देखो जी‚ या तो मैस्सी की दस नंबर की फुटबाल जर्सी ही इन दिनों प्रसिद्ध हुयी या फिर राहुल गांधी की टीशर्ट ही चर्चा रही। उनके सामने सारे महंगे सूट–बूट धरे रह गए। वैसे ही जैसे गांधी की आधी धोती के सामने वायसरायों और सम्राटों की महंगी पोशाकें धरी रह गयी थीं। हालांकि पहले राहुल की टीशर्ट की कीमत भी हजारों में आंकी गयी थी‚ लेकिन जब लाखों के सूट–बूट से उसकी तुलना होने लगी तो उसके महंगे होने की यह चर्चा बंद हो गयी। डर यही रहा होगा कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी। मैस्सी की जर्सी का दस नंबर वास्तव में मैराडोना की जर्सी का नंबर था। इस तरह दस नंबर की जर्सी पहनकर मैस्सी वास्तव मैराडोना की पंरपरा के वाहक बने। लेकिन राहुल गांधी‚ महात्मा गांधी से तुलना किए जाने पर माफी मांग लेते हैं कि ऐसा मत कीजिए–वो कहां और मैं कहां टाइप से। गांधी की धोती से राहुल गांधी की टीशर्ट की तुलना हो भी नहीं सकती। इसलिए नहीं कि वेशभूषा का फर्क है बल्कि इसलिए भी कि गांधीजी की धोती की कीमत अंग्रेजों ने कभी नहीं बतायी थी। न उसे डिजाइनर और ब्रांडेड बताया और न विदेशी बताया।
राहुल की टीशर्ट का कमाल यह रहा कि जिन मुद्दों को लेकर उन्होंने पदयात्रा शुरू की‚ उन्हें चर्चा में आने से टीशर्ट रोके रही। उन मुद्दों को इसने टीवी की चर्चाओं और सोशल मीडिया में चर्चा में आने से रोके रखा। दूसरी तरफ यही टीशर्ट थी जिसने दिन में तीन–तीन परिधान बदलने वालों का महीनों अकेले मुकाबला किया। यंू तो गांधीजी की धोती भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद की अकूत संपदा के सामने अकेली डटी रही थी। लेकिन अंग्रेजों की कभी यह हिम्मत नहीं हुयी कि स्वत्रता संग्राम के विमर्श को वे गांधी की धोती तक समेट दें‚ सिवा इसके कि चर्चिल ने उन्हें अधनंगा फकीर कह कर अपने माथे पर स्थायी कलंक लगा लिया था। लेकिन राहुल को शहजादा और राजकुमार कहकर‚ फकीर कहना उनके विरोधियों के लिए मुश्किल था। अंग्रेजों ने गांधी की धोती पर शोध नहीं किया जबकि राहुल गांधी की टीशर्ट पर भाजपा वाले बाकायदा शोध करा रहे हैं। उन्होंने तो उसमें हीटर तक फिट करा दिया। शोध चल रहा है‚ अभी क्या पता क्या–क्या सामने आए।