यद्यपि सुखयों में इस समय गुजरात विधानसभा चुनाव है किंतु उत्तर प्रदेश में मैनपुरी लोकसभा तथा रामपुर उपचुनाव की ओर भी देश की नजर स्वाभाविक होगी। मैनपुरी मुलायम सिंह यादव के देहावसान से खाली हुआ तथा रामपुर में पूर्व मंत्री और न्यायालय द्वारा नफरती भाषण पर सजा मिलने से आजम खान की विधानसभा सदस्यता रद्द कर दी गई। मैनपुरी से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पत्नी डिंपल यादव को मैदान में उतारा हैै। मुलायम सिंह की मृत्यु के साथ ही यह प्रश्न उठने लगा था कि उनके उत्तराधिकारी के रूप में मैनपुरी से समाजवादी पार्टी किसे उम्मीदवार बनाएगीॽ शिवपाल यादव के जैसे बयान आए उससे लगा कि शायद परिवार में फिर से एकता स्थापित हो रही है। इस कारण भी मैनपुरी उपचुनाव के लिए उनका नाम चर्चा में आया।
भारतीय राजनीति कई प्रकार के आश्चर्य के लिए जानी जाती है और वही मैनपुरी में भी दिख रहा है। मैनपुरी से शिवपाल सिंह को उम्मीदवार न बनाए जाने से उन्हें नाराज होना चाहिए किंतु वे डिंपल यादव की जीत सुनिश्चित करने के लिए काम कर रहे हैं। क्षेत्र का प्रतिनिधित्व मुलायम सिंह के पास अवश्य था लेकिन धरातल पर सबसे ज्यादा काम शिवपाल यादव ही करते थे और कार्यकर्ताओं से उनका सीधा संपर्क संबंध भी है। अखिलेश को इसका आभास था इसलिए उन्होंने चाचा को साधने की रणनीति अपनाई। इसे वे आगे भी कायम रखेंगे यह कहना कठिन है‚ क्योंकि इसके पहले वे शिवपाल सिंह के मामले में अपना रवैया बदल चुके हैं। इस समय उनके सामने पत्नी डिंपल को हर हाल में जीत दिलाने का लक्ष्य है‚ इस कारण वैसा कुछ नहीं करेंगे जिनसे शिवपाल के साथ किसी तरह के मतभेद का संकेत भी जाए।
तो मैनपुरी उपचुनाव का यह एक पहलू है जिसमें समाजवादी पार्टी का आगे का समीकरण निर्भर है। जैसा अखिलेश कह रहे हैं चाचा साथ आ गए हैं तो क्या उन्हें पार्टी के अंदर कोई बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती हैॽ साथ आने का अर्थ यही है कि आगे की राजनीति एक पार्टी के अंदर करना। क्या अखिलेश ऐसा करेंगेॽ शिवपाल की सपा में वापसी होती है तो उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होगी और इससे पार्टी के समीकरण बदलेंगे। तब शिवपाल को भी प्रसपा का सपा में विलय करना होगा। उस स्थिति में वे सारे लोग जो उनके साथ हैं उन सबका समायोजन कैसे होगाॽ यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर शिवपाल को तलाशना होगा। इसके विपरीत अगर अखिलेश ने पहले की तरह ही व्यवहार किया यानी चुनाव परिणाम के बाद उनकी उपेक्षा की तब वे क्या करेंगे यह सवाल भी सामने है।
यह सपा के आंतरिक समीकरण की बात है लेकिन मैनपुरी उप चुनाव का महत्व इससे आगे भी है। लगातार अखिलेश के नेतृत्व में दो विधानसभा एवं दो लोकसभा चुनाव हार चुकी पार्टी के अंदर निराशा और भविष्य को लेकर चिंता का माहौल है। रामपुर और आजमगढ़ जैसे लोकसभा उपचुनाव में पराजय से यह बात फिर रेखांकित हुई है कि यह समय प्रदेश में भाजपा की लोकप्रियता कायम रहने का तथा सपा के जनाधार के कमजोर होते जाने का है। इस कारण सपा के समर्थकों के अंदर यह भाव गहरा हुआ है कि अब अखिलेश द्वारा मोदी‚ योगी और अमित शाह के नेतृत्व को चुनौती देकर सफलता प्राप्त करना संभव नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा विरोधियों ने एकमुश्त सपा के पक्ष में मतदान किया। वे भाजपा के विरु द्ध किसी विकल्प की ओर देख रहे हैं। इसमें डिंपल अगर मैनपुरी से चुनाव हार जाती हैं तो लंबे समय तक सपा के लिए विश्वास दिलाना कठिन होगा कि उसमें भाजपा को चुनौती देकर सत्ता में आने की संभावना मौजूद है। इस कारण मैनपुरी उप चुनाव सपा और अखिलेश यादव के लिए करो–मरो का प्रश्न है। अखिलेश यदि सपा के भविष्य का ध्यान रखते हुए मैनपुरी से परिवार के बाहर किसी मजबूत वैचारिक व्यक्तित्व को खड़ा करते तो उससे कई अच्छे संकेत निकलते।
स्थिति यह है कि पिछले चुनाव में मुलायम सिंह के जीवित रहते भी भाजपा के उम्मीदवार प्रेम सिंह शाक्य ने उन्हें अच्छी चुनौती दी तथा केवल ९४ हजार वोट से हारे। डिंपल का कद मुलायम सिंह जैसा नहीं है। वह बहू का कार्ड खेल रहीं हैं‚ उनकी मृत्यु का भावनात्मक स्वर भी उड़ेला गया है‚ उनके भाषणों के अंश सुनाए जा रहे हैं। बावजूद यह कहना कठिन है कि मैनपुरी में किसी तरह की सहानुभूति लहर है। भाजपा ने अपना उम्मीदवार बदला है। रघुराज सिंह शाक्य‚ जो सपा में ही थे और शिवपाल के करीबी माने जाते हैं खड़े हैं। जातीय समीकरणों में वहां शाक्यों की अच्छी संख्या है। दूसरे‚ भाजपा के समर्थन में वैसे भी कई प्रकार के जातीय सामाजिक समीकरण उत्तर प्रदेश में बन जा रहे हैं। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की लोकप्रियता चरम पर है। भाजपा ने परिणामों में चौंका दिया तो प्रदेश की राजनीति में लंबे समय तक उसे चुनौती देने वाला दल शायद ही खड़ा हो पाएगा॥। यही बात रामपुर विधानसभा उपचुनाव के साथ भी लागू होती है। यह आजम खान का क्षेत्र है। वे जैसा निराशाजनक भाषण दे रहे हैं कि यहां तो चुनाव परिणाम पहले ही घोषित हो गया है‚ केवल बता देना है कि भाजपा जीत गई है उससे लगता है स्थितियां उनके ज्यादा अनुकूल नहीं है। आजम का नाम वैसे भी हिन्दुत्व व भाजपा समर्थकों में कुछ कर गुजरने का भाव पैदा करता है। रामपुर लोकसभा उपचुनाव जीतने के बाद विधानसभा उपचुनाव को लेकर भी भाजपा में उत्साह है। भाजपा जीत गई तो संदेश यही जाएगा कि अब आजम खान की राजनीति के दिन खत्म हो गए हैं।
एक तरफ आजम खान और दूसरी तरफ मुलायम सिंह की विरासत के खात्मे का अर्थ प्रदेश की राजनीति और थोड़ा विस्तारित करें तो भविष्य में राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक समीकरणों की दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण होगा यह बताने की आवश्यकता नहीं है। भाजपा दोनों नहीं जीत पाती है तब भी उसके लिए इसके ज्यादा राजनीतिक मायने नहीं है क्योंकि ये दोनों स्थान उसके नहीं हैं। हालांकि उस स्थिति में उसको कितना मत प्राप्त होता है यह अवश्य महत्वपूर्ण होगा। इसलिए सपा और विशेषकर अखिलेश यादव के सामने इन दोनों सीटों को जीतने के लिए जी जान लगा देने के अलावा कोई चारा नहीं है। उनके और सपा के लिए अस्तित्व का प्रश्न है।