भारत की मौजूदा उच्च शिक्षा प्रणाली से प्रति वर्ष लगभग ३.७ करोड़ विद्यार्थी डिग्री लेकर देश के सामाजिक–आर्थिक विकास के सोपानक्रम से स्वयं को जोड़ने का संकल्प लेते हैं‚ लेकिन सवाल है कि क्या हमारे उपाधिधारक अकादमिक रूप से समृद्ध होने के साथ–साथ समाज के योग्य नागरिक बनने और समकालीन युग की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हैंॽ
निश्चित रूप से हमारी शिक्षा–प्रणाली उस स्तर की होनी चाहिए‚ जिससे राष्ट्र के साथ–साथ समाज का भी चौतरफा व समुचित विकास हो सके। शिक्षा का लक्ष्य अंततः एक ऐसे उन्मुक्त और आत्मविश्वास से भरे व्यक्ति का निर्माण करना होता है जो सभी विपरीत परिस्थितियों व चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक कर सकें। ऐसे में निःसंदेह किसी राष्ट्र की शिक्षा की गुणवत्ता ही उसके राष्ट्रीय विकास के स्तर का आईना है। भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में उच्च–शिक्षा के क्षेत्र के विकास–विस्तार में हमारे विश्वविद्यालयों की अहम भूमिका है। भारत की उच्च शिक्षा–प्रणाली के पास वर्तमान में विकास‚ गुणवत्ता और समान पहुंच जैसे कई उद्देश्यों को प्राप्त करने का दबाव है।
भारतवर्ष एक युवा राष्ट्र है जहां की युवा आबादी उत्कृष्टता की ओर सदा उन्मुख रही है। अर्थशा्त्रिरयों का कहना है कि भारत सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में‚ पश्चिम के अधिकांश और जापान व चीन जैसे देशों की तुलना में‚ अतिरिक्त २ प्रतिशत अधिक है। यह महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय क्षमता निश्चित ही भारत को एक अभूतपूर्व बढ़त प्रदान करती है। २०३० तक भारत के दुनिया का सबसे युवा राष्ट्र होने की संभावना है‚ जिसमें लगभग १४ करोड़ लोग उच्च शिक्षा संस्थान के पोर्टल में प्रवेश करने के लिए तैयार हैं। गौरतलब है कि दुनिया में हर चार स्नातकों में से एक भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली का उत्पाद होगा। नवीनतम ज्ञानात्मक कौशल के विकास पर ध्यान केंद्रित करते हुए इस उच्च जनसांख्यिकीय लाभांश क्षमता का दोहन करने की तत्काल आवश्यकता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की हालिया रिपोर्ट के अनुसार कम–से–कम ५४ प्रतिशत कर्मचारियों को अपने कौशलों को परिवर्धित करने और नये सिरे से सीखने की जरूरत पड़ेगी। कॉरपोरेट क्षेत्र में ‘उद्यमिता’ पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है। अधिकांश छात्र ‘बेहतर नौकरियां और उच्च वेतनमान’ चाहते जरूर हैं‚ परंतु ‘उद्यमिता’ में शामिल अनिश्चितताओं के साथ संघर्ष करने के लिए वे तैयार नहीं हैं। शैक्षिक संस्थान उद्यमिता अनुकूल तंत्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो आज शैक्षिक संस्थान उद्यमियों के विकास में मुख्य कारक की भूमिका निभाते हुए पूरे देश के लिए अधिक रोजगार व धन का उत्पादन कराने में सक्षम हैं। अब हमारे पास बड़ी संख्या में कुशल शिक्षक और टेक्नोक्रेट उपलब्ध हैं। नोबल पुरस्कार के विजेता पॉल क्रुगमैन ने भारत में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा था कि ‘जापान अब एक महाशक्ति नहीं रह गया है‚ क्योंकि इसकी कामकाजी उम्र ढल गई है‚ और चीन का भी यही हाल है। ऐसी स्थिति में‚ पूरे एशिया में भारत नेतृत्व कर सकता है‚ लेकिन तब जब वह सेवाप्रदाता क्षेत्रों के साथ–साथ अपने विनिर्माण क्षेत्र को भी विकसित करे।’
प्रासंगिक बने रहने के लिए तथा भविष्य में कदम रखने के लिए निरन्तर सीखते रहने की भावना छात्रों के लिए बहुत ही आवश्यक है‚ क्योंकि इससे उनका कॅरियर भी परिभाषित होता है। सशक्त नेतृत्व–कौशल से हर मौजूदा स्थिति का सामना किया जा सकता है‚ इससे नवाचार को भी बढ़ावा मिलेगा। यहां यह भी जान लेना आवश्यक है कि नेतृत्व किसी धारित पद में नहीं‚ बल्कि उस व्यक्ति के चरित्र व व्यवहार के सम्पादन में ही अंतर्निहित होता है। अब हम अपने इतिहास के उस निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं जब हमारी शिक्षा व्यवस्था के क्रियान्वयन के साथ खुद को एक नये सांचे में ढाल रही है। यह समय सचमुच बहुत ही महत्वपूर्ण है। चुनौतियां बड़ी हैं और दांव ऊँचे हैं। दुनिया के अनेकानेक हिस्से संघर्ष और उथल–पुथल की एक अजीब स्थिति में हैं। छात्र–छात्राएं भी परिवर्तन के बहुमुखी दौर से गुजर रहे हैं; उन्हें अच्छे मूल्यों और गुणों को आत्मसात करके हर चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। उपाधिधारक छात्रों को शिक्षा जगत की सबसे मूल्यवान डिग्रियों में से एक विशिष्ट डिग्री लेकर दुनिया के सामने आना चाहिए।
यह बात ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि केवल एक शिक्षित देश ही एक विकसित देश बनने की आकांक्षा रख सकता है। ऐसे में हमें उच्च शिक्षा संस्थान के मामले में विश्वस्तरीय संस्थान तैयार करने के साथ–साथ उनकी संख्या में वृद्धि करने की भी आवश्यकता है। नवोन्मेषी मानिसकतायुक्त उच्च शिक्षा ही हमारे समाज व समुदाय दोनों को आगे ले जाने वाली कुंजी है। इसके लिए व्यापक सार्वजनिक और निजी भागीदारी की आवश्यकता है। वैश्वीकरण‚ प्रतिस्पर्धा और ज्ञान–संचालित अर्थव्यवस्था के चलते उच्च शिक्षा संस्थानों की वास्तविक संख्या निर्धारित करना कठिन हो गया है। जिस प्रकार भारत सरकार हमारे देश में विदेशी विश्वविद्यालयों की स्थापना करने की योजना बना रही है‚ उसी प्रकार हमें शिक्षा के भारतीयकरण के संदेश को दूर दूर तक पहुंचाने के लिए विदेशों में अपनी भी शाखा की स्थापना की पहल भी करनी चाहिए। जैसे–जैसे उपाधि धारक छात्र व्यक्तिगत और व्यावसायिक जीवन के एक नये मोड़ में प्रवेश करते हैं‚ उन्हें अपने सभी निर्णय स्वयं लेने होते हैं।
छात्रों को एक गंभीर और प्रतिबद्ध टीम के खिलाड़ी की भांति अपनी टीम के साथ सकारात्मक भावना प्रदर्शित करनी चाहिए। उन्हें कार्य–परिवर्त्य सपनों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए‚ उनमें जोखिम लेने का साहस होना चाहिए और असफलता की स्थिति में हताश नहीं होना चाहिए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति जिसका मुख्य उद्देश्य मानव की सभी क्षमताओं (अकादमिक उत्कृष्टता‚ बुद्धिमत्ता‚ आध्यात्मिक‚ सामाजिक‚ भावनात्मक‚ नैतिक‚ पेशेवर‚ तकनीकी) को एक एकीकृत तरीके से विकसित करना है। एक छात्र जो शिक्षित एवं उपाधि धारक है‚ उसे एक सभ्य समाज का सच्चा नागरिक होना भी आवश्यक है। छात्रों को दीक्षित होकर वास्तविक दुनिया में कदम रखने का अर्थ है अकादमिक श्रेष्ठताओं से परिपूर्ण एक सभ्य भारतीय सामाजिक नागरिक बनना‚ जो जीवन में हर प्रकार से सफल हो सके।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति जिसका मुख्य उद्देश्य मानव की सभी क्षमताओं (अकादमिक उत्कृष्टता‚ बुद्धिमत्ता‚ आध्यात्मिक‚ सामाजिक‚ भावनात्मक‚ नैतिक‚ पेशेवर‚ तकनीकी) को एक एकीकृत तरीके से विकसित करना है। एक छात्र जो शिक्षित एवं उपाधि धारक है‚ उसे एक सभ्य समाज का सच्चा नागरिक होना भी आवश्यक है। छात्रों को दीक्षित होकर वास्तविक दुनिया में कदम रखने का अर्थ है अकादमिक श्रेष्ठताओं से परिपूर्ण एक सभ्य भारतीय सामाजिक नागरिक बनना…………..