लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार को बिहार के नरसंहारों में सबसे बड़ा और नृशंस नरसंहार माना जाता है। यह लालू प्रसाद के शासनकाल में हुआ था जिसमें बच्चों और गर्भवती महिलाओं को भी निशाना बनाया गया था। 1 दिसंबर 1997 की रात हुए लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार में 58 दलितों की हत्या कर दी गई थी। इस नरसंहार को कथित रूप से रणवीर सेना ने अंजाम दिया था।
जब गर्भवती महिलाओं पर चली थी गोलियां, 58 लाशें देख कांप उठा था देश
Lakshmanpur Bathe Killing 1 दिसम्बर 1997 यानी आजाद भारत के सबसे बड़े जातीय नरसंहार का वह अभागा दिन. बिहार के जहानाबाद जिले का लक्ष्मणपुर बाथे गांव, . जहां उंची जाति के लोगों द्वारा बनाई गई रणबीर सेना गिरोह के लोगों ने दिनदहाडे 58 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. आज इस नरसंहार के 25 साल पूरे हो गए. पढ़ें उस रात की डरावनी कहानी जब गुंडों की एक सेना ने जाति के नाम पर 58 कत्ल किए.
अरवल जिले का लक्ष्मणपुर बाथे गांव
रात को दरवाजे पर जोर से दस्तक हुई। उसके टूटते ही कई लोग बंदूक और तलवार लेकर घुस आए। पिता जी को मेरे सामने 5 गोली मार दी। वह गिरते, तब तक दोनों भाई-भाभियां और हम आए। उन्होंने गोलियों की बौछार कर दी। मेरे चेहरे पर गोली लगी और मैं गिर गया। मेरे ऊपर उनके शव गिर गए। सुबह लोगों ने उठाया। मेरा परिवार खत्म हो चुका था।
25 साल बाद भी यह कहते-कहते विमलेश राजवंशी सिहर उठते हैं। उनकी उम्र 10 से 11 साल की रही होगी। वे उस दिन की घटना बताते हैं। कहते हैं- रात के करीब 8 बजे होंगे। हम लोग खाना खाकर सोने की तैयारी में थे, कच्चे मकान की किवाड़ तोड़कर बंदूक और तलवारों से लैस लोग घुस आए। घर में कोहराम मचा था। जब वह दैनिक भास्कर की टीम से बात कर रहे थे, वे उसी स्मारक के पास थे, जिस पर उनके पिता, भाइयों और भाभियों के नाम दर्ज हैं।
यह स्मारक है दलित बस्ती में विनोद पासवान के घर में। इस घर में 7 लोगों को मार दिया गया। यह स्मारक 25 साल बाद भी आजाद भारत के सबसे बड़े नरसंहार की याद दिलाता है, जिसने पूरे देश को हिला दिया था। उस समय राष्ट्रपति रहे केआर नारायणन ने इस हत्याकांड को ‘राष्ट्रीय शर्म’ करार दिया था।
स्मारक में गांव के 58 लोगों के नाम दर्ज हैं, जिन्हें जातीय हिंसा में बर्बर तरीके से मार दिया गया था। एक घंटे तक मौत दलित बस्ती में नाचती रही। चार परिवारों का नामोनिशान तक मिट गया। औरत-बच्चों को घरों में घुसकर गोली मारी गई। तलवार से काट डाला गया। गुस्से और नफरत में एक साल के दुधमुंहे बच्चे तक को नहीं छोड़ा गया।
1 दिसंबर को बरसी है, हर साल आती है और बीत जाती है, लेकिन 25 साल बाद भी लोग न्याय के इंतजार में हैं। इस हत्याकांड में जो बचे गए, वे आज भी उस रात की घटना याद करके सिहर उठते हैं। सोन नदी के किनारे बसे इस गांव में मरने वालों में 27 महिलाएं और 16 बच्चे भी शामिल थे। उन 27 महिलाओं में से करीब दस महिलाएं गर्भवती भी थीं। इस नरसंहार में नाम आया था रणवीर सेना का। हालांकि यह सेना अब नहीं बची। निशाना बने थे- महतो, राजवंशी, पासवान, मल्लाह, रविदास जाति के परिवार।
विमलेश राजवंशी और विनोद पासवान की तरह इस नरसंहार में अपनी पत्नी, बहू और बेटी को खोने वाले लक्ष्मण राजवंशी अपने घर को दिखाते हैं। कहते हैं पहले यहां छह फीट की दीवार थी। मैं दीवार कूदकर भाग गया, इसलिए बच गया। पहला हमला मेरे ही घर पर बोला गया था। 100 से अधिक हत्यारे थे। मेरी आंखों के सामने पत्नी को गोली मारी गई। बहू एक महीने पहले ही गवना कराकर आई थी। बेटी की एक सप्ताह बाद बारात आने वाली थी। दोनों को गोली मारी गई। जब नहीं मरीं तो गर्दन काट दी गई।
लक्ष्मण अब बुजुर्ग हो गए हैं, नरसंहार के समय उनकी उम्र 35 साल की रही होगी। अब उम्र की वजह से थोड़ा कम सुनते हैं, लेकिन नरसंहार की बात आते ही कहते हैं- अब तक न्याय नहीं मिला। कहते हैं-मैं गवाह हूं, मुझे खरीदने की कोशिश की जाती है। खेत का ऑफर दिया जाता है, लेकिन मैंने मना कर दिया। मुझे न्याय चाहिए। सब बिके हुए हैं, अब सुप्रीम कोर्ट की पुकार होगी।
सीटी बजी और थम गया नरसंहार
लक्ष्मण बताते हैं कि एक घंटे तक गांव में कोहराम मचा रहा। ज्यादातर पुरुष भाग गए। घर में बच्चे और महिलाएं ही रह गई थीं, सब ने सोचा था कि बच्चों और महिलाओं को कौन मारेगा, लेकिन इसका उल्टा हुआ। हत्यारे घरों में घुसकर महिला, बच्चों और बुजुर्गों को गोली मारने लगे। महिलाओं के पेट में चाकू गोदे गए थे ताकि बच्चा हो तो वो भी मर जाए। एक घंटे मौत नाचती रही, फिर सीटी बजाना शुरू हुई और सब भाग गए।
वो दरवाजा पीट रहा था, बोला- चाचा सब मारे गए हैं
जिस विनोद पासवान के घर में स्मारक बना है, उससे कुछ दूरी पर रहने वाली सोनमती देवी कहती हैं। हाल ही में मेरी शादी हुई थी। 1 दिसंबर की सुबह विनोद दौड़कर मेरे घर आया था। वह दरवाजा पीटकर मेरे ससुर से बोला- चाचा चलिए, सबको मार दिया है। मेरे ससुर ने डरकर दरवाजा खोला। वहां गए तो आंगन में विनोद के परिवार के 7 लोगों की लाशें पड़ी थीं। विनोद की पत्नी मायके गई थी, इसलिए वह बच गई थी। पास के ही घर में नौ लोगों की लाश थी, जबकि महेंद्र चौधरी के परिवार के सभी 5 लोगों की हत्या कर दी गई थी। महेंद्र के घर तो कोई नहीं बचा। बाद में बेटी और दमाद आकर यहां रहने लगे।
जिस नाव से आए, उसके नाविकों को भी मार डाला
गांव के ही बुजुर्ग रामकृष्ण बताते हैं कि इस बस्ती को नेताजी सुभाषचंद्र के नाम पर सुभाषनगर कहा जाता था। इस हत्याकांड के बाद यह नाम भी खत्म हो गया। वे कहते हैं कि हत्यारे तीन नावों से सोन नदी को पार करके गांव में घुस थे। सबसे पहले उन नाविकों की हत्या कर दी, जिनके सहारे उन्होंने नदी को पार किया था। सोन नदी में मछली मार रहे लोगों की गर्दन रेत दी।
वो कैसे बच गए, इस पर रामकृष्ण कहते हैं कि जब गोली की आवाज आने लगी तो मैं घर के पीछे से भाग गया। खेतों छिपा रहा, सुबह जब गांव आया तो देखा कि आसपास के घर से बच्चों और महिलाओं की लाशें निकल रही हैं।
एक साथ जली थीं 58 चिताएं
रामकृष्ण कहते हैं कि स्मारक तो बाद में बना, लेकिन यहीं पर दो दिनों तक 58 लोगों की लाशें पड़ी रहीं। गांव वालों ने अंतिम संस्कार नहीं करने दिया था। 3 दिसंबर को उस समय मुख्यमंत्री रहीं राबड़ी देवी आईं। सरकार ने नौकरी और हर मृतक पर 2-2 लाख देने की घोषणा की तब ट्रॉली से शवों को उठाकर सोन नदी के किनारे ले जाया गया। एक साथ ही 58 चिताएं चलाई गईं।
सभी बरी हुए, अब मामला सुप्रीम कोर्ट में
सात अप्रैल 2010 को पटना की एक विशेष अदालत ने लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार मामले में 16 अभियुक्तों को फांसी और दस को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। वहीं 2013 में निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए पटना हाईकोर्ट ने सबूतों के अभाव में सभी 26 आरोपियों को बरी कर दिया था। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है।
बदले की आग थी, नफरत में सब जले
बिहार में 70-80 के दशक में जातीय नरसंहारों का दौर शुरू हो गया था। अगड़े-पिछड़े, वंचित और संभ्रांत के बीच छिड़ा वर्ग संघर्ष बाद में जातीय संघर्ष में बदल गया। यह नरसंहार सैकड़ों लोगों की बलि लेने लगा था। बिहार के खेत-खलिहान आंदोलनों, अन्याय और शोषण से धधक रहे थे। लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार इसी धधक का एक उदाहरण था।
कहा जाता है कि गया जिले के बारा में भूमिहार जाति के 35 लोगों को 12 फरवरी 1992 में अपहरण कर लिया गया था। सभी को नहर किनारे गला काटकर मार डाला गया था। इसी का बदला लेने के लिए एक के बाद एक नरसंहार हुए। दूसरी तरफ से भी अगड़ी जातियों को निशाना बनाया गया।
30 साल तक चलता रहा संघर्ष…
बिहार में लक्ष्मणपुर बाथे न पहला नरसंहार था और न ही अंतिम। अब तक बिहार में 10 से ज्यादा नरसंहार हुए, जिसमें सैकड़ों लोगों की जान ली गई। नरसंहार की शुरुआत 1978 में भोजपुर जिले के दंवार बिहटा गांव से हुई थी। यहां 22 दलितों की जान ले ली गई। 2007 में आखिरी नरसंहार खगड़िया जिले के अलौली गांव में हुआ था। यहां 12 धनुक जाति के लोगों की हत्या की गई थी। यह कांड नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री काल में हुई थी। इसके बाद जातीय हिंसा की कोई घटना नहीं हुई।
1987 में औरंगाबाद के देलेलचक भगौरा गांव में पिछड़ी जाति के दबंगों ने 52 दलितों की सामूहिक हत्या कर दी।
बथानी टोला- साल 1996 में भोजपुर जिले के बथानी टोला गांव में दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जाति के 22 लोगों की हत्या कर दी गई। माना जाता है कि बारा गांव नरसंहार का बदला लेने के लिए ये हत्याएं की गई थी। 2012 में उच्च न्यायालय ने इसमें शामिल 23 आरोपियों को बरी कर दिया था, जबकि निचली अदालत ने 3 को फांसी और 20 को आजीवन कारावास की सजा दी थी।
शंकर बिगहा नरसंहार- 25 जनवरी 1999 की रात बिहार के जहानाबाद जिले के शंकर बिगहा नरसंहार में 22 दलितों की हत्या कर दी गई थी।
सेनारी गांव नरसंहार- 18 मार्च 1999 की रात जहानाबाद जिले (अब अरवल जिला) के सेनारी गांव में भूमिहार जाति 34 लोगों की गला रेत कर हत्या कर दी गई थी। इस नरसंहार में प्रतिबंधित संगठन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) का नाम सामने आया था। रात को सेनारी गांव में 500-600 लोग घुसे और चारों ओर से घेर लिया। भूमिहारों के घरों से खींच-खींच के पुरुषों को बाहर निकाला गया। सभी को गांव के बाहर मंदिर के पास खड़ा कराकर हत्या कर दी गई।
मियांपुर नरसंहार- 16 जून 2000 में औरंगाबाद जिले के मियांपुर में 35 दलितों का नरसंहार किया गया था। जुलाई 2013 में उच्च न्यायलय ने सबूत के अभाव में 10 आरोपियों में से नौ को बरी कर दिया था। निचली अदालत से सभी को आजीवन कारावास की सजा हुई थी।
नोही नागवान नरसंहार- साल 1989 में जहानाबाद के नोही नागवान गांव में 18 कमजोर तबके लोगों को मार डाला गया।
तिस्खोरा और देवसहियारा नरसंहार- साल 1991 में दो बड़े नरसंहार हुए। पटना के तिस्खोरा गांव और भोजपुर जिले के देवसहियारा गांव में 15-15 दलितों की हत्या की गई थी।
बेल्छी नरसंहार- साल 1977 में पटना जिले के बेल्छी गांव में एक खास पिछड़ी जाति के लोगों ने 14 दलितों की हत्या कर दी थी।
अलौली नरसंहार- 1 अक्टूबर 2007 खगड़िया जिले के अलौली गांव में धानुक जाति के करीब एक दर्जन लोगों की सामूहिक हत्या कर दी गई थी।