‘नफरत’ के बढते वातावरण के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीश महोदयों ने केंद्र सरकार से कहा है कि टीवी के खबर चैनलों में प्रसारित होती ‘नफरत’ को लेकर वह खामोश क्यों हैॽ उनका मानना है कि नफरत से समाज का ताना बाना बिगडता है। टीवी में प्रसारित होती नफरत के नियमन के लिए जब तक कोई नियमावली नहीं आ जाती तब तक हमें कुछ गाइडलाइंस देनी जरूरी हैं‚ जो ‘विशाखा कानून’ की तर्ज पर हो सकती हैं.। माननीय न्यायाधीशों की टिप्पणी सही समय पर आई है। इसलिए इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। न्यायाधीश महोदय मानते हैं कि बहसों में एंकर्स की भूमिका निर्णायक होती है। वे चाहें तो नफरतिया बोलों को शुरू होते ही रोक सकते हैं‚ उन्हें खामोश कर सकते हैं‚ लेकिन अक्सर ऐसा नहीं करते.लेकिन सचाई सिर्फ इतनी नहीं है।
मीडिया को जानने वाले जानते हैं कि मीडिया के जटिल संजाल के बीच एंकर सिर्फ मामूली ‘संयोजक’ भर है‚ जो बहुत सी सीमाओं में काम करता है। मीडिया भी बहुत सी सीमाओं में काम करता है। मीडिया का काम ‘यथार्थ’ को ‘जनता’ के लिए ‘मीडिएट’ करना होता है। वह घटना ‘पैदा’ नहीं करता‚ बल्कि जो ‘घटता’ है‚ उसको ‘बताता–दिखाता’ है। जब कहीं कुछ ‘घटित’ हो जाता है‚ तभी वह उसे ‘खबर’ बनाता है। फिर वह उसकी ‘व्याख्या’ करने के लिए बहसें कराता है‚ जिसमें एंकर की भूमिका ‘मीडिएटर’ या ‘संयोजक’ जैसी होती है‚ जो ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ तत्वों को साथ बिठाकर उनके विचारों से दर्शकों को अवगत कराता है ताकि वे अपनी राय बना सकें॥। ऐसे में मीडिया के रोल की सारी जिम्मेदारी एंकर पर नहीं थोपी जा सकती। हर एंकर अपने चैनल के विराट ‘नेटवर्क’ के सहारे काम करता है। इस नेटवर्क में एंकर के ऊपर ‘कोई’ होता है‚ जो उसके ‘ईयरफोन’ पर समय–समय पर आदेश देता रहता है कि अब इसका जवाब उससे दिलवाओ और उसे इससे ठुकवाओ और इनके ऊपर ‘प्रायोजक’ और ‘विज्ञापनदाता’ होते हैं‚ मीडिया के ‘मारकेटिग मैनेजर’ होते हैं‚ और ‘टीआरपी’ के मैनेजर होते हैं‚ इनके ऊपर ‘मीडिया मालिक’ होते हैं‚ जो अपनी तिजौरी को देखते हैं‚ और इन सबके ऊपर ‘राजनीतिक मालिक’ होते हैं‚ जो मीडिया की राजनीति को तय करते हैं कि उसे कब किस राजनीतिक ताल पर कितना नाचना है‚ और कितना नहीं!
अगर हम मानते हैं कि मीडिया का काम यथार्थ ‘बनाना’ नहीं‚ यथार्थ को दिखाना–बताना भर है‚ तो हमें यह भी मानना होगा समाज में फैली नफरत का अकेला जिम्मेदार नहीं है। अगर समाज में नफरत पहले से मौजूद है‚ और कहीं कोई नफरतिया घटना घटती है‚ तो मीडिया उसे दिखाएगा ही और उसकी व्याख्या भी कराएगा यानी बहस भी कराएगा। मीडिया यही कर रहा है। एंकर भी यही कर रहे हैं‚ लेकिन अब बहसें बढती नफरत के दलदल में ही फंस गई हैं‚ उनको इनसे निकलना होगा और वे निकल सकती हैं। यह लेखक कई बार इसी कॉलम में एंकरों और बहसों की विकृतियों पर टिप्पणी कर चुका है‚ लेकिन वह यह भी जानता रहा है कि एंकर समूचे मीडिया तंत्र मामूली सा ‘पुरजा’ भर है। इसलिए उसे सब कुछ के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। और‚ जिन दिनों सोशल मीडिया नफरत का सबसे बडा माध्यम बना हो ऐसे में सिर्फ चैनलों की बहसों और एंकरों को कोसना कहां तक तर्क संगत हैॽ
अगर नफरत कम करनी है‚ तो समूचे समाज को एक साथ सोचना होगा कि उसे कैसे कम करे और मीडि़या को भी सोचना होगा कि नफरत की खबरों और बहसों को कैसे नियंत्रित करे‚ किन से विचार कराए‚ किनसे नहीं। यह मीडिया समीक्षक अरसे से बहसों के स्वरूप में आती गिरावट को देखता आ रहा है। इन दिनों तो बहुत सी बहसों में वैसे ही ‘तत्ववादी नफरतवादी चेहरे’ बैठे दिखते हैं‚ जिनके भाई–बिरादर समाज में खुद नफरत और विभाजन फैलाते रहते हैं। कई बार चैनल सीधे ‘नफरतकर्ता’ को बुला लेते हैं‚ जो चैनल पर अपने को बेशर्मी से डिफेंड करते दिखते हैं। इस तरह टीवी के जरिए अपनी कंस्टीट्वेसी बनाते रहते हैं। ऐसे तत्वों को बहसों में क्यों बुलाया जाता हैॽ हर चैनल में एक ‘गेस्ट लिस्ट’ होती है। जरूरत इस ‘गेस्ट लिस्ट’ को बदल कर ‘नई लिस्ट’ बनाने की है जिसमें नफरतवादियों की जगह तटस्थ विचारक–विशेषज्ञ हों‚ जिनके पास ‘संवाद’ करने की शिष्ट भाषा हो और एंकर को भी निर्भय करना है ताकि जैसे ही कोई संवाद की ‘लक्ष्मण रेखा’ लांघे उसे तुरंत आउट कर दे। तभी हम स्वस्थ संवाद शुरू कर सकेंगे।