आज दशहरा है। दशहरे पर्व का एक सांस्कृतिक पहलू यह भी कि दशहरा उत्तर भारत में कृषि महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। दशहरे पर वर्षा समाप्त हो जाती है। किसान मक्का‚ ज्वार‚ बाजरा और धान की पकी हुई फसल को खेतों से सहेजकर अपने खलिहानों में लाता है। उमंग और उल्लास से लबरेज किसान अपनी आंतरिक खुशी को विजयादशमी के अनुष्ठान के रूप में व्यक्त करता है। विजया दशमी के दिन किसान परिवारों में कृषि यंत्रों व पकी फसलों के दशांश–पूजन की परंपरा सदियों से चली आ रही है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुरूप विजयादशमी रावण रूपी बुराई पर राम जैसे मर्यादित महापुरुष की जीत के उल्लास का वार्षिक पर्व है‚ लेकिन हर वर्ष शोषण‚ विषमता और अन्याय का दशानन तुलनात्मक रूप से बड़ा आकार ग्रहण कर लेता है। भ्रष्टाचार‚ जमाखोरी और कमरतोड़ महंगाई का रावण तमाम हदें पार करके इतना आगे जा चुका है कि विजय की कामना पर संदेह होने लगता है। महज अयोध्या और बनारस के कलाकारों द्वारा रामलीला का मंचन देखने और पुतलों के दहन पर तालियां बजाकर विजयोत्सव मनाने से राम का वनवास खत्म हो पाएगाॽ बदलते परिवेश में ही नहीं‚ हमारे समाज के आमजन का यह यक्ष प्रश्न है। राम असहायों के हमदर्द हैं‚ वंचितों के नायक और दीन–दुखियों के दाता हैं। राम आमजनों का कष्ट सहन नहीं कर सकते‚ राम में चेतना दुख सहने के लिए ही है।
राम शक्ति और विजय के प्रतीक हैं‚ प्रेम‚ भाईचारे और पारस्परिक सद्भाव के परिचायक हैं। किंतु इन समस्त प्रतिमानों से कहीं अधिक ऊपर राम मर्यादा के साक्षात प्रतीक हैं। इसी वजह से राम ही हैं‚ जो शक्ति को धारण करने के लिए चराचर जगत में सबसे सार्थक चरित्र हैं। शक्ति राम के पास है‚ तो संतुलित और समन्वित है‚ क्योंकि राम की अनुपम और अतुलनीय शक्ति तो राम की मर्यादा ही है। राम गरीबनवाज हैं‚ इसलिए वह इतिहास के प्रत्येक युग के वंचित‚ दीनहीन व वनवासी लोगों के प्रतिनिधि–नेता हैं। आज के इस दौर में गोस्वामी तुलसी की ये पंक्तियां आज भी बेहद समसामयिक और प्रासंगिक हैं– ‘खेती न किसान को‚ भिखारी न भीख। बलि (टैक्स) बनिक को बनिज (व्यापार)‚ न चाकर को चाकरी.खेतिहर मजदूर और काश्तकारों की समस्याएं‚ वणिक–व्यापारी‚ बुनकर‚ कारीगर‚ दिहाड़ी मजदूर‚ रेहड़ी–ठेले वालों की समस्याएं‚ पढ़े–लिखे बेरोजगारों के जीविकोपार्जन की समस्याएं क्या ये देश की ज्वलंत समस्याएं नहीं हैंॽ असलियत में राम इन समस्याओं के समाधान हेतु ही वन गए। एक बार वनवास के दौरान भरत कुछ राज–काज से संबंधित विमर्श के लिए राम के पास पहुंचे तो राम ने पूछा ‘प्रजा से टैक्स कैसे वसूल रहे होॽ’ भरत ने कहा–जिस परिपाटी से इवाकु वंश के शासक लेते आए हैं। तब राम ने भरत से क्या कहा‚ उसका वर्णन तुलसीदास अपनी दोहावली में इस प्रकार करते हैं– ‘बरसत हरसत सब लखें‚ करसत लखे न कोय। तुलसी प्रजा सुभाग से‚ भूप भानु से होय॥
यानी राम कहते हैं‚ ‘प्रिय अनुज‚ हम सूर्यवंशी हैं‚ हमें प्रजा से टैक्स ऐसे लेना चाहिए जैसे सूर्य अपनी किरणों के जरिये समुद्र‚ नदी और तालाबों से जल सोखता है‚ लेकिन किसी को पता नहीं चलता‚ जब वही जल बादलों के रूप में जरूरत के अनुसार बरसता है तो फसल लहलाने लगती हैं। हरेक मंजर हरियाली और खुशहाली से सराबोर हो उठता है।’ यानी सरकार को टैक्स बेहद कुशलतापूर्वक वसूलना चाहिए‚ ताकि जनता को पता भी न चले। सचाई यह है कि आज राम आमजनों के चिंतन में सिर्फ रामलीला के मंच पर अभिनय प्रस्तुतिकरण की चेतना तक सिमट कर रह गए हैं। जीवन में हरेक मनुष्य सफलता के उत्कर्ष को छूना चाहता है‚ यह इंसान की स्वाभाविक प्रवृत्ति है‚ लेकिन हृदय में यह धारण कर लेना भी बेहद जरूरी है कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। सफलता की सर्वोत्तम कुंजी है–धैर्य। राम अपने जीवन की तमाम विसंगतियों व विषमताओं का सामना बहुत ही धैर्यपूर्वक करते आगे बढ़ते हैं।
अंदाजा लगाइए कि राम का राज्याभिषेक होने जा रहा है‚ और अचानक सूचना मिलती है कि राजसी वस्त्र उतारो और वनवासी वल्कल पहनो; आपको चौदह वर्ष का वनवास घोषित हुआ है‚ लेकिन राम राज्याभिषेक से प्रफुल्लित नहीं हैं‚ और दूसरे पल ही वनवास मिल गया इससे तनिक भी दुखी नहीं हैं‚ असलियत में यही राम का धैर्य है‚ यही राम की मानवीयता और मर्यादा है। आज राम का कृतित्व जनसाधारण के लिए बेहद प्रासंगिक है‚ दस–बीस हजार का लोभ–लालच मिलते ही लोग एक झटके में धैर्य खो बैठते हैं‚ मानवीय मूल्यों व मर्यादाओं को ताक पर रख देते हैं। आधुनिकता की चकाचौंध और बनावटी उसूलों ने भगवान राम के मर्यादित आदर्शों को सर के बल खड़ा कर दिया है। असलियत में राम का गुणगान सभी करना चाहते हैं किंतु राम के आदर्शं को जीना नहीं चाहते। हर कोई रावण के अट्टहास का लुत्फ लेने को आतुर है। इसलिए समाज में विरोधाभास और विषमता की खाई का आकार बड़ा होता दिखाई देता है। दशहरा हमारे भीतर की १० प्रकार की बुराइयों का हरण करने वाला विजय पर्व है।
रामराज्य की अवधारणा का एकमात्र मकसद इंसान के अंदरूनी रावण को मारना ही है‚ लेकिन हम भीतरी रावण का वध करने के बजाय बाहर के रावण का दहन करने के प्रति ज्यादा उत्सुक रहते हैं। सनातन संस्कृति की लोक–परंपरा के अंतर्गत बुराई पर अच्छाई की जीत का ऐसा प्रतीक सचमुच अनोखा है‚ लेकिन एक चिंता भी उभरती है कि हम आजादी के ७५ वर्षों के उपरांत भी हम अपने भीतर बैठे रावण से लड़ने का साहस नहीं बटोर पा रहे हैं। आंतरिक ईष्र्या‚ द्वेष व प्रतिशोध को मिटाने का आत्मबल नहीं जुटा पा रहे हैं‚ जिसकी वजह से देश के कोने–कोने से हिंसा और अशांति आए दिन नया रूप लेकर इंसानियत को झकझोर कर देती है। तमाम कोशिशें हो रही हैं‚ फिर भी युवा पीढ़ी नशाखोरी की अंधेरी गलियों में भटक रही है। सदियों से राम हमारे नायक हैं‚ परंतु राम के आदर्शों पर चलने से हमेशा कतराते रहते हैं। हमें अंदर के रावण को खत्म करने का पुरुषार्थ वर्ष भर करना ही होगा। तभी विजयादशमी का उल्लास पर्व सार्थक होगा।