चुनाव में राजनीतिक दलों द्वारा आम जनता को मुफ्त सौगात बांटने की राजनीतिक संस्कृति पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव आयोग ने पहल की है। हालांकि यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है‚ और अगस्त महीने में तब के प्रधान न्यायाधीश एन वी रमन ने इस मामले को नई पीठ के पास स्थानांतरित कर दिया था। लोगों को याद होगा कि जुलाई में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मुफ्त की सौगात को ‘रेवड़ी संस्कृति’ का नाम देते हुए इसे विकास के लिए बाधक बताया था। जस्टिस रमन ने भी इस संस्कृति को गंभीर मुद्दा माना था। प्रधानमंत्री ने मुफ्त सौगात बांटने को लेकर जो सवाल खड़े किए हैं‚ वे बिल्कुल जायज हैं। राजनीतिक दलों को छोड़कर देश की जितनी भी वित्तीय संस्थाएं हैं‚ उनका मानना है कि इसका राज्यों की आर्थिक व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। देश में फिलहाल चुनावी वादों को रोकने के लिए कोई कानून नहीं है लेकिन शीर्ष अदालत ने आयोग को सुब्रहमण्यम बालाजी के मामले में मुफ्त की सौगात को मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट में शामिल करने का निर्देश देते हुए कहा था कि संविधान के अनुच्छेद ३२४ के तहत आयोग को चुनाव संचालन के नियम बनाने की शक्ति है। चुनाव आयोग ने इसी का हवाला देते हुए आचार संहिता में संशोधन का प्रस्ताव दिया है। आयोग के प्रस्ताव के मुताबिक राजनीतिक पार्टियों को घोषणा पत्र में मुफ्त रेवडियों के वादों के साथ–साथ वोटरों को यह भी जानकारी देनी होगी कि इसके लिए वे कहां से राजस्व जुटाएंगे। आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को पत्र लिखकर १९ अक्टूबर तक जवाब मांगा है। अब आगे देखना है कि आयोग के इस प्रस्ताव पर राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बन पाती है या नहीं। वास्तव में राजनीतिक दल आम जनता को ढांचागत सुविधा उपलब्ध कराने और खुद की क्षमता पर आत्मनिर्भर बनाने का जन कल्याण का वास्तविक मार्ग ही भूल गए हैं। इसके बदले वे सत्ता के लिए सरल मार्ग ढूंढते हैं‚ और आम जनता को लोभ और लालच का शिकार बना कर चुनावी वैतरणी पार करना चाहते हैं। मुफ्त सौगात या चुनावी रेवड़ी संस्कृति आगे चलकर गंभीर वित्तीय संकट पैदा करेगी। इस पर तत्काल रोक लगनी चाहिए।
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