका भी एक ही है–हिंदू तुरु क महि नाहि कछु भेदा दुई आयो इक द्वार। प्राण पिंड लौह मास एकहि रविदास विचार। आत्मप्रचार से दूर रहने वाले दूसरे संत कवियों की ही तरह रविदास के जन्म व जीवन के बारे में भी ज्यादा जानकारियां नहीं मिलतीं। जो मिलती हैं‚ उनके अनुसार विक्रम संवत १४४१ से १४५५ के बीच रविवार को पड़ी किसी माघ पूर्णिमा के दिन मांडुर नामक गांव में उनका जन्म हुआ।
यह मांडुर उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में मंडेसर तालाब के किनारे मांडव ऋषि के आश्रम के पास स्थित वही गांव है‚ जो अब मंडुवाडीह कहलाता है। उनके पिता का नाम रग्घू अथवा राघव था जबकि माता का करमा‚ जिन्हें सामाजिक गैर–बराबरी व ऊँच–नीच के पैरोकार हिकारत से ‘घुरबिनिया’ कहते थे। संत रविदास की अन्त्यज श्रमजीवी की जिंदगी भी कुछ कम सामाजिक संदेश नहीं देती‚ जिसे लेकर उनके वक्त में ही कई मिथक गढ़ डाले गए थे। सबसे ज्यादा प्रचारित मिथक ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ वाला है‚ जबकि दूसरा वह‚ जिसमें वे उनकी गरीबी से करु णाविगलित एक संत के दिए पारस पत्थर से लोहे को सोने में परिवर्तित कर अपनी गरीबी दूर करने की बजाय श्रमजीवी के लिए उसके पसीने को ही पारस पत्थर बताते हैं‚ और पारस से ज्यादा अपने पसीने पर भरोसा करने को कहते हैं।