लोकतंत्र का चौथा खंभा मीडि़या एक बार फिर अदालत के निशाने पर है। सर्वोच्च न्यायालय ने खबरी चैनलों के ‘नफरती कार्यक्रमों’ पर तल्ख टिप्पणी की है। दरअसल‚ कुछ समाचार चैनल विभाजनकारी कंटेंट चलाते हैं‚ ऐसे आरोप लगते रहे हैं। ऐसे कंटेंट का जो दो समुदायों के बीच वैमनस्यता बढ़ाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी मौखिक टिप्पणी में नफरत भरे कार्यक्रमों की बहुतायत पर गहरी चिंता व्यक्त की है। साथ ही इसे रोकने के लिए नियमन की बात भी कही है। न्यायालय ने यह टिप्पणी दायर विभिन्न याचिकाओं की सुनवाई के दौरान की‚ जिसमें नफरत फैलाने वाले कार्यक्रमों पर अंकुश की मांग की गई है। न्यायालय ने केंद्र की भूमिका पर सवाल खड़े़ करते हुए विधि आयोग की इस संदर्भ में रिपोर्ट पर रुख स्पष्ट करने को भी कहा है। इसमें घृणा संबंधी अपराधों पर कानून में संशोधन पर सिफारिश की गई है। न्यायालय ने विशेष तौर पर टीवी एंकरों की भूमिका को रेखांकित किया और कहा कि टीवी एंकर बहस के दौरन विद्वेष फैलाने वाली चर्चा को रोकने में असफल रहते हैं। कई बार तो परोक्ष रूप से इसमें सहभागी भी बन जाते हैं। अलबत्ता‚ यह समझना जरूरी है कि टीवी एंकर सबकुछ तय नहीं करते बल्किकिसी भी समाचार चैनल की एक संपादकीय नीति होती है‚ जिसके मुताबिक कार्यक्रम बनाए जाते हैं। हां‚ लाइव के दौरान एंकर चीजों को तीखा होने से जरूर रोक सकता है‚ लेकिन जिस टीआरपी की अंधी दौड़़ में सभी चैनल खुद को झोंक चुके हैं‚ ऐसे में इस प्रकार के कार्यक्रमों पर अंकुश लगाना आसान नहीं है।
न्यायालय की टिप्पणी बताती है कि मीडि़या को आत्म अनुशासन में रखने के लिए बने संगठन भी अपनी भूमिका निभाने में असफल रहे हैं। यह चिंता की बात है। क्योंकि मीडि़या की स्वायत्तता उसकी सबसे बड़़ी ताकत रही है। अगर भविष्य में कोई नियामक संस्था बनाई जाती है तो परोक्ष रूप से ही सही; उसकी आजादी प्रभावित होगी। दूसरी तरफ तमाम आलोचनाओं के बावजूद मीडि़या का एक तबका ‘जो लोग देखना चाहते हैं‚ वही हम दिखाते हैं’ की आड़़ लेकर नफरती कार्यक्रमों को दिखाते हैं। ऐसे में बेहतर होगा कि मीडि़या चैनल खुद कोड़ ऑफ कंड़क्ट बनाएं। अपने बनाए नियमों से कम–से–कम सरकार या बाकी नियामक संस्थाओं पर मीडि़या को अपने तरीके से हांकने का आरोप नहीं लगेगा। ‘चेक एंड़ बैलेंस’ उनको करना होगा। इसी में सभी का भला है।