बिहार में जातिगत जनगणना का पहला दौर शनिवार से शुरू हो रहा हैं. पहले चरण में आवासीय मकानों पर नंबर डाले जाएंगे. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी ‘समाधान यात्रा’ के दौरान आज शिवहर में कहा कि इस जनगणना के दौरान केवल जातियों की गणना नहीं बल्कि राज्य के हर परिवार के बारे में पूरी जानकारी मिलेगी. उससे देश के विकास और समाज के उत्थान में बहुत फ़ायदा मिलेगा. दरअसल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बृहस्पतिवार को पश्चिम चंपारण जिले से अपनी ‘समाधान यात्रा’ की शुरुआत की है. वह पांच से 29 जनवरी तक अपनी यात्रा के दौरान सरकारी परियोजनाओं की समीक्षा करेंगे और लोगों से बातचीत भी करेंगे. अपनी इसी यात्रा के तहत बिहार के सीएम ने शिवहर में लोगों से मुलाकात की. इस दौरान उन्होंने जातिगत जनगणना के फायदे बताए.
बिहार में नीतीश कुमार सरकार जातिगत जनगणना कराने जा रही है. इसका काम शनिवार यानी 7 जनवरी से शुरू होगा. जातियों की गिनती का काम दो चरणों में पूरा होगा. नीतीश सरकार लंबे समय से जातिगत जनगणना की मांग कर रही थी.
नीतीश सरकार ने 18 फरवरी 2019 और फिर 27 फरवरी 2020 को जातीय जनगणना का प्रस्ताव बिहार विधानसभा और विधान परिषद में पास करा चुकी है. हालांकि, केंद्र इसके खिलाफ रही है. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर साफ कर दिया था कि जातिगत जनगणना नहीं कराई जाएगी. केंद्र का कहना था कि ओबीसी जातियों की गिनती करना लंबा और कठिन काम है.
पर अब नीतीश सरकार जातिगत जनगणना जा रही है. इसकी जिम्मेदारी सामान्य प्रशासन विभाग को दी गई है. इस साल मई तक जातिगत जनगणना का काम निपटाने को कहा गया है. ऐसे में जानना जरूरी है कि बिहार में जातिगत जनगणना कैसे होगी? जातियों की गिनती कैसे होगी?
1. कब से शुरू होगी जातिगत जनगणना?
जातिगत जनगणना 7 जनवरी से शुरू होगी. ये दो चरणों में होगा. पहला चरण 7 जनवरी से 21 जनवरी तक चलेगा. दूसरा चरण 1 अप्रैल से 30 अप्रैल तक चलेगा.
2. कैसे होगी गिनती?
पहले चरण में घरों की गिनती होगी. इसकी शुरुआत पटना के वीआईपी इलाकों से होगी. इसमें विधायकों, सांसदों और मंत्रियों के घरों को गिना जाएगा. इसके अलावा घर के मुखिया और परिवार के सदस्यों के नाम भी दर्ज किए जाएंगे.
दूसरे चरण में जातियों की गिनती होगी. इसमें लोगों से उनकी जाति, उपजाति और धर्म के बारे में पूछा जाएगा और डेटा जुटाया जाएगा.
3. कैसे होगा इतना बड़ा काम?
नीतीश सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का जिम्मा सामान्य प्रशासन विभाग को सौंपा है. पंचायत से लेकर जिला स्तर तक के आंकड़े जुटाए जाएंगे.
जिला स्तर पर जातिगत जनगणना का काम डीएम को सौंपा गया है. उन्हें ही नोडल अफसर भी बनाया गया है.
सामान्य प्रशासन विभाग के कर्मचारी, डीएम और ग्रामीण स्तर पर अलग-अलग विभागों के सबऑर्डिनेट ऑफिसेस के कर्मचारियों को जिम्मेदारी दी गई है. इनके अलावा जीविका दीदीयों और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की मदद भी ली जाएगी.
4. जो बाहर हैं उनका क्या?
बिहार का एक बड़ा तबका ऐसा है जो देश के अलग-अलग हिस्सों में रहता है. उनकी गिनती भी की जाएगी. सामान्य प्रशासन विभाग बिहार से बाहर रहने वाले राज्य के लोगों की गिनती करने का काम भी टारगेट रखा था. लेकिन देरी होने की वजह से अब इसे मई तक खत्म करने का टारगेट रखा गया है.
6. इसमें कितना खर्चा आएगा?
राज्य सरकार जातिगत जनगणना के सर्वे पर 500 करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है. ये खर्च अनुमानित है. यानी, ये कम और ज्यादा भी हो सकता है. ये खर्च कंटेनजेंसी फंड से किया जाएगा.
7. लेकिन जातिगत जनगणना की जरूरत क्यों?
जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में तर्क ये है कि 1951 से एससी और एसटी जातियों का डेटा पब्लिश होता है, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का डेटा नहीं आता है. इससे ओबीसी की सही आबादी का अनुमान लगाना मुश्किल होता है…
1990 में केंद्र की तब की वीपी सिंह की सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश को लागू किया. इसे मंडल आयोग के नाम से जानते हैं. इसने 1931 की जनगणना के आधार पर देश में ओबीसी की 52% आबादी होने का अनुमान लगाया था.
मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर ही ओबीसी को 27% आरक्षण दिया जाता है. जानकारों का मानना है कि एससी और एसटी को जो आरक्षण मिलता है, उसका आधार उनकी आबादी है, लेकिन ओबीसी के आरक्षण का कोई आधार नहीं है.
8. केंद्र क्यों नहीं चाहती जातिगत जनगणना?
केंद्र सरकार जातिगत जनगणना के समर्थन में नहीं है. पिछली साल फरवरी में लोकसभा में जातिगत जनगणना को लेकर सवाल किया गया था. इसके जवाब में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने बताया था कि संविधान के मुताबिक, सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की ही जनगणना हो सकती है.
इसके अलावा दूसरी वजह ये भी मानी जाती है कि जातिगत जनगणना से देश में 1990 जैसे हालात बन सकते हैं. फिर से मंडल आयोग जैसे किसी आयोग को गठन करने की मांग हो सकती है. इसके अलावा आरक्षण की व्यवस्था में भी फेरबदल होने की संभावना है.
अगर जातीय जनगणना हुई और ओबीसी की आबादी घटी तो राजनीतिक पार्टियां इस डेटा पर सवाल उठा सकती हैं. वहीं, अगर आबादी बढ़ी तो फिर और ज्यादा आरक्षण देने की मांग उठ सकती है.
इसका एक कारण राजनीति भी है. अभी बीजेपी की जितनी पैठ सवर्ण जातियों में है, उतनी ओबीसी जातियों में नहीं है. अगर जातीय जनगणना हुई तो क्षेत्रीय दल केंद्र से ओबीसी कोटे में बदलाव की मांग कर सकते हैं, जिससे बीजेपी के लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है.
हालांकि, नीतीश सरकार भले ही जातिगत जातिगत जनगणना करवा ले लेकिन केंद्र इसे नहीं मानेगी. जानकार मानते हैं कि कोई भी राज्य अगर अपने स्तर पर जातिगत जनगणना करा लेता है तो भी उसका बहुत महत्व नहीं होगा, क्योंकि केंद्र इसे नहीं मानेगा. इसका एक कारण ये भी है कि जनगणना कराने की जिम्मेदारी केंद्र की है, राज्य सरकार की नहीं.
9. इसका सियासी गणित क्या है?
1990 के दशक में मंडल आयोग के बाद जिन क्षेत्रीय पार्टियों का उदय हुआ, उसमें लालू यादव की RJD से लेकर नीतीश कुमार की JDU तक तक शामिल है.
बिहार की राजनीति ओबीसी के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. बीजेपी से लेकर तमाम पार्टियां ओबीसी को ध्यान में रखकर अपनी सियासत कर रहीं हैं. ओबीसी वर्ग को लगता है कि उनका दायरा बढ़ा है, ऐसे में अगर जातिगत जनगणना होती है तो आरक्षण की 50% की सीमा टूट सकती है, जिसका फायदा उन्हें मिलेगा.
ऐसे में बिहार के सियासी समीकरण को ध्यान में रखते हुए जातिगत जनगणना की मांग लंबे समय से हो रही है. शायद यही वजह है कि केंद्र में बीजेपी जातिगत जनगणना का भले ही विरोध कर रही हो, लेकिन बिहार में वो समर्थन में खड़ी हुई है.
10. क्या और किसी राज्य में हो चुका है ऐसा?
जातीय जनगणना की जब भी बात होती है तो कर्नाटक मॉडल का जिक्र आता है. कर्नाटक में जातिगत जनगणना कराई जा चुकी है, लेकिन इसका डेटा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया.
2015 में सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने राज्य में जातीय जनगणना करवाई थी. इस पर 162 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. लेकिन लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय की नाराजगी से बचने के लिए इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया.