आज देवउठनी एकादशी है। चातुर्मास के चार महीने तक योगनिद्रा में रहने के बाद भगवान विष्णु इसी दिन जागते हैं। इसलिए इसे देव प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं। इस पर्व के बाद से ही शादियां, गृह प्रवेश और मांगलिक काम शुरू हो जाते हैं।
शादी और अन्य मांगलिक कार्य 4 नवंबर से शुरू नहीं हो पाएंगे क्योंकि अभी शुक्र तारा अस्त है, जो 18 नवंबर से उदय होगा। इसलिए ज्यादातर शादियां इस दिन के बाद शुरू होंगी। फिर भी कुछ जगहों पर 4 नवंबर से शादियां हो रही हैं, क्योंकि देव प्रबोधिनी एकादशी को अबूझ मुहूर्त माना गया है।
ये देव विवाह का दिन भी है। घरों में गन्ने के मंडप सजेंगे और शाम को गोधुली बेला में तुलसी-शालग्राम विवाह होगा। मंदिरों में भी विशेष पूजा होगी। इस बार एकादशी पर मालव्य, शश, पर्वत, शंख और त्रिलोचन नाम के पांच राजयोग योग बन रहे हैं। साथ ही तुला राशि में चतुर्ग्रही योग बन रहा है। इस शुभ संयोग में देव प्रबोधिनी एकादशी की पूजा करने से अक्षय पुण्य मिलेगा। कई सालों बाद एकादशी पर ऐसा संयोग बना है।
शुक्र अस्त लेकिन अबूझ मुहूर्त के कारण होंगी शादियां
ज्योतिष ग्रंथों में देवउठनी एकादशी को अबूझ मुहूर्त कहा गया है। यानी बिना पंचांग देखे इस दिन मांगलिक काम किए जा सकते हैं। इस परंपरा के चलते कई लोग इस दिन शादियां करेंगे। वहीं, ज्योतिषियों का कहना है कि शादी के लिए जरूरी तिथि, वार, नक्षत्र न मिले तो इस दिन विवाह कर सकते हैं लेकिन शुक्र ग्रह अस्त हो तो अबूझ मुहूर्त पर भी शादी नहीं करनी चाहिए।
इस साल सिर्फ 9 मुहूर्त
देव उठने के साथ अब शादियों का सीजन शुरू होगा। लेकिन इस बार शुक्र अस्त होने से सीजन का पहला मुहूर्त 22 नवंबर को है। इसको मिलाकर 9 दिसंबर तक शादियों के लिए 9 दिन शुभ रहेंगे। फिर धनु मास शुरू हो जाने के कारण अगले साल 15 जनवरी से शादियां शुरू होंगी। जो कि 28 फरवरी तक चलेंगी।
मार्च और अप्रैल 2023 में नहीं है एक भी मुहूर्त
अगले साल मार्च में होलाष्टक और मीन मास रहेगा। यानी सूर्य, गुरु की राशि मीन में रहेगा। जब ऐसा होता है तो शादियां नहीं की जाती। अप्रैल में गुरु अस्त हो जाएगा इसलिए इन दोनों महीनों में विवाह मुहूर्त नहीं होंगे। 4 मई 2023 से शादियों के मुहूर्त फिर शुरू होंगे जो 27 जून तक रहेंगे। इसके एक दिन बाद 29 जून को देवशयनी एकादशी रहेगी, इस दिन सारे मांगलिक कार्य फिर चार महीनों के लिए बंद हो जाएंगे।
शंख बजाकर जगाते हैं भगवान विष्णु को
इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में तीर्थ स्नान कर के शंख और घंटा बजाकर मंत्र बोलते हुए भगवान विष्णु को जगाते हैं। फिर उनकी पूजा करते हैं। शाम को गोधुलि वेला यानी सूर्यास्त के वक्त भगवान शालग्राम और तुलसी का विवाह करवाया जाता है। साथ ही घरों और मंदिरों में दीपदान करते हैं।
देव जागने और तुलसी विवाह से जुड़ी कहानियां…
1. चार महीने बाद योग निद्रा से जागते हैं भगवान
शिव पुराण के मुताबिक, भगवान विष्णु और शंखासुर के बीच बहुत लंबा युद्ध हुई। शंखासुर को मारने के बाद भगवान विष्णु बहुत थक गए। तब भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की एकादशी को क्षीर सागर में आकर सो गए। उन्होंने सृष्टि चलाने का काम भगवान शिव को सौंप दिया। फिर विष्णु कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को जागे। तब शिवजी सहित सभी देवी-देवताओं ने भगवान विष्णु की पूजा की और वापस उन्हें ये जिम्मेदारी सौंप दी। इसलिए कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देव प्रबोधिनी कहते हैं।
2. चार महीने पाताल में बीताने के बाद लौटते हैं भगवान
वामन पुराण का कहना है कि सतयुग में भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकिर राजा बलि से तीन कदम जमीन दान में मांगी थी। फिर विशाल रूप लेकर दो कदम में पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग नाप लिया। तीसरा पैर बलि ने अपने सिर पर रखने को कहा। पैर रखते ही बलि पाताल में चले गए। भगवान ने खुश होकर उन्हें पाताल का राजा बना दिया और वरदान मांगने को कहा।
बलि ने कहा आप मेरे महल में रहें। भगवान ने ये वरदान दे दिया। लेकिन लक्ष्मी जी ने बलि का भाई बनाया और विष्णु को वैकुंठ ले गईं। जिस दिन विष्णु-लक्ष्मी वैकुंठ गए उस दिन ये ही एकादशी थी।
3. वृंदा के श्राप से भगवान बने पत्थर के शालग्राम
शिव पुराण के मुताबिक शिवजी के तेज से जालंधर पैदा हुआ। इंद्र को हरा कर वो तीनों लोक का स्वामी बन गया। शिवजी ने उसे समझाया लेकिन वो नहीं समझा। तब शिवजी ने उससे युद्ध किया लेकिन पत्नी वृंदा के सतीत्व की ताकत से जालंधर को हराना मुश्किल था। तब विष्णु जी ने जालंधर का रूप लिया और वृंदा के साथ रहने लगे। वृंदा का सतीत्व टूटा और जालंधर मर गया।
वृंदा को पता चला तो उन्होंने विष्णु को पत्थर बनने का श्राप दिया। लक्ष्मी जी ने विष्णु को श्राप मुक्त कराने के लिए वृंदा से विनती की। वृंदा ने विष्णु को हमेशा अपने पास रहने की शर्त पर मुक्ति दी और खुद सती हो गईं। वृंदा की राख से पौधे ने जन्म लिया। ब्रह्माजी ने इसे तुलसी नाम दिया। विष्णु ने भी तुलसी को हमेशा शालग्राम रूप में साथ रहने का वरदान दिया। तब से तुलसी-शालग्राम विवाह की परंपरा चल रही है।