जम्मू कश्मीर के शोपियां में एक निरपराध कश्मीरी पंडित की हत्या ने फिर देश को उद्वेलित किया है। वास्तव में यह लक्षित हिंसा है‚ जिसे आतंकवादी बीच–बीच में अंजाम दे रहे हैं। पूरण कृष्ण भट्ट की हत्या उस समय की गई जब वो अपने घर के पास चौधरी कुंड से बाग की तरफ जा रहे थे। इस वर्ष यह चौथे कश्मीरी पंडित की हत्या है। तीन वर्ष के आंकड़े को देखें तो अभी तक ९ कश्मीरी पंडित आतंकवादियों के हमले की भेंट चढ़ चुके हैं।
२०२० में एक और २०२१ में चार कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतारा गया। जाहिर है‚ इस घटना के बाद कश्मीरी हिंदुओं या गैर मुस्लिमों के अंदर पहले से कायम भय निश्चित रूप से बढा होगा। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति की ओर से कहा भी गया है कि हत्या केंद्र सरकार के लिए संदेश है कि यहां सब ठीक नहीं है। जब–जब आतंकवादियों ने ऐसी हत्या की है; कश्मीरी पंडितों के संगठनों की ओर से उन्हें घाटी से बाहर स्थानांतरित करने की मांग हुई है। पंडितों सहित हिंदू संगठनों के लोग लगातार प्रदर्शन भी करते रहे हैं। काफी लोगों ने घाटी छोड़ा भी है। सामान्य तौर पर देखें तो इस प्रकार के प्रदर्शनों को हम गलत नहीं ठहरा सकते। १९९० में कश्मीरी हिंदुओं के पलायन के पीछे सबसे बड़ा कारण आतंकवादियों की हिंसा का भय ही था। आज अगर घाटी में पहले से गिने–चुने बचे या स्थिति सामान्य होने की तस्वीर देखते हुए वहां फिर से नौकरी आदि के लिए रह रहे कश्मीरी हिंदुओं को निशाना बनाया जा रहा है तो उनके अंदर भय और भविष्य को लेकर चिंता स्वाभाविक है।
इसमें यह मांग भी पहली दृष्टि में आपको नावाजिब नहीं लगेगा कि हमें यहां से बाहर स्थानांतरित किया जाए‚ लेकिन क्या स्थाई सुरक्षा का यही एकमात्र उपाय हैॽ इसका उत्तर देते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि कश्मीरी पंडितों की हत्या आतंकवादी समूहों की लक्षित हिंसा की सुनियोजित रणनीति के तहत हो रही है। पिछले १० महीनों में यह २०वीं लक्षित हत्या है। वास्तव में आतंकवादी संगठनों ने जम्मू–कश्मीर में अपनी रणनीति के तहत वैसे आसान लक्ष्यों को निशाना बनाया है जिनसे एक साथ कई उद्देश्य सिद्ध हो। यानी उनकी हिंसक उपस्थिति दर्ज हो तथा देश भर में इसकी गूंज सुनाई पड़े। इसके साथ एक हत्या भर से इतना हंगामा और विरोध हो जिससे लगे कि कश्मीर के हालात सरकार के दावों के विपरीत अभी तक ठीक नहीं हुए हैं। लोगों में भय पैदा हो तथा वे यहां से पलायन करने को मजबूर हो जाएं। इसमें कश्मीरी गैर मुस्लिम यानी हिंदू‚ सिख‚ ऐसे मुसलमान जो भारत की बात करते हो या तिरंगा उठाते हो‚ कश्मीर से बाहर के श्रमिक या खोंमचे आदि लगाने वाले‚ ऐसे पुलिसकर्मी जो आतंकवादियों का विरोध करते हैं आदि शामिल हैं। आप देखेंगे कि पिछले डेढ़ वर्षों में इस तरह की हत्याएं बीच–बीच में होती रही है। आकलन करें तो दो महीने बाद आतंकवादियों ने फिर से कश्मीरी पंडित को निशाना बनाया है। इन हत्याओं की जिम्मेवारी भी अलग–अलग संगठनों ने ली है। इस बार कश्मीर फ्रीडम फाइटर्स नामक संगठन ने इस हत्या की जिम्मेदारी ली है। इन दिनों कश्मीर में अलग–अलग आतंकवादी संगठन हत्याओं की जिम्मेवारी ले रहे हैं। इनमें ऐसे संगठन शामिल हैं‚ जिनका नाम कभी सुना नहीं गया।
लश्कर–ए–तैयबा‚ हिजबुल मुजाहिद्दीन‚ हरकत उल मुजाद्दिीन‚ हरकत उल अंसार जैसे पुराने संगठनों का नाम कम सुनाई पड़ रहा है। इसका अर्थ साफ है। कश्मीर में अनुच्छेद ३७० हटाने के पूर्व से जिन सुरक्षा उपायों की प्रक्रिया आगे बढ़ी उनके परिणामस्वरूप जम्मू–कश्मीर में आतंकवादी समूहों के लिए पहले की तरह बड़े हमले करना कठिन हो गया है। इन सुरक्षा उपाय में जमात–ए–इस्लामी जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगाने से लेकर इनके सहित हुर्रियत के कई नेताओं तथा पूर्व आतंकवादियों की गिरफ्तारियां तथा बचे–खुचे हुर्रियत नेताओं की सुरक्षा व्यवस्था हटाना या कम करना शामिल है। मुख्यधारा की पार्टियों में भी जो अवांछित तत्व थे उन पर भी निगरानी की गई तथा उन्हें कई तरीकों से यह संदेश दिया गया‚ जिससे वे हिंसक गतिविधियों को समर्थन और सहयोग देने से बचें। इन सबका असर हुआ है‚ लेकिन यह मान लेना सही नहीं होगा कि कश्मीर के सभी भागों से आतंकवादी समूहों और उनको सहयोग समर्थन देने वाले तत्वों का समूल नाश हो गया है। यह बात सही है कि जो बदलाव हम असंभव मान रहे थे वह सब सामने घटित हो रहा है। लाल चौक पर १५ अगस्त और २६ जनवरी को तिरंगे के साथ भव्य कार्यक्रमों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसी तरह कश्मीर के उन भागों में जहां आतंकवादियों–अलगाववादियों का नियंत्रण था‚ स्वतंत्रता दिवस‚ गणतंत्र दिवस सहित अन्य कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं। यह सब पहले संभव नहीं था‚ लेकिन दूसरी ओर कई क्षेत्रों में अभी काम किया जाना शेष है। इनमें सबसे मुख्य है कश्मीरी हिंदुओं‚ सिखों‚ भारत का झंडा उठाने वाले मुसलमानों‚ गैर कश्मीरियों आदि की सुरक्षा। सरकारी योजना के तहत अगर सारे चार हजार से ज्यादा नौकरियों के लिए इन्हें वहां ले जाया गया तो इनकी सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी सरकार की है। एक भी कश्मीरी हिंदू के मारे जाने से संपूर्ण व्यवस्था कठघरे में खड़ी हो जाती है। गैर कश्मीरी मजदूर या खोंमचा लगाने वाला मारा जाता है तो उसकी गूंज भारत सहित पूरी दुनिया में सुनाई पड़ती है। कोई कह सकता है कि गली–गली में किसी सरकार के लिए सुरक्षा व्यवस्था संभव नहीं।
यह तर्क आप जम्मू कश्मीर के मामले में नहीं दे सकते। आपको सुरक्षा सुनिश्चित करनी ही होगी। इसके लिए खुफिया तंत्र को और बेहतर करना तथा ओवरग्राउंड वर्कर यानी आतंकवादियों को सहयोग समर्थन देने वाले तत्वों के विरु द्ध समग्र अभियान वाली कार्रवाई जरूरी है। इसके साथ कश्मीरी पंडितों सहित सभी को यह समझना पड़ेगा की पलायन से आप आतंकवादियों और सीमा पार पाकिस्तान की योजना को ही सफल बनाएंगे। सरकार पूरी समीक्षा के साथ कश्मीरी पंडि़तों और दूसरे राज्यों के श्रमिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के उपाय करे‚ पर इन्हें भी ऐसी प्रतिक्रियाों और निर्णयों से बचना पड़ेगा जिनसे आतंकवादियों और उनको शह देने वालों को यह कहने का अवसर मिल जाए कि कश्मीर पर भारत का नियंत्रण आज भी पूरी तरह नहीं हुआ और लोग वहां से पलायन करने को मजबूर हैं।