हाल में उपराष्ट्रपति द्वारा जयपुर में 83वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन में न्यापालिका और विधायिका पर जो सवाल खड़ा किया‚ उस पर बहस आरंभ हो गई है‚ लेकिन उन्होंने अपने बयान में संसद में संवाद‚ विमर्श और बहस को बढाने पर जोर देते हुए तीन साल के दौरान संविधान सभा के ११ सत्रों के व्यवधानरहित संचालन कोआदर्श स्थिति भी बताया था। जाहिर है कि यहां उनका संकेत था कि सदन बेहतर चले और कामकाज ढंग से होना चाहिए। संविधान सभा में कौन लोग थे और वहां किस समर्पण भाव से काम हुआ‚ इसे समय–समय पर पक्ष–विपक्ष के लोग स्वीकार करते हैं‚ लेकिन आज हकीकत कुछ अलग है‚ और न्यायपालिका और कार्यपालिका में टकराव विधि मंत्री के रोजमर्रा के बयानों से जनता की निगाह में भी आ चुका है। न्यायपालिका पर सवाल होता रहना चाहिए‚ लेकिन इस पर भी संसद और जनप्रतिनिधि क्या भूमिका निभा रहे हैं।
पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में पहली बार इस पर बहस नहीं छिड़ी है। तिरुवनंतपुरम में 2007 में हुए सम्मेलन में सर्वसम्मत संकल्प पास हुआ‚ जिसमें कहा गया कि संविधान में ऐसा कोई महाअंग नहीं है‚ जो दूसरे के क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप करे। राज्य के सभी अंगों से अपेक्षा है कि संविधान द्वारा तय कार्यक्षेत्र में रहते हुए सौंपे गए दायित्वों का निर्वहन करें‚ जिससे देश लोकतांत्रिक व्यवस्था को सद्भावनापूर्ण तरीके से सुनिश्चित किया जा सके। गौर करने की बात है कि हमारी संसदीय व्यवस्था में मंत्री विधायिका के ही सदस्य होते हैं। वे कार्यपालिका में अहम हैसियत में होते हैं‚ और विधायिका के प्रति जवाबदेह भी। तीनों अंग अपने दायरे में सर्वोच्च हैं। टकराव होता है तो विधायिका और कार्यपालिका एक पक्ष बन जाती है‚ लेकिन संविधान शासित देशों में संविधान ही सर्वोपरि होता है। चूंकि भारतीय संविधान में शक्तियों के बंटवारे में कठोरता नहीं दिखती‚ इसलिए परम शक्तिशाली दर्शाने का प्रयास भी बीच–बीच में दिखता है। सर्वोच्च विधायी निकाय होने के कारण संसद राजनीतिक संरचना में अहम है। जनता सांसदों को चुनती है‚ और उनके बनाए कानूनों में जनाकांक्षाएं झलकती हैं। कानूनों को कार्यपालिका लागू करती है। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका परखती है कि संवैधानिक उपबंधों का पालन किया जा रहा है‚ या नहीं। कानून बनने पर संविधान के अन्य उपबंधों के अतिक्रमण के आधार पर चुनौती दी जा सकती है। संसद और राज्य विधानमंडलों द्वारा बनाए गए कानूनों को संविधान के अधिकार क्षेत्र से परे मानकर वह रद्द भी कर सकती है। ऐसा किया भी है‚ और टकराव का अहम कारण यही है‚ लेकिन संसद अपनी प्रक्रियाओं को खुद रेगुलेट करती है। सभा की कार्यवाही की वैधता को अदालतों में चुनौती भी नहीं दी जा सकती। कानून कैसे बनेगा‚ इसे भी संविधान में तीन सूची में बांटा गया है। वित्तीय मामलों में लोक सभा की भूमिका सर्वोपरि है पर राष्ट्रीय हित में राज्य सूची के विषय पर कानून बनाने के लिए सक्षम बनाने में राज्य सभा की विशेष भूमिका है।
संसद सत्र की अवधि सरकार कामों की मात्रा को ध्यान में रख कर तय करती है‚ लेकिन बीते दशकों में देखा जा रहा है कि संसद और विधानसभाओं में सरकार बैठकों की संख्या कम करती जा रही है‚ और विधेयक जल्दबाजी में पास हो रहे हैं। इस कारण कानून की गुणवत्ता वैसी नहीं रहती जो व्यापक विचार मंथन या छानबीन से गुजरे कानूनों की होती है। मिसाल के तौर पर तीन कृषि कानून ऐसी जल्दबाजी में बने कि उनके चलते भारी विरोध हुआ। संसद का मुख्य काम कानून बनाना और लोगों को सशक्त बनाने के लिए नीतियां तय करना है। कानून बनाने में विपक्षी सांसदों और जनता की भी भूमिका होती है। इसी के तहत कई क्रांतिकारी कानून बने हैं। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा‚ हिंदू विवाह‚ बाल श्रम‚ सती निवारण‚ सूचना का अधिकार‚ मनरेगा‚ महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण‚ निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा आधिकार‚ जीएसटी जैसे बहुत से कानून गिनाए जा सकते हैं। राज्य सभा ने कानूनों को जल्दबाजी में बनने से रोकने की अपनी भूमिका को निभाया भी‚ लेकिन २०२१ में स्वतंत्रता दिवस पर भारत के प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि बिना व्यापक बहस के जल्दबाजी में संसद में कानून बनाने से गंभीर खामियां रह जाती हैं‚ कई पहलू अस्पष्ट रह जाते हैं। ऐसे कानूनों का औचित्य समझ से परे है। इस बयान का संसद की ओर से जवाब नहीं दिया गया।
मोदी सरकार में देखें तो २०१४ से २०१९ के दौरान ३३१ बैठकों में २०५ विधेयक पारित हुए। इसकी तुलना २००४ से २००९ के दौरान यूपीए सरकार में ३३२ बैठकों में २५८ विधेयक पारित हुए। कोरोना के दौरान २०२० के मानसून सत्र की १० बैठकों में २२ घंटे में २५ विधेयक पारित हुए‚ जिनमें तीन कृषि कानून भी शामिल थे‚ लेकिन जब १७वीं लोक सभा का पहला सत्र ३७ दिन चला तो ३५ विधेयक बेहतरीन चर्चा के बाद पारित हुए कोई सवाल नहीं उठा। सत्ता पक्ष और विपक्ष में सहमति हो तो एक विधेयक एक दिन में ही दोनों सदनों में पारित हो सकते हैं‚ और ऐसा १२ मई २०१६ को राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय विश्वविद्यालय विधेयक पर हुआ था। ॥ दोनों सदनों से पारित होने के बाद उसी दिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की मुहर भी लग गई‚ लेकिन ऐसा बिरले मौकों पर ही होता है। बेशक‚ नये कानूनों के साथ समस्याएं आती हैं। कई दबाव समूह भी काम करते हैं। २०१६–१७ के बाद से वैयक्तिक डाटा संरक्षण विधेयक तमाम पड़ताल होने के बाद भी इसी नाते लटका हुआ है। १६ दिसम्बर‚ २०२१ को संयुक्त समिति की रिपोर्ट आई‚ लेकिन ३ अगस्त‚ २०२२ को सरकार ने इसे वापस ले लिया। अब इस पर नये विधेयक का इंतजार है‚ जिसमें कमियों की गुंजाइश नहीं होगी। १७वीं लोक सभा में मानसून सत्र तक पास ९४ विधेयकों पर तथ्य बताते हैं कि वे उसी सत्र में पास हुए जिसमें प्रस्तुत किया गया और ३५% विधेयक ३० मिनट से कम समय में पारित हुए। इसे अच्छी स्थिति नहीं माना जा सकता। इसी तरह चिंता का दूसरा बिंदु कानून बनाने में विभाग संबंधी स्थायी समितियों की सीमित होती भूमिका भी है।