चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने रविवार को देश की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) की 20वीं राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए ताइवान का भी जिक्र किया। उन्होंने एक तरह से ताइवान को चेतावनी देते हुए कहा कि उसे चीन में शामिल करने के लिए सभी तरह के विकल्प खुले हुए हैं। अगर जरूरत पड़ी तो सैन्य बल का इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकेंगे। वास्तव में बीजिंग ‘एक चीन’ नीति के तहत ताइवान को अपना प्रांत मानता है और इसके एकीकरण पर जोर देता रहा है‚ जबकि ताइवान अपने को स्वतंत्र और संप्रभु देश मानता है। व्यावहारिक दृष्टि से ताइवान १९४९ से ही अपने को स्वतंत्र मानता है‚ लेकिन दूसरी ओर चीन का मानना है कि हमारी ‘एक चीन’ नीति के अंतर्गत यह प्रांत हमारा अभिन्न हिस्सा है। अगर यह मान भी लिया जाए कि ताइवान चीन का प्रांत है‚ लेकिन फिर भी यह अहम सवाल है कि करीब ६०–७० वर्षों से ताइवान लोकतांत्रिक शासन पद्धति से शासित हो रहा है‚ जबकि चीन में अधिनायकवादी कम्युनिस्ट शासन है। ऐसे में जोर–जबरदस्ती और सैन्य बल के जरिए किसी स्वशासित प्रदेश को अपने देश में विलय कराना क्या उचित होगा। जाहिर है विश्व जनमत इसे स्वीकार नहीं करेगा। राष्ट्रपति शी को चाहिए कि वह ताइवान का एकीकरण करने से पहले वहां की जनता का विश्वास अर्जित करें। इस पर रायशुमारी होनी चाहिए। चीन का ताइवान की जनता के विश्वास और आशा के अनुरूप एक ऐसा राजनीतिक मॉडल तैयार करना चाहिए जो सर्वमान्य हो। एक तरीका यह भी हो सकता है कि हांगकांग की तरह ताइवान में भी ‘एक देश दो प्रणाली’ लागू की जाए। हांगकांग को चीनी शासन को सौंपे जाने के बाद यही प्रणाली लागू की गई थी। ‘एक देश दो प्रणाली’ की नीति हांगकांग को उसके अपने कानून और वहां की सरकार को अधिकार संपन्न बनाती है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में देश के शांतिपूर्ण एकीकरण अभियान को साकार करने के लिए तब के चीनी नेताओं ने ‘एक देश दो व्यवस्था’ की अवधारणा पेश की थी और हांगकांग के मामले में इस नीति का इस्तेमाल किया गया था। ताइवान की जमीनी हकीकत को ध्यान में रखकर इस व्यवस्था को लागू किया जाना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रपति शी इस बारे में अपना लचीला रु ख अपनाएंगे। अगर शी बल प्रयोग से ताइवान के एकीकरण पर जोर देते हैं तो ताइवान की मदद करने वाले अमेरिका‚ ऑस्ट्रेलिया‚ जापान आदि देश किस तरह की रणनीति बनाते हैं यह देखने वाली बात होगी।
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