नशे में दिल्ली में नशे के आदी एक युवक ने झगड़े के बाद अपनी मां‚ दादी‚ बहन और पिता की चाकू घोंपकर हत्या कर दी। युवक कुछ दिन पहले ही नशा मुक्ति एवं पुनर्वास केंद्र से लौटा था। गुरु ग्राम की एक कंपनी में काम करता था लेकिन महीने भर पहले उसने नौकरी छोड़ दी थी। दरअसल‚ नशे के आदी युवकों की सबसे बड़ी समस्या उनका मानसिक संतुलन बिगड़ जाना है। नशा जहां मानसिक रूप से पंगु बना देता है वहीं पारिवारिक कलह का कारण भी बनता है।
ज्यों–ज्यों नशे की लत के शिकार युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है‚ त्यों–त्यों नशा मुक्ति केंद्रों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। सवाल है कि कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे नशा मुक्ति केंद्र क्या वास्तव में नशे की लत छुड़ाने के लिए ईमानदार प्रयास कर रहे हैंॽ दिल्ली में पूरे परिवार को मौत के घाट उतारने वाला युवक नशा मुक्ति एवं पुनर्वास केंद्र में कुछ समय बिता कर लौटा था। स्पष्ट है कि नशा मुक्ति केंद्र उसे मानसिक रूप से स्वस्थ और इतना मजबूत नहीं बना पाया कि ऐसी घिनौनी हरकत न करता। दरअसल‚ इस दौर में नशा मुक्ति केंद्र भी व्यावसायिकता के शिकंजे में हैं। ज्यादातर नशा मुक्ति केंद्रों के संचालकों एवं कर्मचारियों के भीतर समाजसेवा का भाव नदारद है। जब नशा मुक्ति केंद्र खोले जाते हैं‚ तो जताया जाता है कि ये केंद्र सामाजिक सरोकारों के लिए खोले जा रहे हैं‚ लेकिन धीरे–धीरे इन केंद्रों से सामाजिक सरोकार दूर होता चला जाता है। इसका स्थान व्यक्तिगत स्वार्थ ले लेता है। इसके कारण कई जगहों पर नशा मुक्ति केंद्र यातना केंद्र बन गए हैं। पिछले दिनों ऐसी अनेक घटनाएं प्रकाश में आई थीं जिनमें नशा मुक्ति केंद्रों के भीतर मरीजों से अनैतिक व्यवहार किया जा रहा था। कुछ समय पहले देहरादून के एक नशा मुक्ति केंद्र में एक ही कमरे में ३५ लोगों को रखने की घटना प्रकाश में आई थी। देहरादून में एक अधिवक्ता ने आरटीआई के तहत सूचना मांगी तो खुलासा हुआ था कि कई केंद्रों का न तो पंजीकरण हुआ है‚ और न ही अन्य सुविधाएं जैसे प्रशिक्षित स्टाफ‚ सीसीटीवी कैमरे‚ दैनिक रजिस्टर और शिकायती रजिस्टर आदि हैं। देश के अनेक हिस्सों में ज्यादातर नशा मुक्ति एवं पुनर्वास केंद्र कई तरह की अनियमितताओं के शिकार हैं।
गौरतलब है कि ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ के अंतर्गत चलने वाले ‘नशा मुक्त भारत अभियान’ में अनेक योजनाएं क्रियान्वित की जा रही हैं। मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में ६० मिलियन से अधिक नशीली दवाओं के उपयोगकर्ता हैं‚ जिनमें बड़ी संख्या में दस से सत्रह वर्ष की आयु के युवा हैं। देश में ‘नशा मुक्त भारत अभियान’ कई स्वैच्छिक संगठनों की भागीदारी के साथ चल रहा है। इन संगठनों को सरकार की तरफ से वित्तीय सहायता भी प्रदान की जाती है। इस अभियान के तहत जागरूकता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। स्कूलों‚ उच्च शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालय परिसरों पर भी ध्यान केंद्रित करने का दावा किया जा रहा है। निश्चित रूप से सरकार के दावे अपनी जगह सही हैं‚ और वह इस दिशा में काम करती भी दिखाई दे रही है‚ लेकिन जमीन पर दावों की हकीकत कुछ और ही दिखाई देती है।
दरअसल‚ हमें समझना होगा कि नशा मुक्ति केंद्रों की व्यवस्था में थोड़ी सी भी लापरवाही इस संदर्भ में सरकारी नीतियों के ठीक ढंग से क्रियान्वयन में तो बाधा बनेगी ही‚ नशे की लत के शिकार युवाओं के भविष्य पर भी प्रश्न चिह्न लगाएगी। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सरकार कोशिश करने के बाद भी नशा मुक्ति केंद्रों की स्थिति सुधार नहीं पा रही है। इन केंद्रों में व्यवस्था ठीक न होने कारण कई बार मरीजों एवं केंद्र संचालकों में टकराव की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। देश के विभिन्न हिस्सों में कई नशा मुक्ति केंद्र तो अवैध रूप से संचालित हो रहे हैं। इन केंद्रों में न तो मनोचिकित्सक की व्यवस्था होती है‚ और न ही प्रशिक्षित कर्मचारी मनोवैज्ञानिक रूप से मरीजों का उपचार करने में सक्षम हो पाते हैं।
जब मरीज का मनोवैज्ञानिक रूप से उपचार नहीं होता है‚ तो वह भी जल्दी ही इन केंद्रों से अपना पीछा छुड़ाने की कोेशिश करने लगता है। फलस्वरूप मरीज की स्थिति ‘न घर के‚ न घाट के’ वाली हो जाती है। ऐसे केंद्र मनोवैज्ञानिक रूप से उपचार करने का दावा तो करते हैं‚ लेकिन इस प्रक्रिया को गंभीरता के साथ क्रियान्वित नहीं कर पाते हैं। हालांकि कई नशा मुक्ति केंद्रों के संचालक यह शिकायत भी करते रहते हैं कि उन पर इतने नियम–कानून लाद दिए जाते हैं कि व्यावहारिक रूप से उन्हें पूरा करना संभव नहीं हो पाता। इस व्यवस्था से जो केंद्र संचालक ईमानदारी से इस क्षेत्र में काम करना चाहते हैं‚ वे हतोत्साहित होते हैं। बहरहाल‚ समय आ गया है कि सरकार और केंद्र संचालक व्यावहारिकता और ईमानदारी से इस दिशा में काम करें ताकि सार्थक परिणाम सामने आ सकें।