क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) बदल रहा हैॽ आखिर क्या वजह है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत दिल्ली के मदरसों में गए और बच्चों से मुलाकात कीॽ क्या यह २०२४ में भाजपा को अकलियतों का वोट दिलाने की एक नई तरह की कोशिश हैॽ ऐसे तमाम सवाल उनके जहन में जरूर हैं‚ जो देश की सियासत को जानते–समझते हैं। ये सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने आधिकारिक तौर पर मदरसों और वक्फ बोर्ड़ के सर्वेक्षण का आदेश दे रखा है।
ये सवाल इसलिए भी अहम हैं क्योंकि बनारस में ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर शुरू हुए विवाद को निचली अदालत ने विवाद के रूप में मान्यता दे दी है। हालांकि आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने यह सफाई दी है संघ प्रमुख का मदरसा दौरा पूर्व से निर्धारित था और वह समाज के विभिन्न तबकों के लोगों से मिलते रहे हैं। इस मुलाकात का कोई और अर्थ न निकाला जाए। दरअसल‚ मोहन भागवत आरएसएस के पहले प्रमुख बनते जा रहे हैं‚ जिन्होंने संघ की रूपरेखा को बदला है। हालांकि यह सीधे तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि संघ का भाजपा पर कितना नियंत्रण है‚ लेकिन परिवर्तनकारी हस्तक्षेप से इनकार भी नहीं किया जा सकता है। यह बात काबिल–ए–गौर है कि वर्ष २००९ में उन्होंने के. एस. सुदर्शन के बाद संघ प्रमुख का पद संभाला। यह वह समय था जब भाजपा पराजित थी। उसके सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी‚ जिन्हें सबसे बड़े हिंदू नेता के रूप में सम्मान प्राप्त था‚ जद्दोजहद कर रहे थे। कांग्रेस हालांकि बहुत मजबूत स्थिति में नहीं थी‚ लेकिन वह भाजपा से बहुत आगे थी।
ऐसे राजनीतिक हालात में मोहन भागवत ने संघ प्रमुख का ओहदा संभाला। उसके बाद संघ में उन्होंने अनेकानेक प्रयोग किए। एक प्रयोग तो यही कि नरेन्द्र मोदी‚ जो कि तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे और संघ को बहुत प्रिय थे। इसलिए संघ ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया। यह संघ के द्वारा भाजपा की अंदरूनी राजनीति में एक बड़ा हस्तक्षेप था। सबसे महत्वपूर्ण यह कि भागवत ने ऐसा करते समय देश में बदल रही सियासत को समझा था। वे यह तो समझ रहे थे कि सत्ता में दलित‚ पिछड़ों और आदिवासियों को दरकिनार कर न तो सांस्कृतिक और सामाजिक सत्ता हासिल की जा सकती है और न ही राजनीतिक सत्ता। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह भी रही कि क्षेत्रीय दलों ने जातिगत समीकरणों के आधार पर अपना प्रभाव स्तर बढ़ा लिया था। ऐसे परिश्य में मोहन भागवत को नरेन्द्र मोदी को पीएम पद के उम्मीदवार के रूप में आगे बढ़ाया‚ जिनका संबंध ऊंची जाति से नहीं था। भाजपा की पारंपरिक राजनीति के उलट यह एक नये तरह की राजनीति थी। एक झटके में तब बेहद प्रभावशाली माने जाने भाजपा के नेताओं राजनाथ सिंह‚ नितिन गडकरी और मुरली मनोहर जोशी आदि भी पीछे कर दिए गए। वहीं मुरली मनोहर जोशी को भाजपा ने राजनीतिक संन्यास ही दे दिया।
भागवत के इस प्रयोग ने भाजपा के लिए सफलता का मार्ग प्रशस्त कर दिया और २०१४ में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने प्रभावशाली जीत हासिल की। तब उस समय भाजपा ने आरएसएस प्रमुख की इस नीति का अनुसरण किया कि समाज के वंचित वर्गों को अपने साथ जोड़ा जाए। इस नीति के तहत ही भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल व अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ न केवल गठबंधन किया बल्कि सरकार बनने पर उन्हें यथोचित सम्मान भी दिया। फिर २०१९ के लोक सभा चुनाव में भाजपा ने बिना किसी परेशानी के जीत हासिल की। संघ प्रमुख ने अपनी रणनीति में एक और बड़ा बदलाव हाल में किया है। यह बदलाव था आजादी के ७५वें वर्ष को अमृत महोत्सव के रूप में मनाने की। इतिहास में पहली बार संघ ने तिरंगे को अपनाया। जाहिर तौर पर यह बेवजह तो नहीं ही कहा जा सकता‚ लेकिन अब जबकि २०२४ में लोक सभा चुनाव होने हैं‚ तब क्या आरएसएस प्रमुख को लगने लगा है कि उनके पूर्व प्रयोग के प्रभाव की अवधि अब समाप्त हो चुकी हैॽ यदि उन्हें ऐसा लगता है तो उनका ऐसा लगना आश्चर्यजनक नहीं है। वजह यह कि भाजपा को मात देने के लिए कांग्रेस भी अपनी पारपंरिक ब्राह्मणावादी राजनीति का केंचुल उतार फेंकने को तैयार दिख रही है। वहीं दूसरी ओर नीतीश कुमार के नेतृत्व में एक नया मोर्चा बनता दिख रहा है। वैसे यह मोर्चा आने वाले समय में कितना प्रभावी होगा‚ इसका आकलन करना कठिन है‚ क्योंकि इसकी राह में अनेक अड़चनें हैं‚ लेकिन जिस तरह का आरंभ नीतीश कुमार ने किया है‚ उससे भाजपा की चिंताएं जरूर बढ़ी हैं।
दरअसल‚ भाजपा की नजर अब उन मुसलमानों पर अधिक है‚ जो शैक्षणिक‚ आर्थिक और राजनीतिक पायदान पर बहुत नीचे हैं‚ लेकिन उनकी आबादी बड़ी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में अपनी पार्टी के एक कार्यक्रम में यह घोषणा भी की थी कि पसमांदा समाज के लोगों को आगे लाया जाए। इसके पहले उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले ‘हुनर’ कार्यक्रम के जरिए भाजपा ने इस वर्ग के मुसलमानों पर प्रभाव डालने की पूरी कोशिश की। हालांकि यह कहना मुश्किल है कि भाजपा को इसमें कितनी सफलता मिली‚ लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि इन वर्गों के बीच उसने अपनी छवि में सुधार अवश्य किया है।
ऐसे में मोहन भागवत का मदरसा दौरा महत्वपूर्ण माना जा सकता है। इसकी वजह यह कि मदरसों में पसमांदा समाज के बच्चे ज्यादा पढ़ते हैं‚ क्योंकि उनके पास महंगे स्कूलों में जाने की स्थिति नहीं है। यह बात तो ‘सच्चर आयोग’ और ‘रंगनाथ मिश्र आयोग’ की रपट में भी शामिल है कि पसमांदा समाज के लोगों की स्थिति दलितों से भी बदतर है। ऐसे में यह उम्मीद बढ़ जाती है कि क्या भाजपा पसमांदा समाज की बेहतरी के लिए उन अनुशंसाओं को लागू करेगी‚ जो सच्चर और रंगनाथ मिश्र आयोग ने एक दशक से पहले किए। बहरहाल‚ मोहन भागवत बदल रहे हैं या फिर संघ बदल रहा है या भाजपा बदल रही है‚ कहना जटिल है। जाहिर तौर पर २०२४ का चुनाव उनकी जहन में है। ऐसे में क्या उनके अंदर आया यह बदलाव रंग दिखाएगा‚ यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा॥।