देश में बैंकों की संख्या और जमाधन में लगातार वृद्धि के बावजूद सूदखोरों के कुकृत्य ने समाज को शर्मसार कर दिया है। शहर से सुदूर गांव तक सूदखोरों के आतंक ने प्रशासनिक पहल और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के औचित्य को कठघरे में खड़ा कर दिया है। हाल में बिहार के नवादा सहित अनेक क्षेत्रों से कर्ज के जाल में फंसे परिवारों के साथ ह्रदययविदारक स्थिति एक सभ्य समाज के लिए कलंक है। सूदखोरों के चंगुल से प्रताडि़त परिवार के मुखिया ने ५ सदस्यों सहित आत्महत्या कर ली। क्रूर महाजनों क आतंक के चलते ऐसी ही घटना जमुई और कटिहार में भी देखने को मिली है।
इस मर्मस्पर्शी घटना ने शासन–प्रशासन के समक्ष कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सुविधा से बैंक ऋण के लिए सरकार का प्रचार–प्रसार की धरातलीय स्थिति क्या हैॽ नगर में कर्ज के कारण लंबे समय से प्रताड़ना की जानकारी स्थानीय प्रशासन को क्यों नहींॽ क्या सरकार का दायित्व केवल घटनाओं के बाद सक्रियता दर्शानी हैॽ क्या भावी घटनाओं की बढ़ती प्रवृत्ति पर प्रतिबंध के लिए पहल की प्राथमिकता नहीं हैॽ जीवन में समृद्धि की सीढ़ियां चढ़ने अथवा विशेष जरूरत पर उधार लेने की परंपरा पुरातन काल से चली आ रही है। यह प्रथा उतनी ही प्राचीन है जितना कि धन। प्राचीन प्रणाली में उधार ली गई वस्तु के बदले वस्तु की मात्रा में वृद्धि के साथ उसकी वापसी की जाती थी परंतु आधुनिक काल में राशि पर एक निश्चित ब्याज के साथ मूल धन वापसी की परंपरा है। व्यक्ति अथवा राष्ट्र की जरूरत और विकास के निमित्त कर्ज का प्रावधान एक सामान्य प्रक्रिया बन चुकी है‚ लेकिन बैंकों द्वारा कर्ज की जटिल प्रक्रिया और आमजन के प्रति उदासीनता कर्ज के लिए जरूरतमंद लोगों को निजी क्षेत्र के महाजनों के दरवाजे पर जाने को मजबूर कर देती हैं। प्रति माह तीन से दस रुपये के महंगे ब्याज पर कर्ज लेना मजबूरी हो जाता है। राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में गौर करें तो सरकार बड़े उद्योग विशेषकर स्वरोजगार के लिए उदारता से ऋण देने की घोषणा करती है। यहां तक कि छोटे व्यवसायी‚ रेहड़ी और खोंमचे वालों तक को स्वावलंबी बनाने के लिए डीआरआई (डिफेंस रेट ऑफ इंटरेस्ट) लोन सहित तीन श्रेणी के मुद्रा लोन की भी व्यवस्था की है‚ लेकिन जमीनी स्पर पर स्थिति भिन्न है। सरकार कुछ नामचीन घरानों को तो खुशी–खुशी ऋण मुहैया कराती है‚ परंतु बैंकों की जटिल ऋण प्रक्रिया और आम लोगों के प्रति उदासीन रवैये के कारण बैंक उधार देने के प्रति अपनी उदार प्रवृत्ति खो चुके हैं। यही कारण है कि विशेषकर बिहार जैसे राज्य‚ जहां बैंकों की जमा–पूंजी काफी अधिक है‚ परंतु साख जमा अनुपात (सीडी रेश्यो) मात्र ४० प्रतिशत के करीब है‚ में सरकार के लगातार प्रयासों के बावजूद बैंक ऋण देने में कोई रु चि नहीं ले रहे हैं‚ जिसके कारण राज्य का विकास भी प्रभावित हो रहा है। सरकारी बैंकों की काहिली के चलते निजी बैंक और महंगे ब्याज पर पैसे देने वाले लोग राष्ट्रीयकृत बैंकों के समानांतर खड़े हो गए हैं। जो जरूरतमंदों को पैसे तो देते हैं‚ लेकिन उनसे दबंगई के साथ महंगे ब्याज दर सहित मूल धन की वापसी कराते हैं। नवादा के व्यवसायी के सुसाइड़ नोट को पढ़ने के बाद कोई भी सूदखोरों की दबंगई और गुंड़ई का अंदाजा लगा सकता है‚ ‘पांच–छह साल से महाजन कर्ज के लिए परेशान कर रहे हैं। कर्ज का दो से तीन गुना ब्याज जमा करा चुका हूं। फिर भी कर्ज खत्म नहीं हुआ। साल–छह महीने का वक्त मांग रहा था‚ लेकिन वे सुन नहीं रहे थे। कुछ भी सुनने को‚ समझने को तैयार नहीं हुए तो विवश होकर यह कदम उठाना पड़ा।’ स्वाभाविक रूप से देखें तो ऐसा कौन शख्स होगा जो अपने हंसते–खेलते परिवार के साथ मौत को गले लगाना चाहेगा। कहीं–न–कहीं उन्हें भान होगा कि सिर्फ स्वयं आत्महत्या की तो मेरी पत्नी‚ पुत्र और पुत्रियों को भी ये लोग प्रताडि़त करेंगे। संभव है कि भविष्य की आशंकाओं को निर्मूल साबित करने के लिए ही उन्होंने ऐसा कदम उठाया होगा।
हाल में रिजर्व बैंक ने टेलीकॉलर और फील्ड एजेंट के तौर पर भर्ती का निर्देश दिया है। इनके प्रशिक्षण के साथ चेतावनी है कि परेशान या नुकसान की छूट नहीं रहेगी। आईपीसी की धारा ३८४ के तहत कार्रवाई पर सजा का प्रावधान है। सूदखोरों की मनमानी की शिकायतों के बाद २०१५ में सरकार को एक विधेयक लाने को भी कहा गया था। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक २०२० में ५२१३ लोगों ने कर्ज से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी यानी हर दिन १४ सुसाइड। २०१९ में ५९०८ लोगों ने सुसाइड की। अंतरराष्ट्रीय संस्था ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में प्रति वर्ष २.३ लाख लोग आत्महत्या करते हैं। इनमें तीन से चार प्रतिशत लोग कर्ज के कारण मौत को गले लगाते हैं। सरकार की लापरवाही से निःसंदेह सूदखोरों का आतंक सर चढ़कर बोल रहा है‚ मगर यह तथ्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि गुंड़ा बैंक या सूदखोरों की जो गुंड़ई ग्रामीण इलाकों में दिखती थी‚ वह अब शहरों की तरफ बढ़ चली है। यह वाकई गंभीर मसला है और सरकार को अपनी नीम बेहोशी से बाहर आना ही होगा। ॥ जब हम ‘भारत के लोग’ अपना नया स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं‚ बाबा नागार्जुन की एक प्रसिद्ध कविता का वह सवाल पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो गया है‚ जिसमें पहले वे पूछते हैं किसकी है जनवरी‚ किसका अगस्त हैॽ बाबा अपने सवाल को कौन त्रस्त‚ कौन पस्त और कौन मस्त तक भी ले जाते हैं‚ तो लगता है कि उन्हें आज की तारीख में हमारे सामने उपस्थित विकट हालात का पहले से इल्म था।
इन हालात की विडम्बना देखिएः एक ओर तो अब हमारे नेता देश को समता‚ स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित संपूर्ण प्रभुत्व–संपन्न‚ समाजवादी‚ पंथनिरपेक्ष‚ लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने का २६ नवम्बर‚ १९४९ को अंगीकृत‚ अधिनियमित और आत्माÌपत संकल्प को संविधान की पोथियों में भी चैन से नहीं रहने देना चाहते; और दूसरी ओर गैर–बराबरी का भस्मासुर न सिर्फ हमारी बल्कि दुनिया भर की जनतांत्रिक शक्तियों के सिर पर अपना हाथ रखकर उन्हें धमकाने पर आमादा है कि लोकतंत्र की अपनी परिकल्पनाओं को लेकर किसी मुगालते में न रहें।
अमीरी का जाया यह असुर उनके सारे के सारे मूल्यों को तहस–नहस करने का मंसूबा लिए उन्मत्त होकर आगे बढ़ा आ रहा है‚ और आरजू या मिनती कुछ भी सुनने के मूड में नहीं है। अभी जब हम अपना पिछला गणतंत्र दिवस मनाने वाले थे‚ गरीबी उन्मूलन के लिए काम करने का दावा करने वाले ऑक्सफेम इंटरनेशनल ने एक सर्वेक्षण में बताया गया था कि आर्थिक विषमता की‚ जो सभी तरह की स्वतंत्रताओं और इंसाफों की साझा दुश्मन है‚ दुनिया भर में ऐसी पौ–बारह हो गई है कि पिछले साल बढ़ी ७६२ अरब डॉलर की संपत्ति का ८२ फीसदी हिस्सा एक प्रतिशत धनकुबेरों के कब्जे में चला गया है‚ अधिसंख्य आबादी को जस की तस बदहाल रखते हुए। इस संपत्ति के रूप में धनकुबेरों ने गरीबी को सात बार सारी दुनिया से खत्म कर सकने का सार्मथ्य इस एक साल में ही अपनी मुट्ठी में कर लिया तो क्या आश्चर्य कि गरीबों के लिए ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ का अर्थ एक संचार सेवाप्रदाता कंपनी के झांसे का शिकार होना भर हो गया है। तिस पर अनर्थ यह कि ५० प्रतिशत अत्यंत गरीब आबादी को आर्थिक वृद्धि में कतई कोई हिस्सा नहीं मिल पाया है‚ जबकि अरबपतियों की संख्या बढ़कर २‚०४३ हो गई है। इनमें ९० फीसदी पुरु ष हैं यानी यह आर्थिक ही नहीं लैंगिक असमानता का भी मामला है‚ पितृसत्ता के नये सिरे से मजबूत होने का भी। बताने की जरूरत नहीं कि यह अनर्थ भूमंडलीकरण की वर्चस्ववादी नीतियों से पोषित अर्थ नीति का अदना–सा ‘करिश्मा’ है‚ और यह गरीबों के ही नहीं‚ बढ़ते धनकुबेरों के प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी हादसे से कम नहीं है क्योंकि इन कुबेरों ने यह बढ़त कठिन परिश्रम और नवाचार से नहीं‚ बल्कि संरक्षण‚ एकाधिकार‚ विरासत और सरकारों के साथ साठगांठ के बूते कर चोरी‚ श्रमिकों के अधिकारों के हनन और ऑटोमेशन की राह चलकर स्पर्धा का बेहद अनैतिक माहौल बनाकर पाई है। निश्चित ही यह इस अर्थनी ति की निष्फलता का द्योतक है क्योंकि इन कुबेरों द्वारा संपत्ति में ढाल ली गई पूंजी अंततः अर्थ तंत्र से बाहर होकर पूरी तरह अनुत्पादक हो जानी है‚ और उसे इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ना कि कई अरब गरीब आबादी बेहद खतरनाक परिस्थितियों में भी ज्यादा देर तक काम करने और अधिकारों के बिना गुजर–बसर करने को मजबूर है।
अपने देश की बात करें तो यहां २०१७ में उत्पन्न कुल संपत्ति का ७३ प्रतिशत हिस्सा ही एक प्रतिशत सबसे अमीरों के नाम रहा है। यह विश्वव्यापी औसत ८२ से कम है‚ लेकिन देश की जिस अर्थव्यवस्था के अभी हाल तक ‘दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था’ होने का दावा किया जाता रहा है‚ उसमें अमीरों द्वारा सब–कुछ अपने कब्जे में करते जाने की रफ्तार इतनी तेज हो गई है कि २०१६ में ५८ प्रतिशत संपत्ति के स्वामी एक प्रतिशत अमीरों के कब्जे में अब ७३ प्रतिशत संपत्ति है यानी २०१७ में उनकी कुल संपत्ति में २०.७ लाख करोड़ की बढ़ोतरी हुई‚ जो उसके पिछले साल ४.८९ लाख करोड़ रु पये ही थी। चूंकि हमने बेरोकटोक भूमंडलीकरण को सिर–माथे लेकर अनेकानेक विदेशी कंपनियों को देश में कमाया मुनाफा देश से बाहर ले जाने की छूट भी दे रखी है‚ इसलिए विदेशी अरबपतियों को खरबपति बनाने में भी हमारा कुछ कम योगदान नहीं है। ऐसे में यह समझने के लिए अर्थशास्त्र की बारीकियों में बहुत गहरे पैठने की जरूरत नहीं कि यह अमीरी ज्यादा से ज्यादा लोगों को आर्थिक विकास का फायदा देकर यानी ‘सबका साथ‚ सबका विकास’ के नारे को सदाशयता से जमीन पर उतारकर संभव ही नहीं थी।
इसलिए विकास के सारे लाभों को लगातार कुछ ही लोगों तक सीमित रखकर हासिल की गई है। तथाकथित आर्थिक सुधारों के उस मानवीय चेहरे पर अमानवीयतापूर्वक तेजाब डालकर‚ जिसकी चर्चा २४ जुलाई‚ १९९१ को देश में भूमंडलीकरण की नीतियों का आगाज करते हुए उसके सबसे बड़े पैरोकार तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने की थी।
गैर–बराबरी के ये आंकड़े हमारे लिए इस लिहाज से ज्यादा चिंतनीय हैं कि ये हमारे दुनिया का सबसे ‘महान’ जनतंत्र होने के दावे की कनपटी पर किसी करारे थप्पड़ से कम नहीं हैं। इसलिए और भी कि जहां कई अन्य छोटे–बड़े देशों ने भूमंडलीकरण के अनर्थों को पहचानना और उनसे निपटने के प्रतिरक्षात्मक उपाय करना शुरू कर दिया है‚ हमारे सत्ताधीश कतई किसी पुनर्विचार को राजी नहीं हैं। उन्हें इस सवाल से कतई कोई उलझन नहीं होती कि अगर इस जनतंत्र के सात दशकों का सबसे बड़ा हासिल यह एक प्रतिशत की अमीरी ही है‚ तो बाकी निन्यानवे प्रतिशत के लिए इसके मायने क्या हैंॽ
बड़े–बड़े परिवर्तनों के दावे करके आई नरेन्द्र मोदी सरकार को भी अपने चार सालों में इस अनर्थ नीति को बदलना गंवारा नहीं है। भले ही यह नीति कम से कम इस अर्थ में तो भारत के संविधान की घोर विरोधी है कि यह किसी भी स्तर पर उसके समता के मूल्य की प्रतिष्ठा नहीं करती और उसके संकल्पों के उलट आर्थिक ही नहीं‚ प्राकृतिक संसाधनों के भी अंधाधुंध संकेंद्रण पर जोर देती है। यह सरकार इस सीधे सवाल का सामना भी नहीं करती कि किसी एक व्यक्ति के अमीर बनाने के लिए कितनी बड़ी जनसंख्या को गरीबी के हवाले करना पड़ता है‚ और क्यों हमें ‘ह्रदयहीन’ पूंजी को ब्रह्म और ‘श्रम के शोषक’ मुनाफे को मोक्ष मानकर ‘सह्रदय’ मनुष्य को संसाधन की तरह संचालित करने वाली अर्थव्यवस्था के लिए अनंतकाल तक अपनी सारी लोकतांत्रिक–सामाजिक नैतिकताओं‚ गुणों और मूल्यों की बलि देते रहना चाहिएॽ
एक ओर इन सवालों के जवाब नहीं आ रहे और दूसरी ओर इन्हें पूछने वाले हकलाने लग गए हैं‚ तो साफ है कि हमारे लोकतंत्र में जनतांत्रिक विचारों की कमी खतरनाक स्तर तक जा पहुंची है। यह कमी ऐसे वक्त में कोढ़ में खाज से कम नहीं है कि गरीबों को और गरीब और अमीरों को और अमीर बनाने वाली आर्थिक नीति के करिश्मे अब किसी एक देश तक सीमित नहीं हैं। वे सारे लाभों को अमीर देशों के लिए सुरक्षित कर उन्हें और अमीर जबकि गरीब देशों को और गरीब बना रही हैं। एक प्रतिशत लोगों की अमीरी की यह उड़ान हमें कितनी महंगी पड़ने वाली है‚ जानना हो तो बताइए कि गरीबों के लिए इस गैरबराबरी से उबरने की कल्पना भी दुष्कर हो जाएगी तो वे क्या करेंगेॽ