इन दिनों हमारे चैनल दुहरती बहसों के बीच फंसे हैं। चाहे अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा हो या समान नागरिक संहिता या भ्रष्टाचार या विकास का मुद्दा हो‚ ऊपर से लगता है कि इन बहसों में बडा ज्ञान भरा है लेकिन असल में लगभग सभी बहसें एक ही तरह से शुरू और खत्म होती हैं। नये तर्क–वितर्क और प्रमाण जुटाने के नये तौर–तरीके सिखाने की जगह हठधर्मिता और बेशर्मी ही सिखाती हैं‚ जिसे इन दिनों गली–मोहल्ले की ‘तू तू मैं मैं छाप’ बहसों में देखा जा सकता है। सभी चैनलों के ‘डिबेटिग फॉरमेट’ तक एक जैसे हैं पहले चैनल एक वीडियो दिखाएगा ताकि हम जान सकें कि आज का विचारणीय मुद्दा क्या हैॽ चाहे अपराध कथा हो या कोई राजनीतिक घटना विकास‚ चुनाव परिणाम हों या सरकार की रीति–नीति या मनोरंजन की कथा या कि एक्सीडेंट ही क्यों न हो‚ चैनल पहले मुद्दे का परिचय देंगे‚ उसका वीडियो देंगे‚ रिपोर्ट देंगे ताकि मुद्दा स्थापित हो जाए फिर बहसें कराएंगे! और इन बहसों में वही–वही चेहरे दिखेंगे जिनको पिछले आठ–दस साल से हम अलग–अलग चैनलों में स्थायी पेनिलस्टों के रूप में देखते आए हैं।
ये कुछ लोग हर चीज के एक्सपर्ट हैं। चाहे देश नीति हो या विदेश नीति‚ चुनाव हों या जातीय या धार्मिक मुद्दे‚ भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या अनाचार–अत्याचार का‚ श्रद्धा की नृशंस हत्या का मुद्दा हो या गैंगरेप का या गलवान की झडप हो या तमांग की झडप या कि कहीं युद्धाभ्यास हो या कि यूक्रेन का युद्ध हो. हर बहस में वही–वही चेहरे नजर आते हैं। सच कहें इन दिनों ये चेहरे बोर करते हैं। फर्क होता है तो सिर्फ इतना कि स्त्री विषयक मुद्दों पर कुछ स्त्री एक्टिविस्ट‚ वकील और जुट जाते हैं‚ लेकिन ये भी वही होते हैं‚ जो पहले से ऐसे मुद्दों पर विचार करने आते रहे हैं। यों अपने यहां हिंदी के एक दर्जन से अधिक चैनल हैं‚ और अंग्रेजी के छह–सात लेकिन इन सब में रोज बहस करने वालों की कुल संख्या डेढ सौ से दो सौ से अधिक नहीं है। कितने अफसोस की बात है कि एक सौ पैंतीस करोड के इस महादेश में ऐसे ज्ञान–गुरु ओं की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक है। यह चैनलों का अपना बनाया सुविधाजनक और दोस्ताना ऐलीटिज्म है। वे सेफ खेलने के आदी हैं। इनके अलावा बहसों में दलीय प्रवक्ता भी होते हैं‚ जो दलों द्वारा मुकर्रर किए जाते हैं‚ जिनका काम अपने–अपने दल की नीतियों को हर हाल में डिफेंड करना‚ एक्सप्लेन करना होता है और दूसरे की आपत्तियों का मुंहतोड जवाब देना होता है। बहुत से प्रवक्ता भी इतने जाने–पहचाने नजर आते हैं कि देखते ही बता सकते हैं कि ये बंदा क्या बोलेगा‚ किस खास राजनीतिक पदावली का उपयोग करेगा‚ कितनी बार अपने नेता और पार्टी का नाम लेगा और अगर किसी ने जरा सा भी उसके नेता को कुछ कहा तो वह बीच में ही टोकता हुआ प्रतिपक्षी के नेता के खिलाफ और तीखी बातें बोल उठेगा। ‘तू तू मैं मैं’ होने लगेगी। एंकर को बीच–बचाव या उनके माइक को खामोश कर देना होगा।
ऐसी बहसों में एक नया शब्द सुनने को अवश्य मिलता है। यह ‘व्हाट अबाउटरी’ यानी ‘मेरा नेता पापी तो तेरा नेता और भी बडा पापी’। अगर किसी एक दल के प्रवक्ता ने कहा कि फलां समय आपके नेता ने यह गलती की या कि आपका फलां नेता भ्रष्टाचारी है‚ तो दूसरा कहेगा हमारा मुंह न खुलवाओ। बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी‚ कि आपके फलां फलां तो मीलों आगे हैं भ्रष्टाचार में. तब एंकर कहेगा या कहेगी कि आप ये ‘व्हाट अबाउटरी’ न करें। किसी की गलती से दूसरे की गलती ‘सही’ नहीं हो जाती। ऐसी बहसों में सबसे दयनीय स्थिति एंकरों की होती है। वे किसका पक्ष लें‚ किसे चुप कराएं‚ किसे समझाएं कि वे ऐसा–वैसा न बोलें और किसे मना करेंॽ कुछ दलों का दबदबा इतना अधिक होता है कि बहुत से एंकर उनकी बदतमीजी सहने को विवश होते हैं। कई दलों के प्रवक्ता एंकरों पर ही आरोप लगा देते हैं कि तुम तो बिके हुए हो‚ तुम्हारा चैनल भी बिका हुआ है‚ तुम तो सत्ता के दलाल हो.सबसे जोखिम भरे मुद्दे धार्मिक विवादों से जुडे होते हैं। ऐसे मुद्दों के आते ही हर चैनल की बहसें हिंदू–मुसलमान वक्ता–प्रवक्ताओं से भर जाती हैं। बरसों से टीवी डिबेटों को देखने के बाद यह मीडिया समीक्षक अपने अनुभव से कह सकता है कि पिछलेे आठ–दस बरस की बहसें लगभग थकी हुई बहसें हैं‚ जिनमें न नये चेहरे हैं‚ न उनमें ताजगी है।
ऐसी बहसों में एक नया शब्द सुनने को अवश्य मिलता है। यह ‘व्हाट अबाउटरी’ यानी ‘मेरा नेता पापी तो तेरा नेता और भी बडा पापी’। अगर किसी एक दल के प्रवक्ता ने कहा कि फलां समय आपके नेता ने यह गलती की या कि आपका फलां नेता भ्रष्टाचारी है‚ तो दूसरा कहेगा हमारा मुंह न खुलवाओ॥